Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 439
________________ सुख ४३२ २. अलौकिक सुख निर्देश ५. ज्ञान ही वास्तवमें सुख है 'न. च. वृ./४०३ सोक्खं च परागसोक्वं जीवे चारित्तसंजुदे दिट्ठ। बढइ तं. जइवग्गे अणवरयं भावणालीणे ।४०३ -चारित्रसे संयुक्त प्र. सा./मू./६० जं केवलं ति णाणं तं सोक्वं परिणामं च सो चेव।। तथा भावना लीन यतिवर्गमें निरन्तर परम सुख देखा जाता है। खेदो तस्स ण भणिदो जम्हा घादी खयं जादा ।६० =जो केवल पं.वि./२३/३ एकत्वस्थितये मतिर्यनिशं संजायते मे तयाप्यानन्दः नामका ज्ञान है, वह सुख है, परिणाम भी वही है। उसे खेद नहीं परमात्मसंनिधिगतः किंचित्समुन्मीलति । किंचिरकालमवाप्य सैव कहा गया है, क्योंकि घाती कर्म क्षयको प्राप्त हुए हैं 101 सकले: शीलैर्गुणैराश्रितां। तामानन्दकलां विशालविलसदबोधी स. सि./१०/४/४६८/१३ ज्ञानमयत्वाच्च सुखस्येति। -मुख ज्ञानमय करिष्यत्यसौ।३। - एकत्व की स्थितिके लिए जो मेरी निरन्तर बुद्धि होता है। होती है, उसके निमित्तसे परमात्माकी समीपताको प्राप्त हुआ आनन्द ६. अलौकिक सुखमें लौकिकसे अनन्तपने की कल्पना कुछ थोड़ा सा प्रकट होता है। वही बुद्धि कुछ काल प्राप्त होकर भ. आ./मू./२१४८-२१५१ देविंदचकवट्टी इंदियसोक्खं च जं अणुवहति । समस्त शीलों और गुणों के आधारभूत एवं प्रक्ट हुए उस विपुल सहरसरूवगंधफरिसप्पयमुत्तमं लोए ।२१४८। अव्याबाधं च सुह ज्ञानसे सम्पन्न आनन्दकलाको उत्पन्न करेगी।३।। स्या, म./01८७/२५ इहापि विषयनिवृत्तिज सुखमनुभवसिद्धमेव । - सिद्धाजं अणुहवंति लोगग्गे । तस्स ह अणं तभागो इंदियसोखं तयं होज्ज ।२१४६। जं सब्वे देवगणा अच्छरसहिया सुहं अणुहवं ति। संसार अवस्थामें भी विषयों की निवृत्तिसे उत्पन्न होने वाला सुख तत्तो वि अणतगुणं अव्वाबाहं सुहं तस्स ।२१५०। तिम वि कालेसु अनुभवसे सिद्ध है। प.प्र./टी./२/११८ दीक्षाकाले...स्वशुद्धात्मानुभवने यत्सुखं भवति मुहाणि जाणि माणुसतिरिक्रब देवाणं । सव्वाणि ताणि ण समाणि जिनवराणां वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरतौ जीवस्तत्सुखं लभत इति । तस्स खणमित्तसोबखेण १२१५१॥ =स्पर्श, रस, गन्ध, रूप, शब्द इत्यादिकोंसे जो सुख देवेन्द्र चक्रवर्ती वगैरहको प्राप्त होता है, जो -दीक्षाके समय तीर्थंकर देव निज शुद्ध आत्माको अनुभवते हुए जो कि इस लोक में श्रेष्ठ माना जाता है, वह सुख सिद्धोंके सुखका निर्विकल्प सुखको पाते हैं, वही सुख रागादि रहित निर्विकल्प अनन्तयाँ हिस्सा है, सिद्धोंका सुख बाधा रहित है, वह उनको समाधिमें लीन विरक्त मुनि पाते हैं । (और भी दे. सुख/२/१०) लोकाग्रमें प्राप्त होता है ।२१४८-२१४६। अप्सराओंके साथ जिस ८. सिद्धोंके अनन्त सुखका सद्भाव है सुखका देवगण अनुभव करते हैं, सिद्धोंका सुख उससे अनन्त गुणित है, और बाधा रहित है ।२१५०) तीन कालमें मनुष्य, तिर्यंच और रा.वा./१०/४/१०/६४३/१८ यस्य हि मूर्तिरस्ति तस्य तत्पूर्व कः प्रीतिपरिदेवोंको जो सुख मिलता है वे सब मिलकर भी सिद्धके एक क्षणके तापसंबन्धः स्यात, न चामूर्तानां मुक्तानां जन्ममरणद्वन्द्वोपनिपातसुखको भी बराबरी नहीं करते ।२१५१। (ज्ञा./४२/६४-६८) व्याबाधास्ति, अतो नियबाधत्वात् परमसुखिनस्ते। -मूर्त मू. आ./११४४ जं च काममुहं लोए जं च दिब्वमहामुहं । वीतराग अवस्थामें ही प्रीति और परितापकी सम्भावना थी। परन्तु अमूर्त मुहस्सेदे पंतभागंपि णग्घई ।११४४। - लोकमें विषयोंसे जो उत्पन्न ऐसे मुक्त जीवोंके जन्म, मरण आदि द्वन्द्वोंकी बाधा नहीं है। पर सुख है, और जो स्वर्गमें महा सुख है, वे सब वीतराग सुखके अनन्तवें सिद्ध अवस्था होनेसे वे परम सुखी हैं। भागकी भी समानता नहीं कर सकते हैं ।११४४। (ध. १३/५,४,२४/ ध. १/१,१,१/गा, ४६/५८ अदिसयमाद-समुत्थ विसयादीदं अणोक्मगा.५/५१) मणतं । अन्वुच्छिण्णं च सुहं सुधुवजोगो य सिद्धाणं ।४६। अतिप. प्र.//१/११७ जं मुणि लहइ अणं त-सुहु णिय अप्पा झायतु । तं शय रूप आत्मासे उत्पन्न हुआ, विषयोंसे रहित, अनुपम, अनन्त मुह इंद वि णवि लहइ देविहिं कोडि रमंतु ।११७। -अपनी आत्मा और विच्छेद रहित सुख तथा शुद्धोपयोग सिद्धोंके होता है ।४६॥ को ध्यावता परम मुनि जो अनन्तसुख पाता है, उस सुखको इन्द्र भी ध.१/१,१,३३/गा, १४०/२४८ णेव य इंदियसोक्खा अणि दियाणंतकरोड़ देवियों के साथ रहता हुआ नहीं पाता ।११७) णाण-सहा ।१४०।-सिद्ध जीवों के इन्द्रिय सुख भी नहीं है, क्योकि ज्ञा./२१/३ यत्सुखं वीतरागस्य मुनेः प्रशमपूर्वकम्। न तस्यानन्तभागोऽपि उनका अनन्त ज्ञान और अनन्त मुख अनिन्द्रिय है। (गो. जी./ प्राप्यते त्रिदशेश्वरैः ।३। =जो मुख वीतराग मुनिके प्रशमरूप भू./१७४) विशुद्धता पूर्वक है उसका अनन्तवाँ भाग भी इन्द्रको प्राप्त नहीं त. सा./5/४५ संसारविषयातीतं सिद्धानामव्ययं सुखम् । अव्यावाधहोता है ।। मिति प्रोक्तं परमं परमर्षिभिः ।४॥-सिद्धोंका सुख संसारके विषयोंत्रि, सा./५६० चक्किकुरुफणिसुंरिंददेवहमिदे जं सुहं तिकालभवं । तत्तो से अतीत. स्वाधीन, तथा अव्यय होता है । उस अविनाशी सुखको अणंतगुणिदं सिद्धाणं खणसुहं होदि ।।६० - चक्रवर्ती, भोगभूमिज, अव्यायाध कहते हैं ।४५॥ धरणेन्द्र, देवेन्द्र और अहमिन्द्रके; इनके क्रमशः अनन्तगुणा अनन्तगुण स्था.म./८/८६/३ पर उधृत श्लोक-सुखमात्यन्तिकं यत्र बुद्धिग्राह्यमतीसुख है । इन सबका त्रिकाल में होने वाला अनन्त सुख एकत्रित करने न्द्रियम् । तं वै मोक्षं विजानीया दुष्प्रापमकृतात्मभिः। -जिस पर भी सिद्धोंके एक क्षण में होने वाला सुख अनन्त गुणा है ।५६०। अवस्थामें इन्द्रियोंसे बाहा केवल बुद्धिसे ग्रहण करने योग्य आत्यन्तिक (बो. पा./टी./१२/८२ पर उदधृत) सुख विद्यमान है वही मोक्ष है। स्या. म./4/08/४ मोक्षे निरतिशयक्षयमनपेक्षममन्तं च सुखं तद वाढं ७. छद्मस्थ अवस्थामें भी अलौकिक सुखका वेदन विद्यते। -निरतिशय, अक्षय और अनन्त सुख मोक्षमें विद्यमान है। होता है ९. सिद्धोंका सुख दुःखाभाव मात्र नहीं है दे. अनुभव/४/३ आत्मरत होने पर तेरे अवश्यमेव वचनके अगोचर अनन्त सुख होगा। ध. १३/५,५,१६/२०८/८ किमेत्य सुहमिदि घेव्पदे । दुक्खुवसमो मुहं प.प्र./न./१/११८ अप्पा दंसणि जिणवरह जं सुहु होइ अणंतु । तं सुहु णाम । दुक्खक्खओ मुहमिदि किण्ण घेपदे । ण, तस्स कम्मक्ख एणुलहइ विराउ जिउ जाणंतउ सिउ संतु ॥११८। - शुद्धारमाके दर्शनमें प्पज्जमाणस्स जीवसहावस्स कम्मजणिदत्तविरोहादो।-प्रश्न-प्रकृतजो अनन्त सुख जिनेश्वर देवोंके होता है, वह सुख वीतराग भावनासे में ( वेदनीयकर्म जन्य सुख प्रकरणमें) सुख शब्दका क्या अर्थ लिया परिणत हुआ मुनिराज निजशुद्धात्मस्वभावको तथा रागादि रहित गया है । उत्तर-प्रकृतमें दुःखके उपशम रूप मुख लिया गया है। शान्त भावको जानता हुआ पाता है ।११८। प्रश्न-दुःस्वका क्षय मुख है, ऐसा क्यों नहीं ग्रहण करते ? उत्तर-नहीं, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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