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सुकक्ष
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सुख
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सुकक्ष-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर--दे. विद्याधर । सुकच्छ -पूर्व विदेहका एक क्षेत्र -दे, लोक/१/२ । सुकच्छविजय-पूर्व विदेहस्थ चित्रकूट वक्षारगिरिका एक कूट
व उसका स्वामी देव-दे. लोक/५/४ | सुकुमाल चरित्र-आ सकल कीर्ति (ई. १४०६- १४४२) कृत
संस्कृत पद्य बद्ध ग्रन्थ । (ती./३/३३२) सुकेतु-म.प्र./५६/श्लो, नं. श्रावस्ती नगरीका राजा था (७२)। जुए में सर्वस्व हारनेपर दीक्षा ग्रहणकर कठिन तप किया । (८२-८३) कला, चतुरता आदि गुणों का निदान कर लान्तव स्वर्ग में देव हुआ (८५) यह धर्म नारायणका पूर्वका दूसरा भव है -दे. धर्म । सुकौशल-१. मध्यप्रदेश। अपरनाम महाकौसल । (म. पु./प्र.४८
पन्नालाल)। २. प. पु./सर्ग/श्लोक राजा कीर्तिधरका पुत्र था। ( २२/१५६)। मुनि ( अपने पिता) की धर्मवाणी श्रवण कर दीक्षा ग्रहण कर ली (२२/४०)। तपश्चरण करते हुए को माताने शेरनी बन कर खा लिया (२२/१०)। जीवनके अन्तिम क्षणमें निर्वाण प्राप्त किया ( २२/६८)। सुख-सुख दो प्रकारका होता है-लौकिक व अलौकिक । लौकिक सुख विषय जनित होनेसे सर्वपरिचित है पर अलौकिक सुख इन्द्रियातीत होनेसे केवल विरागीजनोंको ही होता है। उसके सामने लौकिक सुख दुःख रूप ही भासता है। मोक्षमें विकल्पात्मक ज्ञान व इन्द्रियों का अभाव हो जानेके कारण यद्यपि सुखके भी अभावकी आशंका होती है, परन्तु केवलज्ञान द्वारा लोकालोकको युगपत जानने रूप परमज्ञाता द्रष्टा भाव रहनेसे वहाँ सुखकी सत्ता अवश्य स्वीकरणीय है, क्योंकि निर्विकल्प ज्ञान ही वास्तव में सुख है।
अलौकिक सुखका कारण वेदनीय या आठों कर्मका अभाव।
-दे. मोक्ष/३/३ ॥ अव्याबाथ सुखके अवरोधक कर्म। -दे, मोक्ष/३/३ । | सुख वहाँ है जहाँ दुःख न हो। शान ही वास्तव में सुख है। अलौकिक सुखमें लौकिकसे अनन्तपनेकी कल्पना । छमस्थ अवरथामें भी अलौकिक सुखका वेदन होता है। सिद्धोंके अनन्त सुखका सद्भाव । मोक्षमें अनन्त सुख अवश्य प्रकट होता है।
-दे. मोक्ष/६/२। सिद्धोंका सुख दुःखाभाव मात्र नहीं है। सिद्धोंमें सुखके अस्तित्वको सिद्धि । कर्मों के अभावमें सुख भी नष्ट क्यों नहीं होता। इन्द्रियोंके बिना सुख कैसे सम्भव है। अलौकिक सुखकी श्रेष्ठता। अलौकिक सुखकी प्राप्तिका उपाय । दोनों सुखोंका भोग एकान्तमें होता है।
-दे. भोग/७॥
१. सामान्य व लौकिक सुख निर्देश १. सुखके भेदोंका निर्देश
| सामान्य व लौकिक सुख निर्देश सुखके भेदोंका निर्देश।
लौकिक सुखका लक्षण । ३ लौकिक सुख वास्तवमें दुःख है।
लौकिक सुखको दुख कहनेका कारण । ५ । लौकिक सुख शत्रु है। ६ | विषयोंमें सुख-दुःखकी कल्पना रुचिके अधीन है। सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टिके सुखानुभवमें अन्तर ।
-दे. मिथ्यादृष्टि/४/१। मुक्त जीवोंको लौकिक सुख दुःख नहीं होता। लौकिक सुख बतानेका प्रयोजन । सुखमें सम्यग्दर्शनका स्थान । -दे, सम्यग्दर्शन//५। लौकिक सुख दुःखमें वेदनीय कर्मका स्थान ।
-वेदनीय/३। ९ सुख व दुःसमें कथंचित् क्रम व अक्रम ।
न. च. वृ./३६८ इंदियमणस्स पसमज आदत्यं तहय सोख चउभेयं । ।३६८। -सुख चार प्रकारका है-इन्द्रियज, मनोत्पन्न. प्रशमसे उत्पन्न और आत्मोत्पन्न । ने. च. वृ./१४ पर फुटनोट-इन्द्रियजमतीन्द्रियं चेति सुखस्य द्वौ भेदो।
= इन्द्रियज और अतीन्द्रियज ऐसे सुखके दो भेद हैं। त. सा./८/४७ लोके चतुबिहार्येषु सुखशब्दः प्रयुज्यते । विषये वेदनाभावे विपाके मोक्ष एव च।४१ - जगत में सुख शब्दके चार अर्थ माने जाते हैं-विषय, वेदनाका अभाव, पुण्यकर्मका फल प्राप्त होना, मुक्त हो जाना।
२. लौकिक सुखका लक्षण
अलौकिक सुख निर्देश अलौकिक सुखका लक्षण । अव्यायाध सुखका लक्षण । अतीन्द्रिय सुखसे क्या तात्पर्य ।
स. सि./४/२०/२५१/८. सुखमिन्द्रियार्थानुभवः । स. सि./५/२०/२८८/१२ सदसद्वेद्योदयेऽन्तरङ्गहेतौ सति बाह्यद्रव्यादिपरिपाकनिमित्तवशातुत्पद्यमानः प्रोतिपरितापरूपः परिणाम. सुखदु खमित्यारल्यायते। इन्द्रियों के विषयों के अनुभव करनेको सुख कहते हैं (रा. वा./४/२०/३/२३५/१५) साता और असाता रूप अन्तरंग परिणाम के रहते हुए बाह्य द्रव्यादिके परिपाकके निमित्तसे जो प्रीति और परिताप रूप परिणाम उत्पन्न होते हैं वे सुख और दुःख कहे जाते हैं। (रा. वा./५/२०/१/४७४/२२); (गो.जी./जी.प्र./६०६/ १०६२/१५)। न्या. वि./वृ./१/११५/४२८/२० पर उधृत-सुखमालादनाकारम् । -सुख
आह्वाद रूप होता है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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