Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 424
________________ सामायिक ४१७ ३. सामायिक व्रत व प्रतिमा निर्देश त्रिकाल बन्दना की जाती है वह सामायिक नामका तीसरा प्रतिमा स्थान है। दे, सामायिक/३/१/२ [ केश, हाथकी मुट्ठी व वस्त्रादिको बाँधकर, क्षेत्र व काल को सोमा करके, सर्वसापद्यसे निवृत्त होना सामायिक प्रतिमा है।] ३. सामायिक व्रत व प्रतिमा निर्देश १. सामायिक व्रतके लक्षण १. समता धारण व आर्तरौद्र परिणामोंका त्याग पं.वि..६/८ समता सर्वभूतेषु संयमे शुभभावना आर्त रौद्रपरित्यागस्तद्धि सामायिकं बतम् ।। = सब प्राणियों में समता भाव (दे. सामायिक/ १/१) धारण करना, संयमके विषय में शुभ विचार रखना, तथा आर्त एवं रौद्र ध्यानोंका त्याग करना, इसे सामायिक व्रत माना है। १. सामायिक योग्य आसन मुद्रा क्षेत्रादि दे. कृतिकर्म/३ पल्यंकासन या कायोत्सर्ग आसन इन दो आसनोंसे की जाती है। कमर सीधी व निश्चय रहे, नासाग्र दृष्टि हो, अपनी गोद में बायें हाथके ऊपर दाहिना हाथ रखा हो, नेत्र न अधिक खुले होंन मुंदे, निद्रा-आलस्य रहित प्रसन्न वदन हो, ऐसी मुद्रा सहित करे। शुद्ध, निर्जीव व छिद्र रहित भूमि, शिला अथवा तरखते मयी पीठपर करे। गिरिकी गुफा, वृक्षको कोटर, नदीका पुल, श्मशान, जीर्णोद्यान, शुन्यागार, पर्वतका शिखर, सिद्ध क्षेत्र, चैत्यालय आदि शान्त व उपद्रव रहित क्षेत्रमें करे। वह क्षेत्र क्षुद जीवोंकी अथवा गरमी सर्दी आदिकी बाधाओंसे रहित होना चाहिए। स्त्री, पाखण्डी, तिथंच, भूत, वैताल आदि, व्याघ्र, सिंह आदि तथा अधिक जन संसर्गसे दूर होना चाहिए । निराकुल होना चाहिए। पूर्व या उत्तर दिशाकी ओर मुख करके करनी चाहिए। द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावकी तथा मन वचन कायको शुद्धि सहित करनी चाहिए। (और भी दे, सामायिक/२/३)। २. अवधृत कालपर्यन्त सर्व सावद्य निवृत्ति र. क, श्रा./१७-१८ आसमयमुक्तिमुक्तं पञ्चाधानामशेषभावेन । सर्वत्र च सामयिकाः सामायिक नाम शंसन्ति । मूर्धरुहमुष्टिवासोबन्ध पर्यकबन्धनं चापि । स्थानमुपवेशनं वा समयं जानन्ति समयज्ञाः TEEL - मन, वचन, काय, तथा कृत कारित अनुमोदना ऐसे नवकोटिसे की हुई मर्यादाके भीतर या बाहर भी किसी नियत समय ( अन्तर्मुहूर्त) पर्यन्त पाँचों पापोंका त्याग करनेको सामायिक कहते हैं ।१७। ज्ञानी पुरुष चोटी के बाल मुट्ठी व वस्त्रके बाँधनेको तथा पर्यडक आसनसे या कायोत्सर्ग आसनसे सामायिक करनेको स्थान व उपवेशनको अथवा सामायिक करने योग्य समयको जानते हैं ।१८। (विशेष दे, सामायिक ।२। व सामायिक ३३४); (चा. सा./१६/३); (सा. ध /१/२८)। स.सि./७/१/३४३/६ सर्वसावद्यनिवृत्तिलक्षणसामायिक। -सर्व सावद्य की निवृत्ति ही है लक्षण जिसका ऐसा सामायिक व्रत ( यद्यपि सामायिकको अपेक्षा एक है पर छेदोपस्थापनाकी अपेक्षा ५ है। दे.छेदोपस्थापना )। ५. सामायिक योग्य ध्येय र. के. श्रा./१०४ अशरणमशुभम नित्यं दुःखमनात्मानमावसामि भवं । मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायन्तु सामयिके ।१०४। = मैं अशरणरूप, अशुभरूप, अनित्य, दुःखमय और पररूप संसारमें निवास करता हूँ। और मोक्ष इससे विपरीत है, इस प्रकार सामायिकमें ध्यान करना चाहिए 1१०४ ( और भी दे. ध्येय)। २. सामायिक प्रतिमाका लक्षण का. अ./म./३७२ चितंतो ससरूवं जिणबिंब अहव अक्खरं परमं । झायदि कम्म विवायं तस्स वयं होदि सामइयं ॥३७२। = अपने स्वरूपका अथवा जिन बिम्बका, अथवा पंच परमेष्ठीके वाचक अक्षरोंका अथवा कर्मविपाकका (अथवा पदार्थों के यथावस्थित स्वरूपका, तीनों लोकका और अशरण आदि वैराग्य भावनाओंका) चिन्तवन करते हुए ध्यान करता है उसके सामायिक प्रतिमा होती है । ३७२। (विशेष दे, ध्येय)। वसु. श्रा./२७६-२७८ काउसग्गम्हि ठिओ लाहालाहं च सत्तु मित्तं च। संयोय-विपजोयं तिणकंचणं चंदणं वासिं।२७६। जो पस्सइ समभावं मणम्मि धरिऊण पंचणवयारं । वरअठ्ठपाडिहरे हि संजुयं जिणसरूवं च ।२७७१ सिद्धसरूवं झायइ बहवा माणुत्तमं ससंवेयं । खणमेक्कमविचलंगो उत्तमसामाइयं तस्स ।२८७१ =जो श्रावक कायोत्सर्गमें स्थित होकर लाभ-अलाभको, शत्रु-मित्रको, इष्टवियोग व अनिष्टसंयोगको, तृण-कंचणको, चन्दन और कुठारको समभावसे देखता है, और मन में पंच नमस्कार मन्त्रको धारण कर उत्तम अष्ट प्रातिहार्योसे संयुक्त अर्हन्तजिनके स्वरूपको और सिद्ध भगवान्के स्वरूपको ध्यान करता है, अथवा संवेग सहित अविचल अंग होकर एक क्षणको भी उत्तम ध्यान करता है उसको उत्तम सामायिक होती है ।२७६ २७८। ( विशेष दे. सामायिक/२/३ ) । द्र.सं/टी./४/१६५/५ त्रिकालसामायिके प्रवृत्तः तृतीयः । जब (पूर्वाह्न, मध्याह्नव अपराह्न) ऐसी त्रिकाल सामायिक में प्रवृत्त होता है तब तीसरी ( सामायिक) प्रतिमाधारी होता है। दे, सामायिक/२/३ [ जिनवाणी, जिनबिम्ब, जिनधर्म, पंच परमेष्ठी तथा कृत्रिम और अकृत्रिम चैत्यालयका भी ध्यान किया जाता है। ] दे. सामायिक/३/२ [पंच नमस्कार मन्त्रका, प्रातिहार्य सहित अर्हन्तके स्वरूपका तथा सिद्धके स्वरूपका ध्यान करता है। ६. उपसर्ग आदिमें अचल रहना चाहिए र. क. पा./१०३ शीतोष्णदंशमशकपरिषहमुपसर्गमपि च मौनधराः । सामायिक प्रतिपन्ना अधिकुऊरन्नचलयोगाः 1१०३ = सामायिकको प्राप्त होनेवाले मौनधारी अचलयोग होते हुए शीत उष्ण डांस मच्छर आदिकी परीषहको और उपसर्गको भी सहन करते हैं।१०३। (चा. सा./१६/३)। सा.ध./७१ सुदृग्मूलोत्तरगुणग्रामाभ्यासविशुद्धधीः। भजस्त्रिसन्ध्यं कृच्छ्रऽपि साम्यं सामायिकीभवेत् । -जिस श्रावककी बुद्धि निरतिचार सम्यग्दर्शन, निरतिचार मूल गुण और निरतिचार उत्तर गुणों के समूहके अभ्याससे विशुद्ध है, ऐसा श्रावक पूर्वाह्न, मध्याह्न व अपराह्न इन तीनों कालों में परीषह उपसर्ग उपस्थित होने पर भी साम्य परिणामको धारण करता है, वह सामायिक प्रतिमाधारी है।। भा०४-५३ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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