Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 448
________________ सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय सूक्ष्म सांपराय २.पावर तैजस कायिकादिकोंका लोकमें अवस्थान। २. सूक्ष्म साम्पराय चारित्रका स्वामित्व -दे. काय/२/५। प.ख. १/१.१/सू. १२७/३७६ सुहम-सांपराइयसुद्धिसंजदा एमम्मि ३. स्थूल परसे सूक्ष्मका अनुमान । दे. अनुमान/२/५ । चैव सुहुम-सापराइय सुद्धिसंजदट्ठाणे ।१२७। - सूक्ष्म साम्पराय शुद्धि ४. सूक्ष्म व स्थूल दृष्टि । -दे. परमाणु/१।६। संयत जीव एक सूक्ष्म-साम्पराय-शुद्धि-संयत गुणस्थानमें ही होते है।१२७१ (गो.जी./मू./४६७); (गो. जी./जी.प्र./७०४/१४०/११); ५. सूक्ष्म व बादर जीवों सम्बन्धी गुणस्थान, जीवसमास, (द्र. सं./३५/१४८) मार्गणा स्थान आदि २० प्ररूपप्पाएँ। -दे. सत् । ६. सूक्ष्म बादर जीवोंकी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, . ३. जघन्य उत्कृष्ट स्थानोंका स्वामित्व अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ। -दे. वह वह नाम। प. खं, ७/२.११/सू. १७२-१७३ ब, टी./५६८ सुहुमसापरायसुद्धि७. सूक्ष्म बादर जीवोंमें कोका बन्ध उदय सत्त्व । संजमस्स जहणिया चरित्तलदी... १७२।' उबसमसेडीदो ओयरमाण परिमसमयसहुमसापराइयस्स। 'तस्सेब उक्कसिया चरित्तलखो... -दे.बह-वह नाम। ।१७३॥ चरिमसमयसुहुमसपिराइयखवगस्स । - सूक्ष्मसाम्परायिक८. स्कन्धके सूक्ष्म स्थूल आदि मेद। -दे. स्कन्ध/३। शुद्धि संयमकी जघन्य चरित्र लन्धि... १७२। 'उपशम श्रेणीसे उतरने वाले अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके होती है । 'उसी ही सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय-वे. नय/III/५ । सूक्ष्मसाम्परायिक शुद्धि संयमकी उत्कृष्ट चारित्र लन्धि... १७३।' अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्म साम्परायिक क्षपकके होती है। सूक्ष्म कृष्टि-थे. कृष्टि। सूक्ष्म किया अप्रतिपत्ति शुक्लध्यान-दे. शुक्लध्यान/११७ । ४. सूक्ष्म साम्पराय चारित्र व गुप्ति समिति में अन्तर सूक्ष्मजीव-वे. इन्द्रिय, काय, जीव समास । रा. वा./९/१८/१०/६१७/२६ स्यान्मतम्-गुप्तिसमित्योरभ्यतरत्रान्तर्भव तीदं चारित्रं प्रवृत्तिनिरोधात सम्यगयनाच्चेतिः तन्नः किं कारणम् । सूक्ष्म सांपराय सद्भावेऽपि गुणविशेषनिमित्ताश्रयणात् । लोभसंज्वलनारख्यः साम्प रायः सूक्ष्मो भवतीत्ययं विशेष आश्रितः। -प्रश्न-यह चारित्र १. सूक्ष्म साम्पराय चारित्रका लक्षण प्रवृत्ति निरोध या सम्यक् प्रवृत्ति रूप होनेसे गुप्ति और समितिमें स. सि./४/१८/४३६/६ अतिसूक्ष्मकषायत्वात्सूक्ष्मसाम्परायचारित्रम् । अन्तर्भूत होता है ! उत्तर-ऐसा नहीं है क्योंकि यह उनसे आगे -जिस चारित्रमें कषाय अति सूक्ष्म हो वह सूक्ष्म साम्पराय चारित्र बढ़कर है। यह दसवें गुणस्थानमें, जहाँ मात्र सूक्ष्म लोभ टिमटिमाता है। (रा.पा./६/१८/६/६१७/२१); (ध. १/१,१.१२३/३७५/३); है, होता है, अतः यह पृथक् रूपसे निर्वि है। (गो.डी./जो. प्र./१४७/७१४/७) पं.सं./प्रा./१/१२२ अणुलोह वेयंतो जीओ उबसामगोपखवगो बा। सो ६. सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानका लक्षण मुहमसंपराजो अहवाएणूणो किंचि ॥१३२। -मोहकर्मका उपशमन पं.सं./प्रा./१/२२-२३ कोसुंभो जिह राओ अभंतरदो य सुडमरत्तो या क्षपण करते हुए सूक्ष्म लोभका वेदन करना सूक्ष्मसाम्पराय य। एवं मुहुमसराओ मुहुमकसाओ त्ति णायव्वो ।२२। पुवापुठ्वसंयम है, और उसका धारक सूक्ष्मसाम्पराय संयत कहलाता है । यह फडुयअणुभागाओ अणंतगुणहीणे। लोहाणुम्मि य द्विअओ हदि संयम यथारम्यात संयमसे कुछ ही कम होता है। (ध.१/१,१.१२३/ मुहमसंपराओ य ।२३। जिस प्रकार कुसमली रंग भीतरसे सूक्ष्म गा. १९०/३७३); (गो.जी./मू./४७४/८८२); (त. सा./६/४८) रक्त अर्थात अत्यन्त कम लालिमा वाला होता है, उसी प्रकार सूक्ष्म रा. वा./३/१८/१/६९७/२१ सूक्ष्मस्थूलसत्त्ववधपरिहाराप्रमत्तत्वाय अनु- राग सहित जीवको सूक्ष्मकषाय वा सूक्ष्म साम्पराय जानना पहतोत्साहस्य अखण्डितक्रियाविशेषस्य ... कषायविषाकुरस्य चाहिए ।२२। लोभाणु अर्थात् सक्ष्म लोभमें स्थित सूक्ष्मअपचयाभिमुखासीनस्तोकमोहमीजस्य सप्त एव परिप्राप्तान्वर्थसूक्ष्म- साम्परायसंयत की कषाय पूर्व स्पर्धक और अपूर्व स्पर्धकके अनुभाग साम्परायशुधिसंयतस्य सूक्ष्मसाम्परायचारित्रमाख्यायते। - शक्तिसे अनन्तगुणों हीन होती है ।२३। (गो. जी./मू./५८-18 ); सूक्ष्म-स्थूल प्राणियोंके धधके परिहारमें जो पूरी तरह अप्रमत्त है, (ध.२/१, १, १८/गा. १२१/१८८)। अत्यन्त निधि उत्साहशील, अखण्डितचारित्र...जिसने कषायके रा. वा./१/१/२१/५६०/१७ साम्परायः कषायः, स यत्र सूक्ष्मभावेनोविषांकुरोंको खोंट दिया है, सूक्ष्म मोहनीय कर्मके बीजको भी पशान्ति क्षयं च आपद्यते तो सूक्ष्मसाम्परायो वेदितव्यो ।जिसने नाशके मुखमें ढकेल दिया है, उस परम सूक्ष्म लोभवाले साम्पराय-कषायोंको सूक्ष्म रूपसे भी उपशम या क्षय करने वाला साधुके सूक्ष्म साम्पराय चारित्र होता है । (चा. सा./८४/२) सूक्ष्मसाम्पराय उपशमक क्षपक है। यो, सा. यो./१०३ सहभहें लोहहें जो मिलउ जो सुहुमु वि परिणामु। घ.१/१,१.१८/१८७/३ सूक्ष्मश्चासौ साम्परायश्च सूक्ष्मसाम्परायः। तं सो सहम वि चारित्त मुणि सो सासय-सुह-धामु । - सूक्ष्म लोभका प्रविष्टा शुद्धिर्येषां संयताना ते सूक्ष्मसाम्परायप्रविष्टशुद्धिसयता। . नाश होनेसे जो सूक्ष्मपरिणामाँका शेष रह जाना है, वह सूक्ष्म .ध.११.१.२७/२/१४/३ तदो जंतर-समए मुहमकिठिसरूवं लोभ वेदंतों चारित्र है, वह शाश्वत सुखका स्थान है। अणियदिठ-सण्णो बहुमसापराओ होदि । -सूक्ष्म कषायको, इ.सं./टी./३१/१४८/४ सूक्ष्मातीन्द्रियनिजशुद्धात्मसंवित्तिमलेन सूक्ष्म- सूक्ष्म साम्पराय कहते हैं उनमें जिन संयतोंकी शुद्धिने प्रवेश किया है सोभाभिधानसाम्परायस्य कषायस्य यत्र निरवशेषोपशमनं क्षपणं वा उन्हें सूक्ष्म-साम्पराय-प्रविष्ट-शुद्धि संयत कहते है। २. इसके अनन्तर तत्सूक्ष्मसाम्परायचारित्रमिति। - सूक्ष्म अतीन्द्रिय निजशुद्धामा- समयमें जो सूक्ष्म कृष्टिगत लोभका अनुभव करता है और जिसने के मलसे सूक्ष्म लोभ नामक साम्पराय कषायका पूर्ण रूपसे उपशमन अनिवृत्तिकरण इस संज्ञाको नष्ट कर दिया है, ऐसा जीव सूक्ष्मवा क्षपण सो सक्ष्म साम्पराय चारित्र है। साम्पराय संयम वाला होता है। भा०४-५६ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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