Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 423
________________ सामायिक ४१६ २. सामायिक विधि निर्देश भाव मेरे भाव नहीं हैं; क्योकि मुझसे अन्य हैं। अतएव एक चिच्चमत्कार मात्र स्वरूपवाला मैं इनमें रागद्वेषादिको कैसे प्राप्त हो सकता हूँ।२६। जोवन-मरण में, लाभ-अलाभमें, संयोग-वियोगमें, मित्रशंत्र में, सुख-दुःख में इन सबमें मैं साम्यभाव धारण करता हूँ।२७॥ सम्पूर्ण प्राणियों में मेरा मैत्रीभाव हो, किसीसे भी मुझे वैर न हो। मैं सम्पूर्ण सावद्यसे निवृत्त हूँ। इस प्रकारके भावोंको धारण करके भावसामायिक पर आरूढ़ होना चाहिए ।३५॥ गो, जो./जी. प्र./३६७/७८६/१३ तच्च नामस्थापनाद्रप्रक्षेत्रकालभावभेदात्षड्विधम् । तत्र इष्टानिष्टनामसु रागद्वेषनिवृत्तिः सामायिकमित्यभिधानं वा नामसामायिकम् । मनोज्ञामनोज्ञासु स्त्रीपुरुषाद्याकाराम काष्ठलेप्यचित्रादिप्रतिमासु रागद्वेषनिवृत्ति इदं सामायिकमिति स्थाप्यमानं यत् किंचिद्वस्तु वा स्थापनासामायिकम् । नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावके भेदसे सामायिक छह प्रकारकी है। तहाँ इष्ट व अनिष्ट नामोंमें रागद्वेषको निवृत्ति अथवा 'सामायिक' ऐसा नाम कहना सो नामसामायिक है। मनोज्ञ व अमनोज्ञ स्त्रीपुरुष आदिकके आकारोंमें अथवा उनकी काष्ठ, लेप्य, चित्र आदि प्रतिमाओंमें रागद्वेषकी निवृत्ति स्थापना सामायिक है। अथवा 'यह सामायिक है' इस प्रकारसे स्थापी गयी कोई वस्तु स्थापना सामायिक है। [ काल द्रव्य व भार सामायिकके लक्षण सन्दर्भ नं. १वद हैं। मडम्ब, पट्टन, द्रोणमुख, और जनपद आदिमें राग और द्वेषका निरोध करना अथवा अपने निवासस्थानमें कषायका निरोध करना क्षेत्रसामायिक है । वसन्त आदि छःऋतुविषयक कषायका निरोध करना अर्थात किसी भी ऋतुमें इष्ट-अनिष्ट बुद्धि न करना कालसामायिक है। जिसने समस्त कषायोंका निरोध कर दिया है तथा मिथ्यात्वका वमन कर दिया है और जो नयोंमें निपुण है ऐसे पुरुषको बाधा रहित और अस्खलित जो छह द्रव्यविषयक ज्ञान होता है वह भावसामायिक है । (गो. जी./जी. प्र./३६७/७८६/१५)। भ. आ./वि./११६/२७४/पंक्ति-तत्र सामायिकं नाम चतुर्विध नामस्थापनाद्रव्यभावभेदेन ।१७।...चारित्रमोहनीयाख्यं कर्म परिप्राप्तक्षयोपशमावस्थ नोआगमद्रव्यतद्वयतिरिक्तकर्म । सामायिक नाम प्रत्ययसामायिक। नोआगमभावसामायिकं नाम सर्वसावद्ययोगनिवृत्तिपरिणामः । अयमिह गृहीतः १२४ - सामायिक चार प्रकारकी हैनामसामायिक, स्थापनासामायिक, द्रव्यसामायिक, भावसामायिक । [इन सबके लक्षण निक्षेपोंवत जानने। विशेषता यह है कि ] क्षयोपशमरूप अवस्थाको प्राप्त हुए चारित्रमोहनीय कर्मको जो कि सामायिकके प्रति कारण है वह नोआगमद्रव्य तद्वयतिरिक्त सामायिक है। सम्पूर्ण सावध योगोंसे विरक्त ऐसे आत्माके परिणामको नो आगमभावसामायिक कहते हैं। यही सामायिक प्रकृत विषयमें ग्राह्य है। अन, ध./८/१८-३४/७४२ नामस्थापनयोद्रव्यक्षेत्रयोः कालभावयोः । पृथग्निक्षिप्य विधिवत्साध्याः सामायिकादयः ॥१८॥ शुभेऽशुभे वा केनापि प्रयुक्ते नाम्नि मोहतः । स्त्रमवाग्लक्षणं पश्यन्न रतिं यामि नारतिम् ॥२१॥ यदिदं स्मरयत्यर्चा न तदप्यस्मि कि पुनः। इदं तदस्यां सुस्थति धोरसुस्थेति वा न मे ।२२। साम्यागमज्ञतहदेही तद्विपक्षौ च यादृशौ। तादृशौ स्ता परद्रव्ये को मे स्वद्रव्यवग्रहः ।२३। राजधानीति न प्रये नारण्यनीति चोद्विजे । देशो हि रम्योऽरम्यो वा नात्मरामस्य कोऽपि मे ।२४। नामूर्तत्वाद्धिमाद्यात्मा कालः किं तहि पुद्गलः । क्षयोपचर्यते मूर्तस्तस्य स्पृश्यो न जात्वहम् ॥२५॥ सर्वे वैभाविका भावा मत्तोऽन्ये तेष्वतः कथम् । चिच्चमत्कारमात्रात्मा प्रीत्यप्रीती तनोम्यहम् ॥२६॥ जीविते मरणे लाभेलाभे योगे विपर्यये । बन्धावरौ सुखे दुःखे साम्यमेवाभ्युपैम्यहम् ।२७। मैत्री मे सर्वभूतेषु वैरं मम न केन चित् । सर्वसावद्यविरतोऽस्मीति सामायिकं श्रयेत् ॥३५॥ नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन छह निक्षेपोंपर सामायिकादि षट आवश्यकोंको घटित करके व्याख्यान करना चाहिए ।१८। किसी भी शुभ या अशुभ नाममें अथवा यदि कोई मेरे विषयमें ऐसे शब्दोंका प्रयोग करे तो उनमें रति या अरति नहीं करनी चाहिए, क्योंकि शब्द मेरा स्वरूप या लक्षण नहीं है ।२। यह जो सामने वाली प्रतिमा मुझे जिस अर्हन्तादिरूपका स्मरण करा रही है, मैं उस मूर्तिरूप नहीं हूँ, क्योंकि मेरा साम्यानुभव न तो इस मूर्तिमें ठहरा हुआ है और न ही इससे विपरीत है । (यह स्थापना सामायिक है)।२२। सामायिक शास्त्रका ज्ञाता अनुपयुक्त आत्मा और उसका शरीर तथा इनसे विपक्ष (अर्थात् आगम नोआगम भाविनोआगम व तद्वयतिरिक्त आदि) जैसे कुछ भी शुभ या अशुभ है, रहें, मुझे इनसे क्या; क्योंकि ये परद्रव्य हैं। इनमें मुझे स्वद्रव्यकी तरह अभिनिवेश कैसे हो सकता है। (यह द्रव्य सामायिक है)।२३। यह राजधानी है, इसलिए मुझे इससे प्रेम हो और यह अरण्य है इसलिए मुझे इससे द्वेष हो-ऐसा' नहीं है। क्योंकि मेरा रमणीय स्थान आत्मस्वरूप है। इसलिए मुझे कोई भी बाह्यस्यान मनोज्ञ या अमनोज्ञ नहीं हो सकता। (यह क्षेवसामायिक है)।२४। काल द्रव्य तो अमूर्त है, इसलिए हेमन्तादि ऋतु ये काल नहीं हो सकते, बल्कि पुद्गलको उन-उन पर्यायों में काल का उपचार किया जाता है। मैं कभी भी उसका स्पर्य नहीं हो सकता क्योंकि मैं अमूर्त व चित्स्वरूप हूँ। ( यह कालसामायिक है। ) १२५ औदयिकादि तथा जीवन मरण आदि ये सब वैभाविक २. सामायिक विधि निर्देश १. सामायिक विधिके सात अधिकार का, अ./मू./३१२ सामाइयस्स करणे खेतं कालं च आसणं विलओ। मण-वयण-काय-सुद्धी णायव्वा हुँति सत्तेव । सामायिक करने के लिए क्षेत्र, काल, आसन, विलय, मनः शुद्धि, वचनशुद्धि और कायशुद्धि, ये सात बातें जाननी चाहिए ( और भी दे. शीर्षक नं. ३)। २. सामायिक योग्य काल का. अ./मू./३५४ पुवण्हे मज्झण्हे अवरण्हे तिहि वि णालिया-छक्को। सामाइयस्स कालो सविणय-णिस्सेस णिद्दिठो ३५४।-विनय संयुक्त गणधरदेव आदिने पूर्वाह्न, मध्याह्न और अपराह्न इन तीनों कालोंमें छह छह घटो सामायिकका काल कहा है ।३५४। (और भी दे. सामायिक/२/३ तथा ३/२)। ३. सामायिक विधि र, क. श्रा./१३६ चतुरावर्तत्रितयश्चतुःप्रणामस्थितो यथाजातः । सामायिको द्विनिषद्यास्त्रियोगशुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी १३६-जो चार दिशाओं में तीन-तीन आवर्त करता है, चार दिशाओं में चार प्रणाम करता है, कायोत्सर्ग में स्थित रहता है, अन्तरंग बहिरंग परिग्रहकी चिन्तासे परे रहता है, खड्गासन और पद्मासन इन दो आसनोंमेंसे कोई एक आसन लगाता है, मन वचन कायके व्यापारको शुद्ध रखता है और त्रिकाल (पूर्वाह्न, मध्याह्न और अपराल) बन्दना करता है वह सामायिक प्रतिमाधारी है ।१३।। (का. अ./मू./३७) (चा. सा./३७/२) वसु. श्रा./२७४-२७५ होऊण सुई चेड्य गिहम्मि सगिहे व चेइयाहिमुहो। अण्णस्थ सुइपएसे पुबमुहो उत्तरमुहो वा ।२७४। जिणवयणधम्म-चेइय-परमे छि-जिणालाण णिचंपि। जं वंदणं तियाल कीरई सामाइयं तं तु ॥२७५ स्नान आदिसे शुद्ध होकर चैत्यालयमें अथवा अपने ही घर में प्रतिमाके सम्मुख होकर, अथवा अन्य पवित्र स्थान में पूर्वमुख या उत्तर मुख होकर जिनवाणी, जिनधर्म, जिन-" बिम्ब, पंच परमेष्ठी और कृत्रिम अकृत्रिम जिनालयोंकी जो नित्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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