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सुगंध
सुखस्य परमात्मनाम् ।२४६। प्रश्न-सुख तो इन्द्रियोंके द्वारा उनके विषय भोगनेवालेके होता है, इन्द्रियोंसे रहित मुक्त जीवोंके बह सुख कैसे ? उत्तर-हे वत्स, तू जो मोहसे ऐसा मानता है वह तेरी मान्यता ठीक अथवा कल्याणकारी नहीं है क्योंकि तूने अभी तक (वास्तवमें) सुख-दुःखके स्वरूपको ही नहीं समझा है । (२४०-२४१) जो घातिया कर्मोंके क्षयसे प्रादुर्भूत हुआ है, स्वात्माघीन है, मिराबाध है, अतीन्द्रिय है, और अनश्वर है, उसको मोक्ष सुख कहते हैं।२४२। इन्द्रिय विषयों से जो सुख माना जाता है वह मोहका ही माहात्म्य है। पटोल ( कटु वस्तु) भी जिसे मधुर माल्लम होती है तो वह उसके श्लेष्मा (कफ) का माहात्म्य है। ऐसा समझना चाहिए ।२४३। जो सुख यहाँ चक्रों को प्राप्त है और जो सुख देवों को प्राप्त है वह परमात्माओंके सुखकी एक कलाके (बहुत छोटे अंशके ) बराबर भी
नहीं है ।२४४ त्रि. सा./५१६ एयं सत्थं सव्वं वा सम्ममत्थं जाणता। तिव्वं तुस्संति णरा किण्ण समत्थस्थतच्चाह ।५५६॥ एक शास्त्र को सम्यक् प्रकार जानते हुए इस लोकमें मनुष्य तीन सन्तोष को प्राप्त करते हैं, तो समस्त तत्व स्वरूपके ज्ञायक सिद्ध भगवन्त के से सन्तोष नहीं पावेंगे ? अर्थात पाते ही हैं १५५६। (बो. पा./टी./१२/८२ पर उद्धृत) पं.ध./उ./श्लोक नं. ननु देहेन्द्रियाभावः प्रसिद्धपरमात्मनि । तदभावे सुखं ज्ञान सिद्धिमुन्नीयते कथम् ।३४६। ज्ञानानन्दौ चितो धर्मो नित्यौ द्रव्योपजीविनौ। देहेन्द्रियाद्यभावेऽपि नाभावस्तइद्वयोरिति ।।४।। ततः सिद्ध शरीरस्य पञ्चाक्षाणां तदर्थ सात् । अस्त्यकिंचित्करत्वं तच्चित्तो ज्ञानं सुखं प्रति ।३५६-प्रश्न-यदि परमात्मामें देह और इन्द्रियोंका अभाव प्रसिद्ध है तो फिर परमात्माके शरीर तथा इन्द्रियों के अभाव में सुख और ज्ञान कैसे कहे जा सकते हैं।३४६। उत्तर-आत्माके ज्ञान और सुख नित्य तथा द्रब्यके अनुजीवी गुण हैं, इसलिए परमात्माके देह और इन्द्रिय के अभावमें भी दोनों (ज्ञान
और सुख ) का अभाव नहीं कहा जा सकता है ।३४६। इसलिए सिद्ध होता है कि आत्माके इन्द्रियजन्य ज्ञान और सबके प्रति शरीरको पाँचों ही इन्द्रियोंको तथा इन्द्रियविषयौंको अकिंचित्करत्व
विपर्ययः ११८७। -इष्ट वस्तुकी हानिसे शोक और फिर उससे दुःख होता है तथा उसके लाभसे राग और फिर उससे सुख होता है। इसलिए बुद्धिमान् मनुष्यको इष्टकी हानिमें शोकसे रहित होकर सदा सुखी रहना चाहिए ।१८६। जो प्राणी इस लोकमें मुखी है, वह परलोकमें सुखको प्राप्त होता है. जो इस लोकमें दुःखी है वह परलोकमें दुःखको प्राप्त होता है। कारण कि समस्त इन्द्रिय विषयों से विरक्त हो जानेका नाम सुख और उनमें आसक्त होनेका नाम ही दुःख है ।१८७१ दे. सुख/२/३ वीतराग भावमें स्थिति पानेसे साम्यरस रूप अतीन्द्रिय
सुखका वेदन होता है। सुखकारण व्रत-जिस-किसी मासमें प्रारम्भ करके एक उपवास पारणा क्रमसे ४३ महीने तक ६८ उपवास करे। नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप करे। (व्रत विधान संग्रह/पृ. ८४); (किशन सिंह क्रियाकोष) सुखदुःखोपसंयत-दे. समाचार । सुखबोध-पं.योगदेव भट्टारक (वि. श.१६-१७) कृत तत्त्वार्थ सूत्र
वृत्ति जो सर्वार्थ सिद्धि का संक्षिप्तीकरण मात्र है। (जै./२/३६८)। सुखमा काल-दे. काल/४ । सुख शक्ति-स.सा./आ./परि/शक्ति५ अनाकुलत्वलक्षणा सुख
शक्तिः । - आकुलतासे रहितपना जिसका लक्षण है, ऐसी मुख शक्ति है। सखसंपत्ति व्रत-इस व्रतकी विधि तीन प्रकारसे कही है-उत्तम, मध्यम व जघन्य । उत्तमविधि-१५ महीने तक १पडिमा, २ दोज, ३ तीज, ४ चौथ, ५ पंचमी, छठ, ७ सप्तमी, ८ अष्टमी, नवमी, १० दशमी, ११ एकादशी, १२ द्वादशी, १३ त्रयोदशी, १४ चतुर्दशी, १५ पूर्णिमा, १५ अमावस्या; इस प्रकार कुल १३५ दिनके लगातार १३५ उपवास उन तिथियों में पूरे करे। (व्रत. वि.सं.में १३५ के बजाय १२० उपवास बताये हैं, क्योंकि वहाँ पन्द्रहका विकल्प एक बार लिया है। नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप करे। (वसु. श्रा,/३६५-३७२ ); (बत विधान सं./पृ. ६६) (किशनसिंह क्रियाकोष) मध्यमविधि-उपरोक्त ही १२० उपवास तिथियोंसे निरपेक्ष पाँच वर्ष में केवल प्रतिमासकी पूर्णिमा और अमावस्याको पूरे करे। तथा नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप करे। (बत विधान सं./६७); (किशनसिह क्रियाकोष) जघन्य विधि-जिस किसी भी मासकी कृ.१ से शु.१तक १६ उपवास लगातार करे। नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य। (व्रतविधान सं./पृ. ६७); (किशनसिंह क्रियाकोष)। सुखानुबंध-स, सि./७/३७/३७२/६ अनुभूतप्रीतिविशेषस्मृतिसमन्वाहारः सुखानुबन्धः । = अनुभवमें आये हुए विविध सुखोंका पुन:पुनः स्मरण करना सुखानुबन्ध है । (रा. वा./७/३७/६/५५६/७) रा. वा./हि./७/३७/५८१ पूर्व सुख भोगे थे तिनि सुप्रीति विशेषके निमित्त ते बार-बार याद करना तथा वर्तमान में सुख ही चाहना
सो सुरवानुबन्ध है। सुखावह अपर विदेहस्थ एक वक्षार, उसका एक कूट तथा उस
कूटका स्वामी देव-दे. लोक./५/३ । सुखासन-दे. आसन। सुखोदय क्रिया-दे. संस्कार/२। सुगंध-१. दक्षिण अरुणाभास द्वीपका रक्षक देव-दे, व्यन्तर/४/७;
२.अरुण समुद्रका रक्षक व्यन्तर देव-दे. व्यन्तर/४/७ ।
१३. अलौकिक सुखकी श्रेष्ठता भ. आ././१२६६-१२७०/१२२५ अप्पायत्ता अझपरदी भांगरमण परायतं। भोगरदीए चइदो होदि ण अज्झप्परमणेण ।१२६६। भोगरदीए णासो णियदो विग्धा य होति अदिबहगा। अज्झप्परदीए सुभाविदाए णासो ण विग्धो वा ।१२७०। -स्वात्मानुभव में रति करनेके लिए अन्य द्रव्यकी अपेक्षा नहीं रहती है, भोग रतिमें अन्य पदार्थों का आश्रय लेना पड़ता है। अतः इन दोनों रतियों में साम्य नहीं है। भोगरतिसे आत्मा च्युत होनेपर भी अध्यात्म रतिसे भ्रष्ट नहीं होता, अतः इस हेतुसे भी अध्यात्म रति भोग रतिसे श्रेष्ठ है ११२६१। भोगरतिका सेवन करनेसे नियमसे आत्माका नाश होता है, तथा इस रतिमें अनेक विघ्न भी आते हैं। परन्तु अध्यात्म रतिका उत्कृष्ट अभ्यास करनेपर आत्मा नाश भी नहीं होता और विघ्न भी नहीं आते। अथवा भोगरति नश्वर तथा विघ्नों से युक्त है, पर अध्यात्म रति अविनश्वर और निर्विघ्न है।
१४. अलौकिक सुख प्राप्तिका उपाय स.श./मू./४१ आरम विभ्रमजं दुःख मात्मज्ञानात्प्रशाम्यति । शरीरादिमें
आत्मबुद्धिसे उत्पन्न दुःख आत्मस्वरूपके अनुभव करनेसे शान्त हो जाता है। आ. अनु./१८६-१८७ हानेः शोकस्ततो दुःख लाभाद्रागस्ततः सुखम् । तेन हानावशोकः सन् सुरखो स्यात्सर्वदा सुधीः १८६। सुखी सुख- मिहान्यत्र दुःखी दुःखं समश्नुते । सुखं सकलसंन्यासो दुःखं तस्य
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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