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सामायिक
१. सामायिक सामान्य निर्देश
सामायिकम् । - अच्छी तरह प्राप्त होना अर्थात एकान्त रूपसे आत्मामें तल्लीन हो जाना समय है। मन, वचन, कायकी क्रियाओंका अपने-अपने विषयसे हटकर आत्माके साथ तल्लीन होनेसे द्रव्य तथा अर्थ दोनोंसे आत्माके साथ एकरूप हो जाना ही समयका अभिप्राय है। समयको ही सामायिक कहते हैं। अथवा समय ही जिसका प्रयोजन है वह सामायिक है। गो.जी./जी, प्र./३६७/७८६/१० समम् एकत्वेन आत्मनि आयः आगमनं परद्रव्येभ्यो निवृत्त्य उपयोगस्य आत्मनि प्रवृत्तिः समायः, अयमह ज्ञाता द्रष्टा चेति आत्मविषयोपयोग इत्यर्थः, आत्मनः एकस्यैव शेयज्ञायकत्वसभवात् । अथवा सं समे रागद्वेषाभ्यामनुपहते मध्यस्थे आत्मनि आय: उपयोगस्य प्रवृत्तिः समायः स प्रयोजनमस्येति सामायिक। -१. 'सं' अर्थात् एकत्वपनेसे 'आय' अर्थात आगमन । अर्थात् परद्रव्योंसे निवृत्त होकर उपयोगकी आत्मामें प्रवृत्ति होना। 'यह मैं ज्ञाता द्रष्टा हूँ' ऐसा आत्मामें जो उपयोग सो सामायिक है। एक ही आत्मा स्वयं ही ज्ञेय है और स्वयं ही ज्ञाता है, इसलिए अपनेको ज्ञाता द्रष्टारूप अनुभव कर सकता है। २. अथवा 'सम' का अर्थ राग-द्वेष रहित मध्यस्थ आत्मा है। उसमें आय अर्थात उपयोगकी प्रवृत्ति सो समाय है। वह समाय ही जिसका प्रयोजन है, उसे सामायिक कहते हैं । (अन. घ/८/११/७४२)
३. सामायिक सामान्यके लक्षण १. समता मू. आ./५२११५२२,५२६ जं च समो अप्पाणं परं यमाय सबमहिलासु । अम्पियपियमाणादिसु तो समणो सो य सामाइयं १५२१॥ जो जाणइ समवायं दवाण गुणाण पज्जयाण च। सम्भावं ते सिद्धं सामाइयं उत्तम जाणे ।।२२। जो समो सबभ्रदेसु तसेसु थावरेसु य । जस्स रागो य दोसो य वियडिं ण जाणं ति दु ।५२६। =स्व व परमें राग व द्वेष रहित होना, सब स्त्रियों को माताके समान देखना, शत्रु-मित्र, मान-अपमान आदिमें सम भाव रखना, ये सब श्रमणके लक्षण हैं। उसे ही सामायिक भी जानना ।।२१। जो द्रव्यों, गुणों और पर्यायोंके सादृश्यको तथा उनके एक जगह स्वतः सिद्ध रहनेको जानता है, वह उत्तम सामायिक है ।५२२। बस स्थावररूप सर्व प्राणियों में समान परिणाम होना [अर्थात सबको सिद्ध समान शुद्ध जानना दे. सामायिक/१/१] तथा राग-द्वेषादि भावोंके कारण आत्मामें विकार उत्पन्न न होना, वही परम सामायिक है ।५२६। घ. ८/३,४१/०४/१ सत्तु-मित्त-मणि-पाहाण-सुवण्ण-मट्टियासु राग-देसाभावो समदा णाम। - शत्रु-मित्र, मणि-पाषाण और सुवर्ण-मृतिकामें राग-द्वेषके अभावको समता कहते हैं । (चा.सा./५६/१) अ. ग. श्रा./८/३१ जीवितमरणे योगे वियोगे विप्रिये प्रिये । शत्रौ मित्रे सुखे दुःखे साम्यं सामायिकं विदुः ।३॥ -जीवन व मरणमें, संयोग व वियोगमें, अप्रिय व प्रियमें, शत्रु व मित्रमें, सुख व दुःख में समभावको सामायिक कहते हैं ।३१॥ भा. पा./टी./७७/२२१/१३ सामायिक सर्वजीवेषु समत्वम् । -सर्व जीवों में समान भाव रखना सामायिक है । (विशेष दे. सामायिक/१/१)।
२. राग-द्वेषका त्याग मू. आ./५२३ रागदोसो णिरोहित्ता समदा सम्बकम्मसु । मुत्तेसु अ परिणामो सामाइयमुत्तमं जाणे ।।२३। सब कार्यों में राग-द्वेषको छोड़कर समभाव होना और द्वादशांग सूत्रोंमें श्रद्धान होना उत्तम सामायिक है।२३।
यो. सा./अ./५/४७ यत्सर्वद्रव्यसंदर्भे रागद्वेषव्यपोहनम् । आत्मतत्त्वनिविष्टस्य तत्सामायिकमुच्यते ।४७ -सर्वद्रव्योंमें रागद्वेषका अभाव तथा आत्मस्वरूपमें लीनता सामायिक कही जाती है। ( अन.ध./८/२६/७४८) .
३. आत्मस्थिरता नि. सा./५ /१४७ आवासं जइ इच्छसि अप्पसहावेसु कुण दि थिरभाव।
तेण दु सामण्णगुणं संपुण्ण होदि जीवस्स १४७ -यदि तू आवश्यकको चाहता है, तो आत्म-स्वभावमें स्थिरभाव कर, जिससे कि जीवोंको सामायिक गुण सम्पूर्ण होता है ।१४७।। रा. वा./4/२४/११/५३०/१२ चित्तस्यैकत्वेन ज्ञानेन प्रणिधान बा ।
-एक ज्ञानके द्वारा चित्तको निश्चल रखना सामायिक है। (चा. सा./५/४)। ४. सावद्ययोग निवृत्ति नि. सा./म./१२५ विरदो सब्वसावज्जो तिगुत्तो पिहिदिदिओ। तस्स
सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।१२५॥ -जो सर्व सावष्य में विरत है, जो तीन गुप्तिवाला है, और जिसने इन्द्रियोंको मन्द किया है, उसे सामायिक स्थायी है ।१२५॥ (मू.आ./५२४)। । रा. वा./६/२४/११/५३०/११ तत्र सामायिक सर्वसाबद्ययोगनिवृत्तिलक्षणं । -सर्व सावद्य योग निवृत्ति ही सामायिकका लक्षण है। (चा. सा./१५/४)। ५. संयम तप आदिके साथ एकता मू. आ./५१६, १२५ सम्मत्तणाणसंजमतवेहि जंत पसत्यसमगमण । समयंतु तं तु भणिदं तमेव सामाझ्यं जाणे ।।१६। जस्स सणि हिदो अप्पा संजमे णियमे तवे। तस्स सामायिय ठादि इदि केवलिसासणे १५२५॥ - सम्यवस्व ज्ञान संयम तप इनके द्वारा जीवकी प्रशस्त प्राप्ति अथवा उनके साथ जीवकी एकता, वह समय है। उसीको सामायिक कहते हैं ।५१६५ (अन. प.14/२०/७४५) जिसका आत्मा संयम, नियम व तपमें लीन है, उसके सामायिक तिष्ठती है ।५२॥ ६. नित्य नैमित्तिक कर्म व शास्त्र क.पा/१/१,९/८/EEL तीस वि संझासु पक्रवमाससंधिदिणेमु का
सगिच्छिदवेलासु वा मज्झंतरंगासेसत्येसु संपरायणिरोहो वा सामाइय णाम। -तीनों ही सन्ध्याओं में या पक्ष और मासके सन्धिदिनोंमें या अपने इच्छित समयमें बाह्य और अन्तरंग समस्त पदार्थो कषायका निरोध करना सामायिक है। गो. जी./जी. प्र./३६७/७८६/१२ नित्यनैमित्तिकानुष्ठानं तत्प्रतिपादक
शास्त्रं वा सामायिकमित्यर्थः। -नित्य-नैमित्तिक क्रिया विशेष तथा सामायिकका प्रतिपादक शास्त्र भी सामायिक कहलाता है।
४. द्रव्य क्षेत्रादि रूप सामायिकोंके लक्षण क. पा. १/१-१/१/१७/४ सामाइयं चउबिह, दव्वसामाइयं खेत्तसामाइयं कालसामाइयं भावसामाइयं चेदि। तत्थ सचित्तचित्तरागदोसणिरोहो दबसामाइयं णामा णयर-खेट-कव्वड-मडंव-पट्टणदोणमुह-जणवदादिसु रागदोसणिरोहो सगावासविसयसंपरायणिरोहो वा खेत्तसामाइयं णाम। छउदुविसयसपरायणिरोहो कालसामाश्य । णिरुद्धासेसकसायस्स बंतमिच्छचस्स णयणिउणस्स छदव्व विसओ नोहो बाहविवजिमो माक्सामाइयं णाम ।-द्रव्यसामायिक, क्षेत्रसामायिक, कारसामायिक और भावसामायिकके भेदसे सामायिक चार प्रकारका है। उनमेसे सचित्त और अचित्त द्रव्योंमें राग और द्वेषका निरोष करना प्रव्यसामोयिक है। ग्राम, नगर, खेट, कर्वट.
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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