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सासादन
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१. सासादन सामान्य निर्देश
१. सासादन सामान्य निर्देश
१. सासादन सम्यग्दृष्टिका लक्षण पं. स./प्रा./१/६,१६८ सम्मत्तरयणपत्रयसिहरादो मिच्छभावसमभिमुहो। णासियसम्मत्तो सो सासणणामो मुणेयव्यो।हाण य मिच्छत्तं पत्तो सम्मत्तादो य जो हु परिवडिओ। सो सासणो त्ति णेओ सादियपरिणामिओ भावो ।१६। -१. सम्यक्त्वरूप रत्नपर्वतके शिरवरसे च्युत, मिथ्यात्वरूप भूमिके सम्मुख और सम्यक्त्वके नाशको प्राप्त जो जीव है, उसे सासादन नामवाला जामना चाहिए ।। (ध, १/१,१,१०/गा. १०८/१६६), (गो. जी./मू./२०/४६)। २. उपशम सम्यक्त्वसे परिपतित होकर जीव जब तक मिथ्यात्वको प्राप्त नहीं हुआ है तब तक उसे सासादन सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।१६८ (ध.१/१,१,१०/१६३/५), (गो.जी./मू./६५४/११०२), (द्र, सं/टी./१३/३३/१)। रा. वा./१/१/१३/५८६/१८ अत एवास्यान्वर्थसंज्ञा-आसादतं विराधनम,
सहासादनेन । वर्तत इति सासादना, सासादना सम्यग्दृष्टियस्य सोऽयं सासादनसम्यग्दृष्टिरिति । अतएव 'सासादन' यह अन्वर्थ संज्ञा है । आसादनका अर्थ विराधना है। आसादनके साथ रहे वह सासादन । आसादन सहित समीचीन दृष्टि जिसके वह सासादनसम्यग्दृष्टि है। (ध, १/१,१,१०/१५३/५+१६६/१); (गो. जो./जी.प्र./१०/३१/४)।
जाता है, इसलिए उसे मिथ्यादृष्टि नहीं कहते हैं। केवल सासादन सम्यग्दृष्टि कहते हैं। प्रश्न-ऊपरके कथनानुसार जब वह मिथ्यादृष्टि ही है तो फिर उसे मिथ्यादृष्टि संज्ञा क्यों नहीं दी गयी है। उत्तरऐसा नहीं है, क्योंकि, सासादन गुणस्थानको स्वतन्त्र कहनेसे अनन्तानुबन्धी प्रकृतियोंकी द्विस्वभावताका कथन सिद्ध हो जाता है । दे. अनन्तानुबन्धी-दर्शनमोहनीयके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमसे जीवों के सासादनरूप परिणाम तो उत्पन्न होता नहीं है-(दे. सासादन/१/६ ) जिससे कि इस गुणस्थानको मिथ्यावृष्टि, सम्यग्दृष्टि अथवा सम्यग्मिध्यादृष्टि कहा जाता। तथा जिस अनन्तानुबन्धीके उदयसे दूसरे गुणस्थानमें जो विपरीताभिनिवेश होता है, वह अनन्तानुबन्धी दर्शनमोहनीयका भेद न होकर चारित्रका आवरण करनेवाला होनेसे चारित्रमोहनीयका भेद है। इसलिए दूसरे गुणस्थानको मिथ्यादृष्टि न कहकर सासादनसम्यग्दृष्टि कहा है। (और भी दे. सासादन/१/७,८)
२. मिथ्यादृष्टि आदिसे पृथक् सासादन दृष्टि क्या ध, १/१,९,१०/१६३/७ अथ स्यान्न मिथ्यावृष्टिरयं मिथ्यात्वकर्मण उदयाभावात्, न सम्यग्दृष्टिः सम्यग्रुचेरभावाद, न सम्यग्मिथ्यादृष्टिरुभयविषयरुचेरभावात् । न च चतुर्थी दृष्टिर स्ति सम्यगसम्य. गुभयदृष्टयालम्बनवस्तुव्यतिरिक्तवस्त्वनुपलम्भात् । अतोऽसत् एष गुण इति न, विपरीताभिनिवेशतोऽसदृष्टित्वात् । सहि मिथ्यादृष्टिभवत्वयं नास्य सासादनव्यपदेश इति चेन्न, सम्यग्दर्शनचारित्रप्रतिबन्ध्यनन्तानुबन्ध्युदयोत्पादितविपरीताभिनिवेशस्य तत्र सत्त्वाद्भवति मिथ्यावृष्टिरपि तु मिथ्यात्वकर्मोदयजनितविपरीताभिनिवेशाभावात् न तस्य मिथ्यादृष्टिव्यपदेशः, किन्तु सासादन इति व्यपदिश्यते। किमिति मिथ्यादृष्टिरिति न व्यपदिश्यते चेन्न, अनन्तानुबन्धिनां द्विस्वभावत्वप्रतिपादनफलत्वात । न च दर्शनमोहनीयस्योदयादुपशमात्क्षयोपशमाद्वा सासादनपरिणामः प्राणिनामुपजायते येन मिथ्यादृष्टिः सम्यग्दृष्टिः सम्यग्मिथ्यादृष्टिरिति चोच्यते। यस्माच्च विपरीताभिनिवेशोऽभूदनन्तानुबन्धिनो, न तदर्शनीयं तस्य चारित्रावरणत्वात् । -प्रश्न-सासादन गुणस्थान वाला जीव मिथ्यात्वका उदय न होनेसे मिथ्यादृष्टि नहीं है, समीचीन रुचिका अभाव होनेसे सम्यग्दृष्टि भी नहीं है। दोनोंको विषय करनेवाली सम्यग्मिथ्यात्वरूप रुचिका अभाव होनेसे सम्यग्मिध्यादृष्टि भी नहीं है। इनके अतिरिक्त और कोई चौथी दृष्टि है नहीं, क्योंकि, समीचीन असमीचीन और उभयरूप दृष्टिके आलम्बनभूत वस्तुके अतिरिक्त दूसरी कोई वस्तु पायी नहीं जाती है। इसलिए सासावन गुणस्थान असत्स्वरूप है 1 उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, सासादन गुणस्थानमें विपरीत अभिप्राय रहता है, इस लिए उसे असददृष्टि ही समझना चाहिए। प्रश्न-यदि ऐसा है तो इसे मिथ्यादृष्टि ही कहना चाहिए, सासादन संज्ञा देना उचित नहीं है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, सम्यग्दर्शन और स्वरूपाचरण चारित्रका प्रतिबन्ध करनेवाली अनन्तानुबन्धी कषायके उदय से उत्पन्न हुआ विपरीताभिनिवेश दूसरे गुणस्थानमें पाया जाता है, इसलिए द्वितोय गुणस्थानवी जीव मिथ्यादृष्टि है किन्तु मिथ्यात्वकर्मके उदयसे उत्पन्न हुआ विपरीताभिनिवेश यहाँ नहीं पाया
३. सासादनको सम्यग्दृष्टि व्यपदेश क्यों ध. १/१,१,१०/१६६/१ विपरीताभिनिवेशदूषितस्य तस्य कथं सम्यग्दृष्टित्वमिति चेन्न, भूतपूर्वगत्या तस्य तद्वयपदेशोपपत्ते रिति। - प्रश्नसासादन गुणस्थान विपरीत अभिप्रायसे दूषित है (दे. शीर्षक सं. २), इसलिए इसके सम्यग्दृष्टिपना कैसे बनता है : उत्तर-नहीं, क्योंकि, पहले वह सम्यग्दृष्टि था [अर्थात प्रथमोपशमसे गिरकर ही सासादन होनेका नियम है- (दे. सासादन/२) ] इसलिए भूतपूर्व न्यायकी अपेक्षा उसके सम्यग्दृष्टि संज्ञा बन जाती है। (गो.जी./ जी. प्र./१०/३१/५) ४. सासादनमें तीनों ज्ञान अज्ञान क्यों रा. वा./६/१/१३/५८६/१६ तस्य मिथ्यादर्शनोदयाभावेऽपि अनन्तानुबन्ध्युदयात त्रीणि ज्ञानानि अज्ञानानि एव भवन्ति । -मिथ्यात्वका उदय न होनेपर भी इसके तीनों मति, श्रुत और अवधिज्ञान अज्ञान कहे जाते हैं । ( दे, सत्) ध. १/१,१,११६/३६१/३ मिथ्यादृष्टेः द्वेऽप्यज्ञाने भवतां नाम तत्र मिथ्यास्वोदयस्य सत्त्वात् । मिथ्यात्वोदयस्यासत्त्वान्न सासादने तयोः सत्त्वमिति न, मिथ्यात्वं नाम विपरीताभिनिवेशः स च मिथ्यास्वादनन्तानुबन्धिनश्चोत्पद्यते। समस्ति च सासादनस्यानन्तानुबन्ध्युदय इति । -प्रश्न-मिथ्यादृष्टि जीवोंके भले ही दोनों (मति व भूत) अज्ञान होवें, क्योंकि वहाँ पर मिथ्यात्वका उदय पाया जाता है, परन्तु सासादनमें मिथ्यात्वका उदय नहीं पाया जाता है, इसलिए वहाँ पर वे दोनों ज्ञान अज्ञानरूप नहीं होना चाहिए। उत्तर-नहीं, क्योंकि, विपरीताभिनिवेशको मिथ्यात्व कहते हैं।
और मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी इन दोनोंके निमित्तसे उत्पन्न होता है । सासादन गुणस्थानवालेके अनन्तानुबन्धीका उदय तो पाया ही जाता है ( दे. शीर्षक नं.२), इसलिए वहाँ पर भी दोनों अज्ञान सम्भव हैं।
५. सासादन अनन्तानुबन्धीके उदयसे होता है रा, वा./8/१/१३/५८८/२० तस्य मिथ्यादर्शनस्योदये निवृत्तं अनन्तानमन्धिकषायोदयकलुषीकृतान्तरात्मा जीवः सासादनसम्यग्दृष्टिरित्याख्यायते। -मिथ्यादर्शनके उदयका अभाव होने पर भी जिनका आरमा अनन्तानुबन्धीके उदयसे कलुषित हो रहा है वह सासादनसम्यग्दृष्टि है। ल. सा./जी.प्र./88/१३६/१६ तदुपशमनकाले अनन्तानुमन्ध्युदयाभावेन सासादनगुणप्राप्तेरभावात् । -दर्शनमोहके उपशमनकालमें अनन्तानुबन्धीके उदयका अभाव होनेसे सासादनकी प्राप्तिका अभाव है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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