Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 443
________________ सुप्रभा सुप्रभा लोक / ५ /११ । सुप्रयोग - भरत क्षेत्रस्थ आर्यखण्डकी एक नदी -- दे. मनुष्य / ४ ॥ सुप्रीति क्रिया दे संस्कार/२ सुभग- १. सुभग व दुर्मंग नामकर्मके लक्षण नन्दीश्वर द्वीपको उत्तर दिशा में स्थित एक वापी स. सि / ८ /११/३६१/११ यदुदयादन्यप्रीतिप्रभवस्तत्सुभगनाम । यदुदयावागित्रीतिकरस्त दुर्भगनाम जिसके उदयसे अन्य जन प्रीतिकर अवस्था होती है वह सुभग नामकर्म है। जिसके उदय रूपादि गुणोंसे युक्त होकर भी अनीतिक अवस्था होती है यह दुग नामकर्म है (रा. ना. /-/ १२ / २१-२४/५००/३९) (गो. क. at, 5/23/20/8/8k)! - ध. ६/१,६-१,२८/६५/१ स्थी-पुरिमाणं सोहग्गणिव्वत्तयं सुभगं णाम । खिचेन भाविव्यथयं दृवं गामश्री और पुरुषोंके सौभाग्यको उत्पन्न करने वाला सुभग' नामकर्म है। उन स्त्री पुरुषो के ही दुर्भग भाव अर्थात् दौर्भाग्यको उत्पन्न करने वाला दुर्भग नामकर्म है । (ध. १३/५, ५, १०९ / ३६५ /१४) । ૪૬. २. एकेन्द्रियोंमें दुर्मंग भाव कैसे जाना जाये घ. ६/११-१२०/६/२ ९६ दिवादिसुम चेट्ठे कथं सुब-दुभावा णज्जंते । ण, तत्थ तं समव्वत्ताणमागमेण अत्थित्तसिद्धीदो । - प्रश्न - अव्यक्त चेष्टा वाले एकेन्द्रियादि जीवों में सुभग और दुर्भग भाव कैसे जाने जाते हैं। उत्तर-नहीं, क्योंकि एकेन्द्रिय आदिमें अव्यक्त रूपसे विद्यमान उन भावोंका अस्तित्व आगमसे सिद्ध है । सुभट वर्मा - भोजवंशी राजा था। भोजवंशकी वंशावलीके अनुसार यह राजा वर्मा (विजयवर्मा) के पुत्र और अर्जु पिता था। मालवा देशका राजा था और उज्जैनी व धारा राजधानी भी समय वि १२७-१२६४ ई. १२००-१२०० विशेष- ३, इतिहास /३/११ • सुभद्र - १. यक्ष जातिके व्यन्तर देवोंका एक भेद - दे. यक्ष, २. नव बेकका पाँच पटक दे. स्वर्ग २/३३. अरुणीवर द्वीपका रक्षक व्यन्तर देव - दे. व्यन्तर / ४ /७ 1४. नन्दीश्वर द्वीपका रक्षक व्यन्तर देव - दे. व्यन्तर / ४ /७ । ५. रुचक पर्बतस्थ एक कूट- दे. लोक ५/१३१६. श्रुतावतारकी पट्टावली के अनुसार आप भगवान् वीर के पश्चात मूल गुरु परम्परामें दश अंगधारी अथवा दूसरी मान्यतानुसार केवल आचारांग धारी थे। समय-वी. नि. ४६८-४७४ ई. पू. ५६६३ - इतिहास / ४/४ । सुभद्रा -पा. पु. / १६ / श्लोक - कृष्णकी बहन थी । (१६/३६) अर्जुनने हरण कर ( १६ / ३६ ) इसके साथ विवाह किया ( १६ / ५६ ) इससे अभिमन्युकी उत्पत्ति हुई (१६/१०१) अन्तम दीक्षा ले (२३/१५) घोर तप कर सोलहवें स्वर्ग गयी (२५ / १४१ ) । सुभाषितरत्न संदोह - १. आ. योगेन्दुदेव ( ई. श. ६) कृत सुभाषिततन्त्र' नामक आध्यात्मिक ग्रन्थ (दे, योगेन्दु) । २. आ. अमितगति द्वारा वि. १०५० (ई. १६३) में लिखा गया ६२२ संस्कृत श्लोक प्रमाण आध्यात्मिक ग्रन्थ (जै./१/३८०) । सुभाषितरत्नावली- आ.भन्द्र (ई. १६१६-१६६६) द्वारा रचित एक आध्यात्मिक ग्रन्थ दे, शुभचन्द्र । Jain Education International सुभाषितार्णव आ. शुभचन्द्र (ई. १५१६-१२१६) द्वारा रचित एक आध्यात्मिक ग्रन्थ | सुभीम-राक्षसोंका इन्द्र । इसने सगर चक्रवर्ती के प्रतिद्वन्द्वी पुत्र सुमेरु वाहनको अजितनाथ भगवान के समवसरण में अभयदानार्थ संकाका राज्य दिया था। ( प. पु. / ५ / १६०) । सुभौम-पूर्व भव नं. २ में भरत क्षेत्रमें भूपाल नामक राजा था। पूर्व में महाशुक्र स्वर्ग देव हुआ। वर्तमान भवनें अष्टम चक्रवर्ती हुआ (म. पु. ६०/६१-५३) विशेष परिचय दे शलाका पुरुष / २ सुमति - पूर्व भवनं २ में घातकी मण्डमें पुष्कलावती देशका राजा था। पूर्व में वैजयन्त विमान में अहमिन्द्र हुआ। वर्तमान भवनें पंचम तीर्थंकर थे (म. पु. / ५१/२-११) विशेष परिचय दे तीर्थंकर / ५ । २. आप मल्लवादी नं. १ के शिष्य थे। समय- वि. ४३६ (ई. १८३ ) . (सि. वि. / प्र.३४०. महेन्द्र ) । सुमतिकीर्तिमाकारी गुरुपरम्परा • नन्द विद्यानन्दमचन्द्र वरचन्दनभूषण सुमतिकीर्ति कृतिये पंचसंग्रह की संस्कृत वृति ज्ञानभूषण के साथ मिलकर 'कर्म प्रकृति' की टीका । समय-- पंचसंग्रह वृत्ति का रचनाकाल वि. १६२० अतः वि. १६९१-९६३० (जै./१/४२४, ४५७): (ती./३/२७८.तिहास /०/४) सुमनस-नव ग्रैवेयकका पाँचवाँ पटल व इन्द्रक - दे. स्वर्ग /५/३/ सुमागधी- पूर्वी मध्य आर्य खण्डकी एक नदी -- दे. मनुष्य / ४ | सुमाली - रामका दशदा था। इन्द्र नामक विद्याधरसे हारकर पाताल लंका में रहने लगा था ( प. पु. / ७ /१३३) । सुमित्र - म.पु. / ६१ / श्लोक - राजगृह नगरका राजा बहुत बड़ा मल्ल था (५७-५८) राजसिंह नामक मल्लसे हारने पर (५६-६० ) निर्वेद पूर्वक दीक्षा ग्रहण कर ली (६२)। बड़ा राजा बनने का निदान कर स्वर्ग में देव हुआ (६१-६२) यह पुरुषसिंह नारायणका पूर्वका दूसरा भय है। वे पुरुषसिंह सुमुख. पृ./१४/ श्लोक बरसदेशकी कौशाम्बी नगरीका राजा था (६) एक समय वनमाला नामक स्त्रीपर मोहित होकर (३२-३३) दूती भेजकर उसे अपने घर बुलाकर भोग किया (६४१०७) आहारदानसे भोगभूमिकी आयुका बन्ध किया । वज्रपात गिरने से मरकर विद्याधर हुआ ( १५ / १२-१८ ) यह आर्य विद्याधरका पूर्वका भव है । - दे. आर्य I सुमुखी - विजयार्थी दक्षिणी नगर विद्यार सुमेधा - सुमेरु पर्वतके नन्दन वनमें स्थित निषधकूटकी दिक्कुमारी देवी-दे. सो०/२/२ सुमेरु- - मध्यलोकका सर्व प्रधान पर्वत है । विदेह क्षेत्रके बहुमध्य भागमें स्थित स्वर्णवर्ण व कूटाकार पर्वत है यह ज एक घातकी लण्डने दो, पुष्करार्थ द्वीपमें दो पर्वत हैं. इस प्रकार कुल ५ सुमेरु हैं । इसमें से प्रत्येक पर १६ - १६ चैत्यालय हैं। इस प्रकार पाँचों मेरुके कुल ८० चैत । विशेष /३/६ १. सुमेरुका व्युत्पत्ति अर्थ रा.मा./३/१०/११/१८१/६ सो विनासीति मेरुः इति। तीनों छोकों का मानदण्ड है, इसलिए इसे मेरु कहते हैं। २. इसके अनेक अपर नाम ह. पृ./५/३७३-३७६ वज्रमूलः सबै डूर्य चूलिको मणिभिश्चितः । विचित्राश्चर्य संकीर्णः स्वर्णमध्यः सुरालयः ॥ ३७३ ॥ मेरुश्चैव सुमेरुश्च महामेरुः सुदर्शनः । मन्दरः शैलराजश्च वसन्तः प्रियदर्शनः ॥ ३७४ ॥ रत्नोच्यो दिशामादिलो कनाभिर्मनोरमः । लोकमध्यो दिशामन्त्यो दिशामुत्तर एव च ॥ ३७५॥ सूर्याचरणविख्यातिः सूर्यावर्तः स्वयंप्रभः । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोषा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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