Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 452
________________ सोल्व ४४५ स्कंध सोल्व-भरत क्षेत्रस्थ मध्य आर्य खण्डका एक देश--दे. मनुष्य/४ सोकर-विजयाकी उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे. विद्याधर । सौगन्ध-मानुषोत्तर पर्वतस्थ एक कूट--दे. लोक/१०॥ सौगन्धिक-मानुषोत्तर पर्वतस्थ एक कूट-दे. लोक१० । सौत्रान्तिक-दे. बौद्धदर्शन । सौदामिनी-रुचक पर्वत वासिनी दिक्कुमारी। -दे. लोक/५/१३ । सादास-प.पू./२२/श्लोक-इक्ष्वाकु वंशी नघुषका पुत्र था (१३१) नरमांसभक्षी होने के कारण राज्यसे च्युत कर दिया गया (१४४) । दैवयोगसे महापुर नगरका राज्य प्राप्त हुआ। इसके अनन्तर युद्ध में अपने पुत्र को जीत लिया । अन्त में दीक्षित हो गया (१४८-१५२) । सौधर्म-1. सौधर्मका लक्षण स.सि./४/११/२४६/७ सुधर्मा नाम सभा, सास्मिन्नस्तीति सौधर्मः कल्पः । तदस्मिन्नस्तोति अण । तत्कषपसाहचर्यादिन्द्रोऽपि सौधर्मः। -सुधर्मा नामको सभा है वह जहाँ है उस कम्पका नाम सौधर्म है। यहाँ तदस्मिन्नस्ति' इससे अण, प्रत्यय हुआ है। और इस कल्पके सम्बन्धसे वहाँका इन्द्र भी सौधर्म कहलाता है। १४००० और १६००० आसन हैं। और त्रयस्त्रिशद देवों के ३३ आसन नेऋतदिशामें हो हैं । ५१७१ सेना नायकोंके सात आसन पश्चिम दिशामें, सामानिक देवों के वायु और ईशान दिशामें हैं। इनमें चौरासी हजार सामानिकके आसनों में ४२००० तो वायु दिशामें, ४२००० ईशान दिशामें जानने । अंगरक्षक देवोंके भद्रासन चारों दिशाओं में हैं तहाँ सौधर्म के पूर्वादि एक-एक दिशामें ८४००० आसन जानने ।५१८। इस मण्डपके आगे एक योजन चौड़ा, छत्तीस योजन ऊँचा, पीठसे युक्त वज्रमय एक-एक कोश विस्तार वाली १२ धाराओंसे युक्त एक मानस्तम्भ है 1५१६। तिस मानस्तम्भमें चौथाई कोश चौड़े, एक कोश लम्बे तीर्थकर देवके आभरणों से भरे हुए रत्नोंकी सांकल में लटके हुए पिटारे हैं। मानस्तम्भ छत्तीस योजन ऊंचा है। उसमें नीचेसे पौने छह योजन ऊँचाई तक पिटारे नहीं हैं। बीचमें २४ योजनकी ऊँचाईमें पिटारे है, और फिर ऊपर सवा छह योजन की ऊँचाईमें पिटारे नहीं हैं। सौधर्म द्विकमें के मानस्तम्भ भरत ऐरावतके तीर्थकर सम्बन्धी हैं ।।२०-५२१३ सनत्कुमार युगल सम्बन्धी मानस्तम्भों के पिटारों में पूर्व पश्चिम विदेहके तीर्थकरों के आभूषण स्थापित करके देवों के द्वारा पूजनीय हैं । ५२२॥ * अन्य सम्बन्धित विषय १. कल्पवासी देवोंका एक मेद निर्देश --दे. स्वर्ग/३" २. कल्पवासी देवोंका अवस्थान --दे. स्वर्ग ३. कल्प स्वर्गीका प्रथम कल्प है --दे. स्वर्ग/१२। २. सुधर्मा सभाका अवस्थान व विस्तार ति.प./८/४०७-१०८ सक्कस्स मंदिरादो ईसाण दिसे सुधम्मणामसभा। तिसहस्सकोसउदया चउसयदीहा तददवित्थारा ।४०७। तीए दुवारछेहो कोसा चउसहि तद्दलं रु'दो। सेसाओ वण्णाओ सक्कप्पासादसरिसाओ १४०८) सौधर्म इन्द्र के मन्दिरसे ईशान दिशामें तीन हजार (तीन सौ) कोश ऊँची, चार सौ कोश लम्बी और इससे आधी विस्तार वाली सुधर्मा नामक सभा है।४०७। सुधर्मा सभाके द्वारोंकी ऊंचाई चौसठ कोश और विस्तार इससे आधा है। शेष वर्णन सौधर्म इन्द्रके प्रासादके सदृश है।४०८॥ त्रि.सा/५१५-१६ अमरावदिपुरमज्झे भगिहीसाणदो सुधम्मक्ख । अट्ठाणमण्डवं सयतद्दलदीहदु तदुभयदल उदयं ॥५१॥ पुवुत्तरदक्विणदिस सद्दारा अट्ठवास सोलुदया ।...1५१६ - अमरावती नामका इन्द्रका पुर है उसके मध्य इन्द्रके रहनेके मन्दिरसे ईशान विदिशामें सुधर्मा नाम सभा स्थान है। वह स्थान सौ योजन लम्बा, पचास योजन चौड़ा और पचहत्तर योजन ऊंचा है।५९॥ इस सभा स्थानके पूर्व, उत्तर, व दक्षिण विदिशामें तीन द्वार हैं, उस एक द्वार की ऊँचाई सोलह योजन और चौड़ाई आठ योजन है ।५१६। ३. सुधर्मा सभा का स्वरूप त्रि.सा./५१६-५२२ मझे हरिसिंहासण परदेवीणासणं पुरदो ॥१६॥ तव्वाहिं पुठ्वादिसु सलोयवालाणतुणेरिदिए ।५१७। सेणावईणमवरे समाणियाणं तु पवणईसाणे। तणुरक्खाणं भद्दासणाणि चउदिसगयाणि बहिं ।।१८। तस्सग्गे इगिबासो छत्तीसुदओ सबीढ बज्जमओ। माणत्थंभो गोरुदवित्थारय बारकोडिजुदो ।।१६। चिट्ठति तस्थ गोरुदचरस्थ वित्थारकोसदीहजुदा । तित्थयरा भरणचिदा करडया रयण सिक्कधिया ।५२०॥ तुरियजुदविजुदछज्जोयणाणि उवरि अधोविण करण्डा। सोहम्मदुगे भरहेरावदतिस्थयरपडिबद्धा १५२१॥ साणक्कुमारजुगले पुबवर विदेह तित्थयर घूसा । ठविच्चिदा सुरेहिं कोडी परिणाह वारंसो १५२२१ - सुधर्मा सभाके मध्य में इन्द्रका सिंहासन है। और उस सिंहासनके आगे आठ पटदेवियोंके आठ सिंहासन है ।१६। पटदेवियोंके आसनको पूर्वादि दिशाओं में चारों लोकपालोंके चार आसन है। इन्द्र के आसनसे आग्नेय, यम और नैति दिशाओं में तीन जातिके परिषदोंके क्रमसे १२०००, सौभाग्यदशमी व्रत-भादौ सुदी दशमी दिन ठान, दश सुहागिनों भोजन दान । (व्रत विधान सं./१२६) ( नवल साहकृत ववमान पुराण)। सोमनस-१, विदेह क्षेत्रस्थ एक गजदन्त पर्वत -दे. लोक/५/३: २. विजयाधको उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे, विद्याधर; ३. सौमनस गजदम्तका एक कूट व उसका स्वामी देव-दे, लोक/४४४. सुमेरु पर्वतका तृतीय वन, इसमें चार चैत्यालय है।-दे. लोक३/६.रुचक पर्वतस्थ एक कूट-दे. लोक/४१३६. नव ग्रैवेयकका आठवाँ पटल व इन्द्रक-दे. स्वर्ग/५/३॥ सौम्या वाचना-दे. वाँचना । सौराष्ट्रा-दे, सुराष्ट्र। सौवीर-१.भरत क्षेत्रस्थ उत्तर आर्य खण्डका एक देश।-दे. मनुष्य 123; २. सिन्ध देशका एक भाग । (म. पु./प्र. २० पं. पन्नालाल )। सौवीरभुक्ति व्रत- प्रारम्भ करनेके दिनसे पहिले दिन एक लठाना ( केवल एक बार परोसे हुए भोजनको सन्तोष पूर्वक खाना ), अगले दिन एक उपवास करे। पश्चात एक ग्रास वृद्धि क्रमसे एकसे लेकर १० ग्रास पर्यन्त दस दिन तक भात व इमलीका भोजन करे। पुनः उससे अगले दिनसे एक हानि क्रमसे दसवें दिन १ ग्रास ग्रहण करे । अन्तिम दोपहर पश्चात उपरोक्तवत् एकलठाना करे। चारित्रसारमें इसीको आचाम्लवर्धनके नामसे कहा है । स्कंदगुप्त-मगधदेशकी राज्य वंशावलीके अनुसार यह गुप्त वंशका चौथा राजा था। इसके समयमें हूणवंशी सरदार काफी जोर पकड़ चुके थे। उन्होने अक्रमण भी किया था, जिसे इनने पोछे फेर दिया था। समय-ई. ४१३-४३५-दे. इतिहास/३/४ । स्कं ध-Molecule (ज.प./प्र. १०६) स्कंध-परमाणुओं में स्वाभाविक रूपसे उनके स्निग्ध व रूक्ष गुणोंसें हानि वृद्धि होती रहती है। विशेष अनुपातवाले गुणों को प्राप्त होनेपर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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