Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 434
________________ सिंहपुर ही भट्टारक श्रुतसागर ने यशस्तिलक चन्द्रिका नामक टीका लिखी थी समय व १००-१५०५ (ई. १४९१-१३१०) (दे. इतिहास ७ / ४); ( यशस्तिलक चम्पू टीका की अन्तिम प्रशस्ति का अन्त) । - दे. इतिहास / ७ / ४ । ६. पंच नमस्कार मन्त्र माहात्म्य के कर्ता । समय - वि. श. १६ (ई. श. १६) । सोच/२ 1 सिंहपुर - विजयार्थी उत्तर अंगीका एक नगर दे. विद्याधर । सिंहपुरी - अपर विदेहस्थ सुपद्म क्षेत्रकी प्रधान नगरी सिंहरथ-बदेशी मुसीमा नगरीका राजा था। संयमी होकर १९ अंगोंका अध्ययन कर, सोलह भावनाओंका चिन्तन किया । तथा तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया । समाधिमरण कर सर्वार्थसिद्धिमें ब्रहमण्ड हुए (म. पु. ६०/२-१०) यह कुन्ध नाथ भगवान् का पूर्वका दूसरा भय है दे कुम्थुनाथ २सौदास का पुत्र था। सौदासके नरमांसाहारी होनेपर इसको राज्य दिया गया। ( प. पु. / २२ / १४४ - १४५ ) सिंहली महाबली के अनुसार राजा मुंज व भतृहरिके पिता थे। मालवा ( मगध ) के राजा थे। मुंजके अनुसार इनका समय ई. १०० - १४० आता है - दे. इतिहास / ३ / १ । का राजा था। सर्वम सिंहवर्मा इसके राज्यले २२३ वर्ष में 'लोक विभाग' नामका एक प्राकृत ग्रन्थ बनाया था। समय२०. ४३८) । (ति. १/प्र./१२ डॉ. हीरालाल ) । सिंहसूरि- ० परिशिष्ट सिंहसेन - १ - पुन्नाट संघकी गुर्वावली के अनुसार आप सुधर्म सेन के शिष्य तथा सुनन्दिषेणके गुरु थे। दे. इतिहास /५/८ । २(म. पु. / ५६ / श्लो, भरत क्षेत्र में सिंहपुरका राजा था (१४६) इनके मन्त्रीने वैरसे सर्प बनकर इसको खा लिया ( ११३ ) यह मरकर सक्कीममें हाथी हुआ (१६०) यह संजयन्त मुनिका पूर्वका सातवी भव है। 'संजय' सिकन्दर यूनानके बादशाह फिलिप्सका पुत्र था। मकदूनिया इसकी राजधानी थी। अरस्तूका शिष्य था। बड़ा पराक्रमी था । थोड़ी-सी आयु अफगानिस्तान, बलोचिस्तान, पंजाब आदि देशों को जीत लिया था। ई. पू. ३५६ में इसका जन्म हुआ । २० वर्ष की अवस्था में गद्दी पर बैठा, बैठते ही देशोंपर विजय प्राप्त करनी प्रारम्भ कर दी। यूनान लौटते समय मार्ग में ही ई. पू. ३२३ में इसकी मृत्यु हो गयी। समय - ई. पू. २५६-३२३/ सिक्तानम सिक्तिनो असुरकुमार ( भवनवासीदेव ) - दे. असुर । भरत आर्य खण्डकी एक नदी - दे. मनुष्य / ४ | सिक्थ - दे. ससिक्थ | सितपट चौरासी पं. हेमराज (वि. श. १७ - १८) कृत भाषा छन्द बद्ध रचना है। जो श्वेताम्बराचार्य यशोविजयके दिग्पट चौरासी बोलके उत्तर में की गयी थी। इसमें श्वेताम्बर मतपर चौरासी आक्षेप किये गये हैं। (दे. हेमराज पाण्डे सिद्ध - दे. मोक्ष / ३ | - सिद्धय परिशिष्ट । सिद्ध केवली - दे. केवली / १/३ । सिद्धचक्र यन्त्र दे सिद्धचक्र विधान सिद्धचक्राष्टक पूजा Jain Education International ४२७ पाठ पूजापाठ सिद्धत्व-१ । घ. १९४२ सरस्यः पुंसोऽथान्तरं पृथक्। ज्ञानदर्शनसम्यगुणात्मकद ११४२३- आत्माकी सम्पूर्ण कर्मोंसे रहित ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व वीर्य आदि आठ गुण स्वरूप शुद्ध अवस्थाका होना ही सिद्धत्व है। २-जीवका पारिणामिक भाव हैदे पारिणामिक स्वभाव व्यंजन पर्याय है. पर्याय /२/१ सिद्ध पक्षाभास दे. 'पक्ष'। ---- सिद्धविनो | भगवान् महावीरकी शासक क्षण तीर्थकर /५/३ । सिद्धसाधन हेत्वाभास अि सिद्धसेन इस नाम के तीन आचार्य प्राप्त होते है-सिद्धसेन दिवाकर, सिद्धसेन गणी और सिद्धसेन । १. सिद्धसेन दिवाकर दिगम्बर तथा स्वेताम्बर दोनों आम्नायों में प्रसिद्ध हैं। कृषिसम्मति सूत्र, कल्याण मन्दिर स्तोत्र और कुछ द्वात्रिंशिकायें । समय - लगभग वि ६२५ । (दे, परिशिष्ट) । २. सिद्धसेन गणी यद्यपि श्वेताम्बर है परन्तु किसी कारण इन्हें क्योंकि दिगम्बर संघ का संसर्ग प्राप्त हो गया था इसलिए कुछ दिगम्बर संस्कार भी इनमें पाए जाते हैं कृतित्वृद्धि आचारसंग सूत्र वृत्ति, न्यायावतार, द्वात्रिंशिकायें। समय- बि. शन्दे, परिशिष्ट. पुनार संघ की गुर्वावली के अनुसार अभयसेन के शिष्य और अभयसेन द्वि. के गुरु । (वे. इतिहास / ७ / ८) । सिद्धहेम शब्दानुशासन शब्दकोश सिद्धान्त सिद्धान्त १. सिद्धान्त सामान्य निर्देश दे, प्रवचने/१ आगम, सिद्धान्त और प्रवचन एकार्थक हैं । ध. १ / १.१.१/७६/४ अपौरुषेयत्वतोऽनादिः सिद्धान्तः । अपौरुषेय होनेसे सिद्धान्त अनादि है। २. भेद व लक्षण न्या. सू./मू.टी./९/९/२८-३१ सम्प्राधिकरणाभ्युपगमसंस्थितिः सिद्धान्त २६ सर्वतन्त्रप्रतितन्त्राधिकरणाभ्युपगमसंस्थिस्यर्थान्तरभावात् ॥ २७ ॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश यथा - सर्वतन्त्रविरुद्धस्तऽसि माणादीनीणिगादय इन्द्रियार्थाः पृथिव्यादीनि भूतानि प्रमाणैरर्थस्य ग्रहणमिति । समानतन्त्रसिद्धः परतन्त्रासिद्धः प्रतितन्त्रसिद्धान्तः | २ | यसिद्धावन्यप्रकरणसिद्धिः सोऽधिकरणसिद्धान्तः |३०| यथा देहेन्द्रियव्यतिरिक्तो ज्ञाता । - अपरीक्षिताभ्युपगमात्तद्विशेषपरीक्षणमभ्युपगम सिद्धान्तः । १११ शास्त्र के अर्थकी संस्थिति किये गये अर्थको सिद्धान्त कहते हैं। उक्त सिद्धान्त चार प्रकारका है। सर्वतन्त्र सिद्धान्त, प्रतितन्त्र सिद्धान्त अधिकरण सिद्धान्त अभ्युपगम सिद्धान्त २६-२०११. उनमें से जो अर्थ सम शाखों में अविरुद्धतासे माना गया है उसे सर्वतन्त्र सिद्धान्त वहते हैं । अर्थात् जिस बात को सर्व शास्त्रकार मानते हैं जैसे घाण आदि पाँच इन्द्रिय, गन्ध आदि उनके विषय तथा पृथ्वी आदि पाँच भूत और प्रमाण द्वारा पदार्थोंका ग्रहण करना इत्यादि सब ही शास्त्रकार मानते हैं। १२८| २. जो बात एक शास्त्रमें सिद्ध हो, और दूसरेमें असिद्ध हो उसे 'प्रतितन्त्रसिद्धान्त' कहते हैं । २१ । ३. जिस अर्थ के सिद्ध होनेसे अन्य अर्थ भी नियमसे सिद्ध हो उसे अधिकरणसिद्धान्त कहते हैं । जैसे देह और इन्द्रियों भिन्न कोई जाने वाला है जिसे आत्मा कहते है ३० ४. बिना परीक्षा किये किसी पदार्थको मानकर उस पार्थकी विशेष परीक्षा करनेको अभ्युपगम सिद्धान्त कहते हैं |१| For Private & Personal Use Only 1 www.jainelibrary.org

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