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सासादन
२. सासादनके आरोहण व अवरोहण सम्बन्धी
होता है और संज्ञियों की अपर्याप्त व पर्याप्त दोनों दशाओं में द्वितीयोपशमकी अपेक्षा संज्ञी, संज्ञियों में पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों तथा देवों में केवल अपर्याप्त दशामें ही सम्भव है। एकेन्द्रिय व विकले. न्द्रियों में यदि होते हैं तो केवल निवृत्त्यपर्याप्त दशामें ही सम्भव है। वहाँ भी केवल बादर पृथिवी अप व प्रत्येक वनस्पति इन तीन कायों में ही सम्भव है अन्य कायों में नहीं। वास्तवमें एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते, बक्कि बहाँ मारणान्तिक समुद्भात करते हैं।] दे, जन्म/४/१० [सासादन प्राप्तिके द्वितीय समयसे लेकर आवली/असं. कालतक मरनेपर नियमसे देव गतिमें जन्मता है। इसके ऊपर आ./ असं. काल मनुष्यों में जन्मने योग्य है। इसी प्रकार आगे क्रमसे संझी, असंज्ञी, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय व एकेन्द्रियों में जन्मने योग्य काल होता है। दै. संयत/१/६ [ सासादन निवृत्त्यपर्याप्त या पर्याप्त ही होता है लब्धि
अपर्याप्त नहीं। १०. मारणान्तिक समुद्धात सम्बन्धी ध.४/१,४,४/४/१६४/२ तेसिं सासणगुणपाहम्मेण लोगणालीए बाहिरमुपजणसहावाभावादो।लोगणालीए अन्भंतरे मारणं तियं करता वि भवणवासियजगमूलादोवरि चेत्र देव-तिरिक्खसासणसम्मादिठिणो मारणं तियं करेंति, णो हेठा, कुदो । सासणगुणपाहम्मादो चेत्र ।- [सासादन सम्यग्दृष्टिदेव ऐकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धात करते हैं, परन्तु उनके सासादन गुणस्थान की प्रधानतासे लोक नाली के बाहर उत्पन्न होनेके स्वभावका अभाव है। और लोकनाली के भीतर मारणान्तिक समुद्धातको करते हुए भी भवनवासी लोकके मूलभागसे ऊपर ही देव या तिथंच सासादन सम्यग्दृष्टि जीव मारणान्तिक समुद्धातको करते हैं । इससे नीचे नहीं,
क्योंकि, उनमें सांसाद नगुणस्थानकी ही प्रधानता है। ध.४/१,४,४११६४/७ ईसिपब्भारपुढवीदो उवरि सासणाणमाउकाइएसु
मारण तियसंभवादो, अट्ठमपुढवीए एगरन्तुपदरभंतर सयमावूरिय दिदाए तेसिं मारणं तियकरणं पडि विरोहाभावादो च । ईषत्प्राभार पृथित्रीसे ऊपर सासादन सम्यग्दृष्टियोंका अपकायिक जीवों में मारणांतिक समुद्धात सम्भव है, तथा एक रज्जूपतरके भीतर सर्व क्षेत्रको व्याप्त करके स्थित आठवीं पृथिवीमें उन जीवोंके मारणातिक समुद्धात करनेके प्रति कोई विरोध भी नहीं है। दे. मरण/१/४-[ मेरुतकसे अधोभागवर्ती एकेन्द्रिय जीवों में व मारणा
न्तिक समुद्धात नहीं करते। दे. जन्म/४/११-[सासादन सम्यग्दृष्टि जीव वायुकायिकों में मारणा
न्तिक समुद्धात नहीं करते।] २. सासादनके आरोहण व अवरोहण सम्बन्धी
१. उपशमसम्यक्त्व पूर्वक ही होता है घ.५/१,८,१२/२५०७ सासणगुणमुवसमसम्मादिविणो चेव पडिवज्जति । -सासादनगुणस्थानको उपशमसम्यग्दृष्टि ही प्राप्त होते हैं।
२. प्रथमोपशमके कालमें कुछ अवशेष रहनेपर होता है रा.वा./६/१/१३/५८६/१६ जघन्येन एकसमये उत्कर्षेणाबलिकाषट्केऽवशिष्टे यदा अनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभमन्यतमस्योदयो भवति तदा सासादनसम्यग्दृष्टिरित्युच्यते । -प्रथमोपशम सम्यक्त्वके अन्तर्मुहूर्त कालमें जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह आवली अवशेष रहनेपर, जब अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया व लोभ इन चारोंमेंमें किसी एकका उदय होता है, तब वह जीव सासादन सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। (गो. जी./मू./११/४४); (ल. सा./मू /१००/१३७ ); (गो. जी./जो, प्र./७०४/११४१/१५); (गो. क./जी.प्र./५४८/७१८/१७)
३. उपशममें शेष बचा काल ही सासादनका काल है ष, ख, ७/२,२/सू. २००-२०२/१८२ सासणसम्माइट्ठी केवचिरं कालादो
होदि १२००। जहण्णण एयसमओ ।२०१। उक्कस्सेण छाबलियाओ ।२०२। सासादन सम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक रहते हैं 11२००। जघन्य एक समय ।२०११ और उत्कृष्ट छह आवली कालतक रहते हैं।२०२। ( ष. खं. ४/९/सूत्र ७-८); (ध.४१,८,१२/२५०/२) ध.४/१.५,७/गा, ३१/३४१ उबसमसम्मत्तद्धा जत्तियमेत्ताह होइ अवसिट्ठा। पडिवज्जता साणं तत्तियमेत्ता य तस्सद्धा।३१। - जितना प्रमाण उपशम सम्यक्त्वका काल अवशिष्ट रहता है, उस समय सासाद नगुणस्थानको प्राप्त होनेवाले जीवका भी उतने प्रमाण ही काल होता है ।३१॥ घ.७/२,२,२०१/१८२/६ उवसमसम्मत्तदाए एगसमयावसे से सासणं गदस्स सासणगुणस्स एगसमयकालोवलंभादो। जेत्तिया उवसमसम्मत्तद्धा एगसमयादि कादूण जावुक्कस्सेण छावलियाओ त्ति अवसेसा अस्थि तत्तिया चेव सासणगुणद्धावियप्पा होति। -क्योंकि, उपशम सम्यक्त्वके काल में एकसमयशेषरहनेपर सासादनगुणस्थानमेंजानेवाले जीवके सासादनगुणस्थानका एक समय काल पाया जाता है। एक समयसे प्रारम्भ कर अधिकसे अधिक छह आवलियोंतक जितना उपशम सम्यक्त्वका काल शेष रहता है, उतने ही सासादनगुणस्थानके विकल्प होते हैं। ४. उक्त कालसे हीन या अधिक शेष रहनेपर सासादनको प्राप्त नहीं होता क. पा. सुत्त/१०/गा. १७/६३१ उवसामगो च सम्बो...णिरासाणो। उवसंते भजियव्वो भीरासणो य खीणम्मि 189) जबतक दर्शनमोहका उपशम कर रहा है तबतक वह सासादन गुणस्थानको प्राप्त नहीं होता है। उसका उपशम हो जाने पर भजितव्य है, अर्थात सासादनको प्राप्त हो भी जाता है और नहीं भी। [प्रथमोपशम कालमें एक समयसे छह आवलीतक शेष रहनेपर तो कदाचित् प्राप्त हो जाता है। परन्तु] उस उपशम सम्यक्त्वका काल समाप्त हो जानेपर प्राप्त नहीं होता है। (ध. ६/९.६-८,६/गा. ४/२३६); (ल,
सा./म./१४/१३६) ध. ४/१,५,६/गा. ३२/३४२ उवसमसम्पत्तद्धा जइ छावलिया हवेज्ज
अवसिट्ठा। तो सासणं पवज्जइ णो हे ठुकट्ठकालेसु ॥३२॥ - उपशम सम्यक्त्वका छह आवली प्रमाण अवशिष्ट होवे तो जीव सासादन गुणस्थानको प्राप्त होता है, यदि इससे अधिक काल अवशिष्ट रहे तो
नहीं प्राप्त होता है ।३२१ ध.७/२,२,२०१/१८२/८ उवसम्मत्तकालं संपुण्णमच्छिदो सासणगुणं ण
पडिबज्जदित्ति कधं णबदे। एवम्हादो चेव सुत्तादो, आइरियपरंपरागदुबदेसादौ वा ।-प्रश्न-जो जीव उपशमसम्यवत्वके सम्पूर्ण कालतक उपशमसम्यक्त्व में रहा है, वह सासादन गुणस्थानमें नहीं जाता, यह कैसे जाना 1 उत्तर-प्रस्तुत सूत्रसे (दे. शीर्षक नं.३) हो तथा आचार्य परम्परागत उपदेशसे भी पूर्वोक्त मात जानी जाती है। ल.,सा./जी.प्र/88/१३६/१६ उपशान्ते दर्शनमोहे अन्तरायाम वर्तमानः प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टिः सासादनगुणस्थानप्राप्त्या भक्तव्यो विकल्पनीयः। कस्यचित्प्रथमोशमसम्यक्त्वकाले एकसमयादिषडावलिकान्तावशेषे सासादनगुणत्वसंभवात् । उपशमसम्यवस्वकाले क्षीणे' समाप्ते सति निरासादन एव तदा नियमेन निथ्यात्वाद्यन्यतमोदयसंभवात। -दर्शनमोहके उपशान्त हो जानेपर उस प्रथमोपशम सम्यक्त्वके अन्तरायाममें वर्तमान प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि जीव सासादनगुणस्थानकी प्राप्तिके लिए भजनीय हैअर्थात प्राप्त
भा०४-५४
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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