Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 433
________________ साहसगति ४२६ सिंहनदि करे अथवा न भी करे। तहाँ किसी जीवके प्रथमोपशमके कालमें एक समयसे छह आवली पर्यन्त काल शेष रहनेपर सासादन गुणस्थानका होना सम्भव है। परन्तु उपशम सम्यक्त्वका काल क्षीण हो जानेपर निरासादन ही है अर्थात सासादनको मिलकुल प्राप्त नहीं हो सकता। तब मिथ्यादि (मिथ्यात्व, सम्यक्त्वमिथ्यात्व या सम्यकप्रकृति इन तीनोंमेंसे किसी एकका उदय सम्भव है।) दे.सम्यग्दर्शन/IV/२/- [प्रथमोपशमसे गिरकर अपनी-अपनी योग्यताके अनुसार मिथ्यादृष्टि सासादन, सम्यग्मिध्यादृष्टि अथवा वेदकसम्यग्दृष्टिमें से किसी भी गुणस्थानको प्राप्त हो सकता है।] ५. द्वितीयोपशमसे सासादनकी प्राप्ति अप्राप्ति सम्बन्धी दो मत ध.६/१६-८,१४/३३१/४ एदिस्से उसमसम्मत्तद्धाए अन्तरादो असंजमं पि गच्छेज्ज, संजमासंजमं पि गच्छेज्ज, छसु आवलियासु सेसासु आसाणं पि गच्छेज्ज ।...एसो पाहूडचण्णिमुत्ताभियाओ। भूदबलिभयवंतस्सुवएसेण उसमसेडीदो ओदिण्णो ण सासणत्तं पडिवज्जदि । -१. द्वितीयोपशमसम्यक्त्वकालके भीतर असंयमको भी प्राप्त हो सकता है, संयमासंयमको भी प्राप्त हो सकता है और छह आवलियोंके शेष रहनेपर सासादनको भी प्राप्त हो सकता है।... यह कषायप्राभृत चूर्णिसूत्र ( यतिवृषभाचार्य) का अभिप्राय है। (ल. सा./मू./३४८); (गो. जी /जी. प्र./१६/४५/१); (वे. सम्यग्दर्शन/IV/३/३ में गो. जी./जी. प्र./७०४ ) । २. किन्तु भगवान् भूतबलिके उपदेशानुसार उपशमश्रेणीसे उतरता हुआ सासादन गुणस्थानको प्राप्त नहीं करता । (ल. सा./मू./३५१) ध.१,६,७/११/२ उवसमसेडोदो ओदिण्णाणं सासणगमणाभावादो। तं पि कुदो णवदे। एदम्हादो चैव भूदमलीयवयणादो। -उपशम श्रेणीसे उतरनेवाले जीवोंके सासादन गुणस्थानमें गमन करनेका अभाव है। प्रश्न-यह कैसे जाना : उत्तर-भूतबली आचार्य के इसी वचनसे जाना [कि सासादन गुणस्थानका जघन्य अन्त एक जीवकी अपेक्षा पल्योपमके असंख्यातवें भाग है-सुत्र ७, पृ.१]। गो. क./जी. प्र./५४८/७१८/१७ अमी प्रथमद्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टयः स्वभव चरमे स्वसम्यक्त्वकाले जघन्येनै कसमये उत्कृष्टेन षडावलिमात्रेऽवशिष्टेऽनन्तानुबन्ध्यन्यतमोदयेन सासादना भूत्वा...। -ये प्रथमोपशम व द्वितीयोपशम दोनों सम्यग्दृष्टि अपने भवके चरमसमयमें अपने-अपने सम्यक्त्वके काल में जघन्य एक समय और उस्कृष्ट छह आवली मात्र अवशेष रहनेपर अनन्तानुबन्धी चतुष्कर्मेसे किसी एक प्रकृतिके उदयसे सासादन होकर (मरते हैं, तब देवगतिको प्राप्त करते हैं।) १. सासादनसे अवश्य मिथ्यात्वकी प्राप्ति रा, पा./8/१/१३/५८६/२१ स हि मिथ्यादर्शनोदयफलमापादयन् मिथ्यादानमेव प्रवेशयति । - यह (अनन्तानुबन्धी कषाय) मिथ्यादर्शनके फलोंको उत्पन्न करती है, अतः मिथ्यादर्शनको उदयमें आनेका रास्ता खोल देती है। गो. क./जी.प्र./५४८/७१८/२० सासादनकाल मतीत्य मिथ्यादृष्टय एवं भूत्वा । -सासादनका काल बीतनेपर नियमसे मिथ्यावृष्टि होकर.... साहसगात-राजा चक्राकका पुत्र था। सुग्रीवकी स्त्रीको प्राप्त करनेके अर्थ इसने विद्या सिद्ध की थी। (प. पु./१०/४,१८) । साहसी-स्या. म./१८/२४१/४ सहसा अविमर्शात्मकेन बलेन वर्तते साहसिकः ।-आगे आनेवाले कष्टोंको विचारे बिना ही अपनी शिरजोरीसे जो सहसा प्रवृत्त हो उसको साहसी कहते हैं । र-मध्य लोकके अन्तसे चौदहवाँ द्वीप व सागर-दे. लोक/५/१। सिधु-१-भरत क्षेत्रको प्रसिद्ध नदी-दे. मनुष्य/४; लोक/३/११२ भरत क्षेत्रस्थ एक कुण्ड जिसमें से सिन्धु नदी निकलती है-दे. लोक/३/१०३- हिमवान् पर्वतस्थ एक कूट-दे. लोक/५/४:४- सिन्धु कूट सिन्धु कुण्डकी स्वामिनी देवी-दे. लोक३/१०-१-भरत क्षेत्र उत्तर आर्य खण्डका एक देश-दे. मनुष्य/४, ६-वर्तमान सिन्ध देश । कराची राजधानी है । (म. पु./प्र. ५० पन्नालाल )। सिंधु कक्ष-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे. विद्याधर । सिंह-एक ग्रह-दे, ग्रह। सिंहनिष्क्रीडित व्रत-यह व्रत जघन्य, मध्यम व उत्कृष्टके भेदसे तीन प्रकारका है। निम्न प्रस्तार के अनुसार क्रमशः १,२ आदि उपवास करते हुए ६० उपवास पूरे करें। बीचके २० स्थानों में पारणा करे। प्रस्तार-जघन्य प्रस्तारमें मध्यका अंक है। पहलेके अंकोंमें दोदो अंकोंकी सहायतासे एक-एक बढ़ाता जाये और घटाता जाये। जैसे-१,२(२-१-१), (२+१-३), (३-१-२), (३+१४), (४-१-३), (४+१-), (५-१ ४); [५+१-६ यह विकल्प मध्यवाले पाँच अंकों को उल्लंघन कर जानेके कारण ग्राह्य नहीं। अतः यहाँ६ की बजाय का अंक ही रखना ] यहाँ तक प्रस्तारका मध्य आया। इसके आगे उलटा क्रम चलाइए अर्थात् १,४,५,३,४,२,३,१, २.१ । इस प्रकार जघन्य सिंहनिष्क्रीडित का प्रस्तार है।-१, २, १, ३,२,४, ३, ५,४, ५,४,५, ३, ४, २, ३,१,२, १-६०। जाप-नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप करे। (ह. पू./३४/७७-७८) (बत विधान सं./१६) (किशनसिंह क्रियाकोष) विधि जघन्य वव है, प्रस्तार में कुछ अन्तर है जो नीचे दिया जाता है। मध्यम-प्रस्तार निकालनेकी विधि जघन्यबतही है। केवल मध्यमका अंक ५ की बजाय हहै। अर्थात् १, २, १, ३,२,४, ३.१.४, ६.५,७,६,८,७,८,६,८,७,८,६,७,५,६,४,५,३, ४, २, ३.१,२,११५३) नोट-व्रत विधान संग्रहमें निशान वाला आठका अंक नहीं है। १५३ की बजाय १४५ उपवास है। (ह.पु./ ३४/७४-५०) (बत विधान सं-1५७) (किशनसिंह क्रियाकोष) उत्कृष्ट प्रस्तार विधान जघन्यबत जानना । अन्तर केवल इतना है कि यहाँमध्यका अंक ५ की बजाय १६ है। शेष सर्व विधि जघन्यवत है। प्रस्तार-१,२, १, ३, २.४, ३, ५,४,६,५,७,६,८,७,६, ८.१०, ६,११,१०, १२, ११.१३. १२, १४, १३, १५, १४, १५, १६:१५, १४, १५, १३, १४, १२, १३, ११, १२, १०, ११, ६,१०,८,६.७८,६, ७,५,६,४,४, ५, ३, १, २,१-४६६ : स्थान ६१।। सिंहध्वज-विजयाईकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे. विद्याधर । सिंहनंदि-१. ई. ११२९ के दो शिलालेखों के अनुसार भानुनन्दि के शिल्य आ. सिद्धनन्दि योगीन्द्र गंग राजवंश की स्थापना में सहायक हुए थे। समय-ई. श.२। (ती./२/४४५) ।२. नन्दि संधमलास्कारगण में भाभूनम्दि के शिष्य और मसुनन्दि के गुरु । समय-शक ५०८-५२५ (ई. १८६-१९३)। (दे. इतिहास/७/२)। ३. सर्वनन्दि कृत 'लोक विभाग के संस्कृत रूपान्तर के रचयिता। (ति.प./प्र. १२/H.L. Jain) ४-गंगवशीय राजमलके गुरु के गुरु थे। तथा उनके मन्त्री चामुण्डरायके गुरु अजितसेनाचार्य के गुरु थे। राजा मल के अनुसार इनका समय-वि.सं. १०१०-१०१० ( ई.६५३-६७३) आता है । (बाहुबलि परित/श्लो. ६६११)१. नन्दि संघ बलात्कारगण की सूरत शाखा में मल्लिषेण के शिष्य और ब. नेमिदत्त के गुरु । लक्ष्मी चन्द (ई. १५१८) के समय में मालवा के भट्टारक थे। आपकी प्रार्थना पर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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