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सामायिक
३. सामायिक व्रत व प्रतिमा निर्देश
दे. सामायिक/२/३ [ आवर्त, व नमस्कार आदि योग्य कृतिकर्म युक्त १. सामायिकके समय गृहस्थ भी साधु तुल्य होता है। होकर पूर्वाह्न, मध्याह्न, व अपराह्न इन तीन सन्ध्याओंमें क्षेत्र व कालकी सीमा बाँधकर जो पंच परमेष्ठी आदिका या आत्मस्वरूपका
मू.आ./५३१ सामाइम्हि दु कदे समयौ विसावओ हवदि जम्हा। एदेण चिन्तबन करता है वह सामायिक प्रतिमाधारी है। ]
कारणेण दु बहुसो सामाइयं कुज्जा। सामायिक करता हुआ
श्रावक भी संयमी मुनिके समान हो जाता है, इसलिए बहुत करके चा सा./३७/१ सामायिकः सन्ध्यात्रयेऽपि भुवनत्रयस्वामिनं वन्दमानो
सामायिक करनी चाहिए ॥५३११ वक्ष्यमाणव्युत्सर्गतपसि कथितक्रमण। -सामायिक सवेरे दोपहर
र. क, श्रा./१०२ सामायिके सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि । और शाम तीनों समय करना चाहिए और वह तीनों लोकों के स्वामी
चेलोपसृष्टमु निरिव गृही तदा याति यतिभावं ।१०२१ सामायिकमें भगवान जिनेन्द्रदेवको नमस्कारकर. आगे जो व्युत्सर्ग नामका
आरम्भ सहितके सब ही प्रकार नहीं होते हैं, इस कारण उस समय तपश्चरण कहेगे उसमें कहे हुए क्रमके अनुसार अर्थात कायोत्सर्ग
गृहस्थ भी उस मुनिके तुल्य हो जाता है जिसे कि उपसर्गके रूपमें करते हुए करना चाहिए।
वस्त्र ओढ़ा दिया गया हो ।१०२। ३. सामायिक व्रत व प्रतिमामें अन्तर
स.सि./७/२१/३६०/६ इयति देशे एतावति काले इत्यवधारिते सामायिके
स्थितस्य महाबतत्वं पूर्ववद्वेदितव्यम् । कुतः। अणुस्थूल कृत हिंसादिचा. सा. । ३७/३ अस्य सामायिकस्यानन्तरोक्तशीलसप्तकान्तर्गत
निवृत्त। -इतने देशमें और इतने काल तक इस प्रकार निश्चित सामायिकवतं शीलं भवतीति ।-पहिले व्रत प्रतिमामें १२ व्रतों के की गयी सीमामे, सामायिकमें स्थित पुरुषके पहिले के समान ( दे. अन्तर्गत सात शीलवतों में सामायिक नामका व्रत कहा है (दे. शिक्षा दिग्बत ) महाबत जानना चाहिए, क्योंकि इसके सूक्ष्म और स्थूल बत) वही सामायिक इस सामायिक प्रतिमा पालन करनेवाले दोनों प्रकारके हिंसा आदि पापोंका त्याग हो जाता है। (रा.वा./0/ श्रावकके व्रत हो जाता है जब कि दूसरी प्रतिमावालेके बही शील रूप
२१/२३/५४६/२२); (गो.क./गो.प्र.५४७/७१२/१)।। (अर्थात् अभ्यासरूपसे ) रहता है । (सा. ध //६) ।
पु.सि.उ./१५० सामायिकश्रितानां समस्तसावद्ययोगपरिहारात । भवति चा. पा./टी./२५/४५/१५ दिन प्रति एकवार द्विवार त्रिवार वा व्रतप्रति- महानतमेषामुदयेऽपि चारित्रमोहस्य। -इन सामायिक दशाको मायां सामायिकं भवति । यत्त सामायिकप्रतिमायां सामायिक प्रोक्तं प्राप्त हुए श्रावकोंके चारित्र मोहके उदय होते भी समस्त पापके तस्वीन बारान् निश्चयेन करणीयमिति ज्ञातव्यं । व्रत प्रतिमामें योगों के परिहारसे महावत होता है ।१५० एकबार दोबार अथवा तीनबार सामायिक होती है ( कोई नियम चा.सा./१६/४ हिंसादिभ्यो विषयकषायेभ्यश्च विनिवृत्त्य सामायिके नहीं है ) जब कि सामायिक प्रतिमाम निश्चयसे तीनबार सामायिक ___ वर्तमानो महानती भवति। -विषय और कषायोंसे निवृत्त होकर करने योग्य है ऐसा जानना चाहिए।
सामायिकमें वर्तमान गृहस्थ महावती होता है। ला.सं./9/४.८ ननु बतप्रतियायामेतत्सामायिकवतम् । तदेवात्र तृतीयायां
का. अ./३५५-३५७ बंधित्ता पज्जंकं अहवा उड्ढेण उभओ ठिच्चा। प्रतिमायां तु कि पुनः ।४। सत्यं किन्तु विशेषोऽस्ति प्रसिद्धः
कालपमाणं किच्चा इंदिय-बावार-वज्जिदो होउं १३५५। जिणवयणेपरमागमे। सातिचारं तु तत्र स्यादत्रातीचारविव जितम् ॥५॥ किंच
यग्ग-मणो संबुड-काओ य अंजलिं किच्चा । स-सरूवे संलीणो वंदणतत्र त्रिकालस्य नियमो नास्ति देहिनाम् । अत्र त्रिकाल नियमो
अत्य' विचितंतो ।३५६। किच्चा देसपमाणं सर्व सावज्ज-वज्जिदो मुनेर्मूलगुणादिवत् ।६। तत्र हेतुबशात्कवापि कुर्याकुर्यान्न वा क्वचित् ।
होउ। जो कुव्बदि सामइयं सो मुणि-सरिसो हवे ताव ।३५७/सातिचारवतत्वाद्वा तथापि न ब्रतक्षतिः ।७। अनावश्यं त्रिकालेऽपि
पर्यक आसनको बाँधकर अथवा सीधा खड़ा होकर, काल का प्रमाण कार्यसामायिकं जगत् । अन्यथा तहानिः स्यादतीचारस्य का कथा
करके (दे, सामायिक/३/१) इन्द्रियोके व्यापारको छोड़नेके लिए 1-प्रश्न-यह सामायिक नामका बत बतप्रतिमामें कहा है, और
जिनवचनमें मनको एकाग्र करके, कायको संकोचकर, हाथकी अंजलि वही व्रत इस तीसरी प्रतिमामें बतलाया है। सो इसमें क्या विशेषता
करके, अपने स्वरूप में लीन हुआ अथवा वन्दना पाठके अर्थका है ।।४। उत्तर-ठीक है, जो 'सामायिक' व्रत प्रतिमामें है वही
चिन्तवन करता हुआ, क्षेत्रका प्रमाण करके और समस्त सावध तीसरी प्रतिमामें है, परन्तु उन दोनों में जो विशेषता है, वह आगममें
योगको छोड़ कर जो श्रावक सामायिक करता है वह मुनिके समान प्रसिद्ध है। वह विशेषता यह है कि १. व्रतप्रतिमाकी सामायिक
है ।३५५-३५७१ सातिचार है और सामायिक प्रतिमाकी निरतिचार ।। (दे, आगे
५. साधु तुल्य होते हुए भी वह संयत नहीं इस क्सके अतिचार)। २. दूसरी बात यह भी है कि व्रत प्रतिमा तीनों काल सामायिक करनेका नियम नहीं, जब कि सामायिक
स. सि./७/२१/३६०/१० संयमप्रसङ्ग इति चेत; न; तद्धातिकर्मोदयप्रतिमामें मुनियों के मूलगुण आदिकी भाँति तीनों काल करनेका सद्भावात् । महावताभाव इति चेत् । तन्न, उपचाराद राजकुले सवंगतनियम है ।६। ३. व्रत प्रतिमावाला कभी सामायिक करता है और
चैत्राभिधानवत् । -प्रश्न-यदि ऐसा है (अर्थात् यदि सामायिक कारणवश कभी नहीं भी करता है, फिर भी उसका बत भंग नहीं
में स्थित गृहस्थ भी महाव्रतो कहा जायेगा) तो सामायिकमें होता, क्योंकि वह इस व्रतको सातिचार पालन करता है 100 परन्तु
स्थित हुए पुरुषके सकल संयमका प्रसंग प्राप्त होता है। उत्तरतीसरी प्रतिमामें श्रावक को तीनों काल सामायिक करना आवश्यक
नहीं, क्योंकि, इसके संयमका घात करनेवाले कर्मों का उदय पाया है. अन्यथा उसके बतकी क्षति हो जाती है, तब अतिचारकी तो
जाता है। प्रश्न-तो फिर इसके महावतका अभाव प्राप्त होता बात ही क्या ?
है ? उत्तर-नहीं, क्योंकि, जैसे राजकुलमें चैत्रको सर्वगत उपचारसे
कहा जाता है उसी प्रकार यहाँ महाव्रत उपचारसे जानना चाहिए। दे.सामायिक/३/१,२ [ सामायिक व्रतका लक्षण करते हुए केवल उसका
(रा. वा./७/२१/२४-२५/५४६/२४); (चा. सा./१६/४); (गो. क./ स्वरूप ही बताया है, जबकि सामायिक प्रतिमाका लक्षण करते हुए
जी.प्र./५४७/७१४/१)। उसे तीन बार अवश्य करनेका निर्देश किया गया। दे.सामायिक/२/३ [ आवर्त आदि कृति कर्म सहित सामायिक करनेका ।
६. सामायिक व्रतका प्रयोजन निर्देश सर्वत्र सामायिक प्रतिमाके प्रकरण में किया है, सामायिक र. क. श्रा./१०१ सामायिक प्रतिदिवसं यथावदप्यनलसेन चेतव्यं । व्रतनामक शिक्षा व्रतके प्रकरण में नहीं।
पञ्चकपरिपूर्ण कारणमवधानयुक्तेन ११०११ - सामायिक पाँच महावतों के
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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