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सासादन
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१. सासादन सामान्य निर्देश
दे. सासादन/१/२ [ यहाँ यद्यपि मिथ्यात्वजन्य विपरीताभिनिवेश पाया नहीं जाता, परन्तु अनन्तानुबन्धीजन्य विपरीताभिनिवेश अवश्य पाया जाता है। दै. सासादन/१/४ [अनन्तानुबन्धीके उदयके कारण ही इसके ज्ञान
अज्ञान कहे जाते हैं। दे. सासादन/२/२ [ उपशम सम्यक्त्वके कालमें छह आवली शेष रह जाने पर अनन्तानुबन्धीका उदय आ जानेसे सासादन होता है। ]
६. सासादन पारिणामिक भाव कैसे ष. खं.१/१,७/सूत्र ३/१६६ सासणसम्मादि ट्ठि त्ति को भाको, पारिणामिओ भावो ।२-सासादन सम्यग्दृष्टि यह कौन सा भाव है। पारिगामिक भाव है। (ष. खं. ७/२.५/सूत्र ७७/१०६); (पं.सं.. प्रा./१/१६८); (ध. १/१,१,१०/गा, १०८/१६६); (गो.जो/मू./२०/४६) ध.५/१,७,३/१९६/७ एत्थ चोदओ भणदि-भावो पारिणामिओ त्ति णेदं घडदे, अण्णे हितो अणुप्पणस्स परिणामस्स अस्थित्तविरोहा। अह अण्णेहितो उप्पत्तो इच्छिज्ज दि ण सो पारिणामिओ, णिक्कारणस्स सकारणत्त विरोहा इति । परिहारो उच्चते। तं जहा-जो कम्माणमुदय-उवसम-खइय-खओवसमे हि विणा अण्णे हितो उप्पणो परिणामो सो पारिणामिओ भण्णदि, ण णिक्कारणो कारणमंतरेणुप्पणपरिणामाभावा । सत्त-पमेयत्तादओ भावा णिवकारणा उपलभंतीदि चे ण, विसेससत्तादिसरूवेण अपरिणमंतसत्तादिसामण्णाणुवलंभा... तदो अप्पिदस्स दंसणमोहणीयस्स कम्मस्स उदएण उवसमेण खएण खओवसमेण वा ण हादि ति णिक्कारणसासणसम्मत्तं । अदो चेव पारिणामियत्तं पि। अणेण णाएण सवभावाणं पारिणामिपत्तं पसज्जदीदि च होदु, ण कोइ दोसो, पिरोहाभावा। अपणभावेसु पारिणामियववहारा किण्ण कीरदे । ण, सासणसम्मत्त मोत्तूण अप्पिद कम्मादो णुप्पण्णस्स अण्णस्स भावस्स अणुवलंभा। -प्रश्न-१. 'यह पारिणामिक भाव है' यह मात घटित नहीं होती, क्योंकि दूसरोंसे नहीं उत्पन्न होने वाले परिणामके अस्तित्वका अभाव है। यदि अन्यसे उत्पत्ति मानी जाये तो पारिणामिक नहीं रह सकता है, क्यों कि. निष्कारण वस्तुके सकारणत्वका विरोध है। (अर्थात स्वतः सिद्ध व अहेतुक त्रिकाली स्वभावको पारिणामिक भाव कहते हैं, पर सासादन तो अनन्तानुबन्धीके उदयसे उत्पन्न होनेके कारण सहेतुक है। इसलिए वह पारिणामिक नहीं हो सकता)? उत्तर-जो कर्मोक उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशमके बिना अन्य कारणोंसे उत्पन्न हुआ परिणाम है वह पारिणामिक कहा जाता है, न कि निष्कारण भावको पारिणामिक कहते हैं, क्योंकि, कारणके बिना उत्पन्न होने वाले परिणामका अभाव है । प्रश्न -सत्त्व, प्रमेयत्व आदिक भाव कारणके बिना भी उत्पन्न होनेवाले पाये जाते हैं ? उत्तर-नहीं, क्योंकि, विशेष सत्त्व आदिके स्वरूपसे नहीं परिणत होनेवाले सत्त्वादि सामान्य नहीं पाये जाते हैं।-२. विवक्षित दर्शन मोहनीयकर्म के उदयसे, उपशमसे, क्षयसे अथवा क्षयोपशमसे नहीं होता है अतः यह सासादन सम्यक्त्व निष्कारण है और इसी लिए इसके पारिणामिकपना भी है। (ध. १/१,१०/१६५/६); । प्रश्न-३, इस न्यायके अनुसार तो सभी भावोंके पारिणामिकपनेका प्रसग प्राप्त होता है [ क्योंकि कोई भी भाव ऐसा नहीं जिसमें किसी एक या अधिक कर्मोके उदय आदिका अभाव न हो। उत्तर-इसमें कोई दोष नहीं है, क्योकि इसमें कोई विरोध नहीं आता। (दे. पारिणामिक ) । प्रश्न-यदि ऐसा है तो फिर अन्य भावोंमें पारिणामिकपनेका व्यवहार क्यों नहीं किया जाता ! उत्तर-नहीं, क्योंकि, सासादनसम्यक्त्वको छोड़कर विवक्षित कर्मसे नहीं होनेवाला अन्य कोई भाव नहीं पाया जाता है। ध.७/२.१,७७/१०६/६ एसो सासणपरिणामो खईओ ण होदि, दसणमोह
खएणाणुप्पत्तोदो। ण ख ओवस मिओ वि, देसघादिफद्दयाणमुदएण
अणुप्पत्तीए । उवसमिओ वि ण हो दि, दंसणमोहुवसमेणाणुप्पत्तीदो।
ओदइओ वि ण होदि, दंसणमोहस्सुदएणाणुप्पत्तीदो। परिसेसादो परिणामिएण भावेण सासणी होदि। - यह सासादन परिणाम क्षायिक नहीं होता, क्योंकि, दर्शनमोहनीयके क्षयसे उसकी उत्पत्ति नहीं होती । यह क्षायोपशमिक भी नहीं है, क्योंकि, दर्शनमोहनीयके देशघातो स्पर्धकों के उदयसे उसकी उत्पत्ति नहीं होती। औपशमिक भी नहीं, क्योंकि, दर्शनमोहनीयके उपशमसे उसकी उत्पत्ति नहीं होतो वह औदयिक भी नहीं है, क्योंकि दर्शनमोहनीयके उदयसे उसकी उत्पत्ति नहीं होती। अतएव परिशेष न्यायसे पारिणामिक भावसे हो सासादन परिणाम होता है।
७. अनन्तानुबन्धीके उदयसे औदयिक क्यों नहीं ध.७/२,७७/१०६/६ अणंताणुबंधीणमुदएण सासणगुणस्सुवलंभादो ओदइओ भावो किण्ण उच्चदे। ण दंसणमोहणीयस्स उदय-उवसम-वयखओवसमेहि विणा उप्पज्जदि त्ति सासण गुणस्स कारणं चरित्तमोहणीयं तस्स दंसणमोहणीयत्तविरोहत्तादो। अणताणुबन्धीचदुक्क तदुभयमोहणं च । होदु णाम, किंतु णेदमेत्य विवक्खियं । अणंताणुबंधीचदुक्कं चरित्तमोहणीयं चेवेत्ति विवक्खाए सासणगुणो पारिणमिओ त्ति भणिदो। प्रश्न-अनन्तानुबन्धी कषायोंके उदयसे सासादन गुणस्थान पाया जाता है, अतः उसे औदयिक भाव क्यों नहीं कहते : उत्तर-नहीं कहते, क्योंकि, दर्शनमोहनीयके उदय, उपशम, क्षय व क्षयोपशमके बिना उत्पन्न होनेसे सासादन, गुणस्थानका कारण चारित्र मोहनीय कर्म ही हो सकता है और चारित्र मोहनीयके दर्शन मोहनीय माननेमें विरोध आता है। प्रश्न-अनन्तानुबन्धी तो दर्शन और चारित्र दोनों में मोह उत्पन्न करनेवाला है ? उत्तर- भले ही वह उभयमोहनीय हो, किन्तु यहाँ वैसी विवक्षा नहीं है। अनन्तानुबन्धी चारित्र मोहनीय ही है, इसी विवक्षासे सासादन गुणस्थानको पारिणामिक कहा है। ध./१.७,३/१६७/४ आदिमचदुगुणट्ठाणभावपरूपणाए दसणमोहवदिरित्तसेसकम्मेसु विवक्रवाभावा । -आदिके चार गुणस्थानोंसम्बन्धी भावोंको प्ररूपणा दर्शनमोहनीय कर्मके सिवाय शेष कर्मोके उदयकी विवक्षाका अभाव है । (गो. जी./म्. ब. जी. प्र./१२/३५) ।
८. इसे कथंचित् औदयिक भी कहा जा सकता है गो. जी./जी./प्र./१२/३/१४ अनन्तानुबन्ध्यन्यतमोदयविवक्षया तु
औदयिकभावोऽपि भवेत् । अनन्तानुबन्धी चतुष्टयमें से अन्यतमका उदय होनेकी अपेक्षा सासादन गुणस्थान औदयिक भाव भी होता है।
९. सासादन गुणस्थानका स्वामित्व देनरक/४/२,३ [ सातों ही पृथिवियों में सम्भव है परन्तु केवल पर्याप्त
ही होते हैं अपर्याप्तं नहीं। दे. तिथंच/२/१,२ [पंचेन्द्रिय तियंच व योनिमति दोनोंके पर्याप्त व
अपर्याप्तमें होना सम्भव है। ] दे. मनुष्य/३/१,२ [ मनुष्य व मनुष्यनियाँ दोनोंके पर्याप्त व अपर्याप्तमें
होना सम्भव है।] दे. देव/३/१/२ [भवनबासीसे उपरिम अवेयक पर्यन्तके सभी देवों व
देवियों में पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों अवस्थाओंमें सम्भव है।] दे. इन्द्रिय/४/४ [ एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रियों में नहीं होता, संज्ञी पंचेन्द्रियों में ही सम्भव है। यहाँ इतनी विशेषता है कि-(दे.
अगला सन्दर्भ)] दे, जन्म/४ [ नरकमें सर्वथा जन्म नहीं लेता, कर्म व भोगभूमि दोनों के गर्भज संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचों में ही जन्मता है इनसे विपरीतमें नहीं । इतनी विशेषता है कि असंज्ञियों में केवल अपर्याप्त दशामें ही
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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