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सुख
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ध. १३/५,४,२४/५१/४ किलक्खणमेत्यसुहं । सयलबाहाविरहलक्खणं । - सर्व प्रकारको बाधाओंका दूर होना, यही प्रकृतने (ईयपथ आसव के प्रकरण में ) उसका ( सुखका ) लक्षण है ।
१२/५२६३/३/४
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गमो हि गाम इष्ट अर्थ के समागम और अनिष्ट अर्थ के वियोगका नाम सुख है । उ.सा./८/४६४६ खाकःखभावे च पुरुषः सुखितोऽस्मीति भाषते ।४८ । पुण्यकर्म विपाकाच्च सुखनिष्टेन्द्रियार्थ..४६ - शीत ऋतु अग्निका स्पर्श और ग्रीष्म ऋतु हवाका स्पर्श सुखकर होता है । २. प्रथम किसी प्रकारका दुःख अथवा क्लेश हो रहा हो फिर उस दुःखका थोड़े समय के लिए अभाव हो जाये तो जीव मानता है मैं सुखो हो गया ।४८। ३ पुण्यकर्म विपाकसे इष्ट विषयको प्राप्ति होनेसे जो सुखका संकल्प होता है, वह सुखका तीसरा अर्थ है | ४ | दे. वेदनीय / वेदनाका उपशान्त होना, अथवा उत्पन्न न होना, अथमा दुःखान्तिके द्रव्योंकी उपलब्धि होना सुख है।
२. लौकिक सुख वास्तव में दुःख है
भ.आ./मू./१२४८-१२४१ भोगोभोग
भोगणा
सम्मि । एदेसु भोगणासे जातं दुक्खं पडिविसि । १२४८ ॥ देहे छुहादिमहिदे चलेय सत्तस्स होज्ज कह सोक्खं । दुक्खस्स य पडियारो रहस्सणं चैव सोक्खं खु । १२४६ | =भोगसाधनात्मक इन
का वियोग होने से जो दुःख उत्पन्न होता है तथा भोगोपभोग से जो सुख मिलता है, इन दोनोंमें दुःख ही अधिक समझना । १२४८ ॥ यह देह भूख प्यास, शीत, उष्ण और रोगोंसे पीड़ित होता है, तथा अनित्य भी ऐसे देह में आसक्त होनेसे कितना सुख प्राप्त होगा । अन्य सुख की प्राप्ति होगी। दुःख निवारण होना अथवा दुःखकी कमी होना ही सुख है, ऐसा संसार में माना जाता है | १२४६ | प्र. सा./मू./६४, ७६ - जैसि विसयेसु रदी तेसि दुक्खं बियाण सम्भावं । जइतं ण हि सम्भावं वावारो णत्थि विसयत्थं ॥६४॥ सपरं बाधासहिय विच्छिणं अंधकारणं विसमं । जं इंदियेंहि लद्ध तं सोक्वं दुक्खमेव तहा ॥७६॥ [ जिन्हें विषयोंमें रति है उन्हें दुख स्वाभाविक जानो, क्योंकि यदि वह दुख स्वभाव न हो तो विषयार्थ में व्यापार न हो | ६४ | जो इन्द्रियों से प्राप्त होता है वह सुख परसम्बन्धयुक्त, बाधासहित विच्छिन्न, बन्धका कारण और विषम है, इस प्रकार वह दुःख ही है (यो, सा, अ./१/३४) (पं. ध./ख./२४५)। स्व. स्तो. / ३ शतह्रदोन्मेषचलं हि सौख्यं -: तृष्णामयाप्यायन-मात्रहेतुः । तुष्णाभिवृद्धिरच उपरयन' सापस्तदायादः ॥ आपने पीडित जगत्को उसके दुःखका निदान बताया है किइन्द्रिय विषय बिजली की चमक के समान चंचल है. तृष्णा रूपी रोगकी वृद्धिका एकमात्र हेतु है, तृष्णाकी अभिवृद्धि निरन्तर ताप उत्पन्न करती है, और वह ताप जगत्को अनेक दुःख परम्परासे पीड़ित करता है । ( स्व. स्तो. / २०,३१,८२ ) ।
.../६ बासनामात्रमेतत्सुखं दुःखं च देहिनाम्। तथा शुद्धजयन्ये भोगा रोगा इवापदि । ६। संसारी जीवोंका इन्द्रिय सुख वासना मात्र से जनित होनेके कारण दुःखरूप ही है, क्योंकि आपत्ति काल में रोग जिस प्रकार चित्तमें उद्वेग उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार भोग भी उद्वेग करनेवाले हैं | ६ |
प्र. साम / १९.१३ शिखिनोपपुरुषो दादुमय स्वर्ग११ दुःखमसमानानां उपाधिसम्पा मुपगतेषु रम्येषु विषयेषु रतिरुपजायते। ततो व्याधि स्थानीयवा दिन्द्रियाणां व्याधिसात्म्यसमत्वाद्विषयाणां च छद्मस्थानां न पारमार्थिक सौख्यम् ॥ ६३॥ जैसे अग्निसे गर्म किया हुआ वो किसी मनुष्य पर गिर जाये तो यह उसकी जनसे दुखी होता है, उसी प्रकार स्त्रर्ग के सुखरूप बन्धको प्राप्त होता है। अर्थात् स्वर्ग ऐन्द्रियक
१. सामान्य व लौकिक सुख
सुख-दुःख ही है । ११। दुःखके वेगको सहन न कर सकनेके कारण उन्हें (संसारी जीवों को ) रम्य विषयोंमें रति उत्पन्न होती है । इसलिए इन्द्रियाधिके समान होनेसे और विषय व्याधि प्रतिकार के समान होनेसे छद्मस्थोंके पारमार्थिक सुख नहीं है | ६३ |
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मैन
यो सा./अ/३/३६ सांसारिकं सुखं सर्वं दुखतो न विशिष्यते । यो यूद्धः स चारित्री न भव्यते ॥३६॥ सांसारिक सुख-दुःख ही हैं, सांसारिक सुख व दुःखमें कोई विशेषता नहीं है किन्तु मू प्राणी इसमें भेद मानता है वह चारित्र स्वरूप नहीं कहा जाता | ३६ | ( पं. वि. /४/७३) ।
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का.अ././६९ देवापि सर्व मगहर बिसहि कीरदे दिहि | विसय वसं जं सुक्खं दुक्खस्स वि कारणं तं पि । ६१| देवोंका सुख मनोहर विषयोंसे उत्पन्न होता है, तो जो सुख विषयोंके अधीन है वह दुःखका भी कारण है । ६१ ।
ये परिग्रह /३/३ परिग्रह दुःख व दुःखका कारण है।
पं. ध. / २३८ ऐहिकं यत्सुखं नाम सर्व वैषयिकं स्मृतम् । न तत्सुखं लाभासं किंतु दुःखमसंशय ॥२३॥ जो लौकिक सुख है, अह सब इन्द्रिय विषयक माना जाता है, इसलिए वह सब केवल सुखाभास ही नहीं है, किन्तु निस्सन्देह दुःखरूप भी है । २३८ |
निर्देश
४. लौकिक सुखको दुःख कहनेका कारण
स. सि. / ७ /१०/३४९ / ३ ननु च तत्सर्वं न दुःखमेव; विषयरतिसुखसद्भावाद न रखः वेदनाप्रतीकारायनमत । - प्रश्न - ये हिंसादि सबके सब केवल दुःखरूप ही हैं, यह बात नहीं है, क्योंकि विषयोंके सेवन में सुख उपलब्ध होता है ! उत्तरविषयोंके सेवन से जो सुखाभास होता है वह सुख नहीं है, किन्तु दादको खुजलाने समान केवल बेदनाका प्रतिकारमात्र है। ५. लौकिक सुख शत्रु हैं
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भ.आ./मू./१२०१ सर्व उत्पादिता पुरिसा पुरिसस्स होदि यदि सत् अदिस कदमाना भीगा सतू किए ती ।१२७१। = दुःख उत्पन्न करनेसे यदि पुरुष पुरुषके शत्रु के समान होते हैं, तो अतिशय दुःख देनेवाले इन्द्रिय सुख क्यों न शत्रु माने जायेंगे ! ( अर्थात् लौकिक सुख तो शत्रु हैं हो ) ।
६. विषयोंमें सुख-दुःखकी कल्पना रुचिके अधीन है तिक्ता च शीतलं तोयं निम्बक्षीरं ज्वरार्तस्य
संगह ममहाराज उजु -
क. पा./१/१,१३-१४ / १२२०/गा. १२०/२७२ पुत्रादिर्मुद्रिका (डोका) फतम् । नीरोगस्य गुडादयः । १२० । क. पा./१/१.१३-१४/२२२ / सूत्र / २०७४ सुदस्स च सव्वं दव्वं पेज्जं । जं किंचि दव्वं नाम तं सव्वं पेज्जं चैत्र; कस्स वि जीवस्स कम्हि वि काले सव्वदव्वाणं पेज्जभावेण बट्टामाणामुन भादो से जहा विसं पिवजीवा कोडिया मरणमारमिचाणं हिंद-सह- पियकारणताो एवं पत्थरहा महासंभवेण पेहमानो मतव्य... विवेकमाणा हरिसुप्याययेत् परमाणुम्मि ) पि पेजभावसंभादो १. पित्त उवर मालेको कुटी हित म है, प्यासेको ठण्डा पानी सुख रूप है, किसीको पुत्रादि प्रिय द्रव्य
पीड़ित रोगीको मोम हिठ और प्रिय इव्य है. दूध सुख और प्रिय द्रव्य है तथा नीरोग मनुष्यको गृह आदिक हित, सुख और प्रिय द्रव्य हैं । १२० । २. संग्रह व्यवहार और ऋजुसूत्र की अपेक्षा समस्त द्रव्य पेज्जरूप हैं । जगमें जो कुछ भी पदार्थ हैं वे सत्र पेज्ज ही हैं, क्योंकि किसी न किसी जीवके किसी न किसी काल में सभी द्रव्य पेज्जरूप पाये जाते हैं । उसका स्पष्टी - करण इस प्रकार है - विष भी पेज है, क्योंकि विषमें उत्पन्न हुए
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