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सामायिक पाठ
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सावध
अत्र मानिवृत्तिपरक होतकर नहीं. क्योंकि सानपूर्ण निवृत्तिरूप
सम्पूर्ण व्रताको सामान्यकी अपेक्षा एक मानकर एक यमको ग्रहण सारसमुच्चय-आ, कुलभद्र (ई. १३७) द्वारा रचित ३२८ श्लोक करनेवाला होनेसे यह द्रव्यार्थिक नयका विषय है। (विशेष दे,
बद्ध एक तत्त्व प्रतिपादक ग्रन्थ । (दे. कुलभद्र)। छेदोपस्थापना)।
सारस्वत-१. लौकान्तिक देवोंका एक भेद -दे,लौकान्तिक; ४. इसीलिए मिथ्यादृष्टिको सम्भव नहीं
२. भरतक्षेत्र पश्चिम आर्यखण्डका एक देश-दे. मनुष्य/४। ध. १६/१.१,१२३/३६६/२ सर्वसावद्ययोगाद् विरतोऽस्मीति सकलसावध
सारस्वत यन्त्र-दे, यन्त्र । योगविरतिः सामायिकशुद्धिसंयमो द्रव्यार्थिकत्वात। एवं विधैकवतो मिथ्याष्टिः किं न स्यादिति चेन्न, आक्षिप्ताशेषविशेषसामान्याथिनो
सारीपुत्र-'महावग्ग' नामक बौद्ध ग्रन्थ के अनुसार, ये महात्मा नयस्य सम्यग्दृष्टित्वाविरोधात् । = 'मैं सर्व सावद्ययोगसे विरत हूँ'
बुद्धके प्रधान शिष्य थे। पहले जैन साधु थे, 'संजय' नामक एक इस प्रकार द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा सकल सावद्ययोगके त्यागको
परिव्राजकने इन्हें बुद्धका शिष्य बननेसे मना किया था। (द, सा./ सामायिक-शुद्धि-संयम कहते हैं। प्रश्न-इस प्रकार एक व्रतका
पृ. २७/पं. नाथूराम प्रेमी)। नियमवाज्ञा जीव मिथ्यादृष्टि क्यों नहीं हो जायेगा ! उत्तर- साधद्वय प्रज्ञाप्त-आचार्य अमितगति(ई.१८३-१०२३) कृत संस्कृत नहीं, क्योंकि, जिसमें सम्पूर्ण चारित्रके भेदोंका संग्रह होता है, श्लोकबद्ध, अढाई द्वीप प्ररूपक एक रचना -दे, अमितगति । ऐसे सामान्यग्राही द्रव्यार्थिक नयको समीचीन दृष्टि माननेमें
सालवमल्लि राय-मग्लिभूपालका अपर नाम । (मो, मा.प्र./ कोई विरोध नहीं आता है।
२३। पं. परमानन्द शास्त्री )।५. सामायिक चारित्र व गुप्तिमें अन्तर
सालिवाहन-भट्टारक जगभूषण शिष्य'जैन कधि वि. १६६५ में रा. वा./६/१८/३/६१७/१ स्यादेतत्-निवृत्तिपरत्वात-सामायिकस्य हरिवंश पुराण रचा।-हिन्दी जैन साहित्य इतिहास ॥१०॥
गुप्तिप्रसंग इति । तन्नः किं कारणम । मानसप्रवृत्तिभावात् । सावध-हिंसा जनक मन वचन कायके व्यापारको सावद्य कहते हैं। अत्र मानसीप्रवृत्तिरस्ति निवृत्तिलक्षण त्वाद गुप्तेरित्यस्ति भेदः। पूजा, ब्रह्मचर्य आदि भी यद्यपि कथं चित् सावध हैं, परन्तु धर्मके -प्रश्न-निवृत्तिपरक होनेके कारण सामायिक चारित्रके गुप्ति सहकारी व अधिक पुण्योत्पादक होनेसे ग्राह्य है। पर खर कर्म आदि होनेका प्रसंग आता है। उत्तर-नहीं. क्योंकि सामायिक चारित्रमें अन्य लौकिक सावध व्यापार त्याज्य है। मानसी प्रवृत्तिका सद्भाव होता है, जब कि गुप्ति पूर्ण निवृत्तिरूप 1. सावद्ययोग सामान्यका लक्षण होती है। यह दोनों में भेद है।
पं.घ./उ./७५०-७५१ सर्वशब्देन तत्रान्तर्बहिर्वृत्तिर्यदर्थतः । प्राणच्छेदो ६. सामायिक चारित्र व समितिमें अन्तर
हि सावध सैव हिंसा प्रकीर्तिता।७५० योगस्तत्रोपयोगो वा बुद्धिपूर्वः
स उच्यते। सूक्ष्मश्चाबुद्धिपूर्वो यः स स्मृतो योग इत्यपि १७५१॥ रा. वा./६/१८/४/६१७/४ स्यान्मतम् -यदि प्रवृत्तिरूपं सामायिक
- सर्वसावद्ययोग' इस पदमें अर्थकी अपेक्षा 'सर्व' शब्दसे अन्तरंग समितिलक्षणं प्राप्त मिति; तन्नः किं कारणम् । तत्र यतस्य प्रवृत्त्यु
और बहिरंग प्रवृति अर्थात् मन वचन काय तीनोंकी प्रवृत्ति है। पदेशात् । सामायिके हि चारित्रे यतस्य समितिषु प्रवृत्तिरुपदिश्यते।
तथा निश्चयसे 'सायद्य' शब्द का अर्थ प्राणच्छेद है। और वही हिंसा अतः कार्यकारणभेदादस्ति विशेषः । -प्रश्न-यदि सामायिक
कही जाती है ।७५०। उस हिंसामें जो बुद्धिपूर्वक या अबुद्धिपूर्वक प्रवृत्तिरूप है (दे. शीर्षक सं.५) तो इसको समितिका लक्षण प्राप्त
स्थूल या सूक्ष्म उपयोग होता है वह भी योग शब्दका अर्थ है ।७५१॥ होता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, सामायिक चारित्रमें समर्थ व्यक्ति
* सावध वचनका लक्षण दे, वचन/१/३ । को हो समितियों में प्रवृत्तिका उपदेश है। अतः सामायिक चारित्र कारण है और समिति इसका कार्य ।
२. सावध कर्मके भेद सामायिक पाठ-१. आ. अमित गति द्वि. (ई. १८३-१०२३) कृत. १. असि, मसि आदि रूप आजीविकाकी अपेक्षा १२० संस्कृत पद्यों में मद्ध, सामायिक के स्वरूप तथा विधि का प्रतिपादक ग्रन्थ । (ती./२/४०२)। २. अमितगति ई. १८३-१०२३) कृत
रा. वा./३/३६/२/२००/३२ कर्मास्त्रेिधा-सावद्यकर्याि अल्पसावद्य
कार्या असावद्यकश्चेिति । सावद्यकार्याः षोढा-असि-मसि३२ संस्कृत पद्यबद्ध, समताभावोत्पादक ललित पाठ ।
कृषि-विद्या-शिल्प-वणिक्कर्मभेदात। - कार्य तीन प्रकारके हैंसामीप्यरा . वा./४/१८/१/२२३/१२ तुल्यजातीयेनाव्यवधान सावद्यकर्यि, अल्पसावद्यकर्यि और असावद्यकर्यि। तहाँ भी सामीप्यम् । =तुत्य जातीयोंके बीच में दूसरे पदार्थों का न आना सावद्यकर्यि असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प और वणिक्कर्म के सामीप्य है।
भेदसे छह प्रकारके हैं। - साम्य-दे. सामायिक/१/१ ।
म. पु./१६/१७१ असिमषिः कृषिविद्या वाणिज्यं शिल्पमेव च । कर्माणी
मानि षोढा स्युः प्रजाजीवन हेतवः ।१७६१ = असि, मषि, कृषि, विद्या, सायणाचार्य-ई.१३६० के न्यायसूत्रके भाष्यकार अपर नाम् वाणिज्य, और शिल्प ये छह कार्य प्रजाकी आजीविकाके कारण माधवाचार्य (सि. वि./प्र.८० पं. महेन्द्र)।
हैं ।१७६॥ सार
२. खरकर्म (क्रूर व्यापार ) और उनके १५ अतिचार नि. सा./मू./३ विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं । -- (नियम शब्द का अर्थ नियमसे करने योग्य रत्नत्रय है) तहाँ विप
सा. ध./५/२१-२३ व्रतयेत्खरकर्मात्र मलान् पञ्चदश त्यजेत् । वृत्ति रीतका परिहार करनेके लिए 'सार' ऐसा वचन कहा है।
वनाग्न्यनस्स्फोटभाटकैर्यन्त्रपीडनम् ।२१। निर्लान्छनासतीपोषौ सर:स. सा/ता. वृ./२/१२/१५ सारः शुद्धावस्था।सार अर्थात शुद्ध अवस्था।
शोषं दबप्रदाम् । विषलाक्षादन्तकेशरसवाणिज्यमङ्गिरुक ।२२। इति
केचिन्न तच्चारु लोके सावद्यकर्मणाम् । अगण्यत्वात्प्रणेयं वा तदप्यतिसार निवह-विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे. विद्याधर।
जडान प्रति ।२३। = श्रावकोंको प्राणियोंको दुःख देनेवाले खर कर्म सारसंग्रह-आ. पूज्यपाद ( ई. श. ५) की एक संस्कृत छन्दबद्ध अर्थात क्रूर व्यापार सब छोड़ देने चाहिए, तथा उनके पन्द्रह अतिचार रचना। (जै./२/२८०) । (दे. पूज्यपाद )।
भी छोड़ने चाहिए। वे १५ कर्म ये हैं-१. वनजीविका, २. अग्निजैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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