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साधु
३. निश्चय साधु निर्देश
दूर रहना योग्य है। पावस्थादि भ्रष्ट मुनियों की संगति वर्जनीय है। " दे, भिक्षा/२-३ भिक्षार्थ वृत्ति करते समय गृहस्थके घरमें अभिमत स्थानसे आगे न जावे, छिद्रों मेंसे झाँककर न देखे, अत्यन्त तंग व अन्धकारयुक्त प्रदेशमें प्रवेश न करे । ब्यस्त व शोक युक्त घरमें, विवाह व यज्ञशाला आदिमें प्रवेश न करे। बहु जन संसक्त प्रदेशमें प्रवेश न करे। विधर्मी, नीच कुलीन, अति दरिद्री, तथा राजा
आदिका आहार ग्रहण न करे। दे. आहार/II/२ [ मात्रासे अधिक, पौष्टिक व गृद्धता पूर्वक गृहस्थपर
भार डालकर भोजन ग्रहण न करे।] दे. साधु/४/१ तथा ६/७ [इतने कार्य करे वह साधु सच्चा नहीं।
ब्धिवन्मुनिः।६६। नादेशं नोपदेश वा नादिकत् स मनागपि । स्वपिवर्गमार्गस्य तद्विपक्षस्य किं पुनः १६७०। वैराग्यस्य परी काष्ठामधिरूढोऽधिकप्रभः...६७१। निर्ग्रन्थोन्तर्बहिर्मोहग्रन्थेरग्रन्थको यमी।...६७। परीषहोपसर्गाधरजय्यो जितमन्मथः ।...६७३। इत्याद्यनेकधानेकैः साधुः साधुगुणैः श्रितः। नमस्य' श्रेयसेऽवश्य नेतरो विदुषां महात् ।६७४। -यह साधु कुछ नहीं बोले । हाथ पाँव आदिके इशारेसे कुछ न दर्शावे, आत्मस्थ होकर मनसे भी कुछ चिन्तवन न करे ।६६८। केवल शुद्धात्मामें लीन होता हुआ वह अन्तरंग व माह्य बाग्व्यापारसे रहित निस्तरंग समुद्र की तरह शान्त रहता है।६६६। जब वह मोक्षमागके विषय में ही किंचिद भी उपदेश या आदेश नहीं करता है, तब उससे विपरीत लौकिक मार्गके उपदेशादि कैसे कर सकता है ।६७०। वह वैराग्यकी परम पराकाष्ठाको प्राप्त होकर अधिक प्रभावशाली हो जाता है ।६७१। अन्तरंग बहिरंग मोहकी ग्रन्थिको खोलनेवाला वह यमी होता है ।६७२। परीषहों व उपसर्गोके द्वारा वह पराजित नहीं होता, और कामरूप शत्रुको जीतनेवाला होता है १६७३। इत्यादि अनेक प्रकारके गुणोंसे युक्त बह पूज्य साधु ही मोक्षकी प्राप्तिके लिए तत्त्वज्ञानियोंके द्वारा अवश्य नमस्कार किये जाने योग्य है, किन्तु उनसे रहित अन्य साधु नहीं।६७४।
३. निश्चय साधु निर्देश
१. निश्चय साधुका लक्षण प्र. सा./मू./२४१ समसत्तुबंधुवग्गो सममुहंदुक्खो पंससणिदसमो। समलोठुकंचणो पुण जावितमरणे समो समणो ।२४११ -जिसे शत्रु
और बन्धुवर्ग समान है, सुख दुःख समान है, प्रशंसा और निन्दाके प्रति जिसको समता है, जिसे लोष्ठ ( ढेला) और सुवर्ण समान है, तथा जीवन मरणके प्रति जिसको समता है, वह श्रमण है।
(मू. आ./५२१) नि. सा./मू.७५ वावारविष्पमुक्का चउबिहाराहणासयारत्ता । णिग्गंथा।
णिम्मोहा साहू एदेरिसा होति ७५॥ = काय व वचनके व्यापारसे मुक्त, चतुर्विध आराधनामें सदा रक्त, निर्ग्रन्थ और निर्मोह-ऐसे साधु होते हैं। म. आ./१००० णिस्संगो णिरार'भो भिक्रवाचरियाए सुद्धभावो। य
एगागी ज्माणरदो सव्वगुड्ढो हवे समणो ।१०००।-जो निष्परिग्रही व निरारम्भ है, भिक्षाचर्याम शुद्धभाव रखता है, एकाकी ध्यानमें लीन होता है, और सब गुणोंसे परिपूर्ण होता है वह श्रमण है ।१०००। (और भी दे. तपस्वी तथा लिंग/१/२) ध, १/१,१.१/११/१ अनन्तज्ञानादिशुद्धात्मस्वरूपं साधयन्तीति साधवः ।
-जो अनन्त ज्ञानादिस्वरूप शुद्धात्माकी साधना करते हैं उन्हें साधना कहते हैं। ध.८/३,४१/८७/४ अणतणाणदसणवीरियविरइरखइयसम्मत्तादीणं साहया साहू णाम । -अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, विरति और क्षार्थिक सम्यक्त्वादि गुणों के जो साधक हैं वे साधु कहलाते हैं। न. च. वृ./३३०-३३१.... मुहदुःखाइसमाणो झाणे लीणो हवे समणो
३३०॥...... मुक्कं दोहणं पि खलु इयरो।३३१ -सुख दुःखमें जो समान है और ध्यान में लीन है, वह श्रमण होता है। शुभ और अशुभ दोनों प्रकारके रागसे मुक्त वीतराग श्रमण है। त. सा./६/६ स्वद्रव्यं श्रद्धानस्तु बुध्यमानस्तदेव हि । तदेवोपेक्षमाणश्च निश्चयान्मुनिसत्तमः।६। जो निजात्माको ही श्रद्धानरूप व ज्ञान रूप बना लेता है और उपेक्षारूप ही जिसकी आत्माकी प्रवृत्ति हो जाती है, अर्थात जो निश्चय व अभेद रत्नत्रयकी साधना करता है वह श्रेष्ठ मुनि निश्चयावलम्बी माना जाता है।६। प्र, सा./ता.व./२५२/३४५/१६ रत्नत्रयभावनया स्वारमान साधयतीति
साधुः। -रत्नत्रयकी भावनारूपसे जो स्वात्माको साधता है वह साधु है। (प.प्र./टी /19/१४/७); (प.घ./उ./६६७)
३. साधुमें सम्यक्त्वकी प्रधानता प्र. सा/मू./गा, सत्तासंबद्धेदे सविसे से जो हिणेत्र सामण्णे। सद्दहदि ण
सो समणो तत्तो धम्मो ण संभवदिशण हवदि समणो त्ति मदो संजमतवसुत्तसंपजुत्तो वि। जदि सहहदि ण अत्ये आदपधाणे जिणखदे ।२६४ जे अजधागहिदत्या एदे तश्च त्ति णिच्छिदा समये। अच्चंतफल समिद्धं भमंति ते तो पर काल ।२७१। जो श्रमणावस्थामें इन सत्ता संयुक्त सविशेष (नव) पदार्थोंकी श्रद्धा नहीं करता वह श्रमण नहीं है उससे धर्मका उद्भव नहीं होता ।११। सूत्र, संयम और तपसे संयुक्त होनेपर भी यदि जिनोक्त आत्मप्रधान पदार्थोंका प्रदान नहीं करता तो वह श्रमण नहीं है ऐसा कहा है ।२६४। भले ही द्रव्यलिंगीके रूपमें 'जिनमत के अनुसार हो तथापि वे 'यह तत्त्व है (वस्तुस्वरूप ऐसा ही है ), इस प्रकार निश्चयपना वर्तते हुए पदार्थोंको अयथार्थ तया ग्रहण करते हैं (जैसे नहीं हैं वैसे समझते हैं) वे अत्यन्तफलसमृद्ध आगामी काल में परिभ्रमण करेंगे।२७१। र. सा./१२७ वयगुणसीलपरीसयजयं च चरियं च तब षडावसयं । झाणज्झयण सब सम्मविणा जाण भवनीय। -बिना सम्यग्दर्शनके बत, २८ मूलगुण, ८४०,००,०० उत्तरगुण, १८००० शील, २२ परीषहों का जीतना, १३ प्रकारका चारित्र, १२ प्रकार तप, षडावश्यक, ध्यान व अध्ययन ये सब संसारके बीज हैं। (और भी दे. चारित्र, तप
आदि वह-वह नाम) मो. पा./मू./१७ बहिरसंगविमुक्को णा वि मुक्को मिच्छभाव णिग्गयो। कि तस्स ठाणमउणं ण वि जाणदि अप्पसम्मभावं ।। -माह्य परिग्रहसे रहित होने पर भी मिथ्याभावसे निर्ग्रन्थ लिंग धारण करनेके कारण वह परिग्रह रहित नहीं है। उसके कायोत्सर्ग और मौन धारनेसे क्या साध्य है। प्र.सा./त. प्र./२६४ आगमज्ञोऽपि...श्रमणाभासो भवति । (दे. ऊपर
प्र. सा./मू./२६४ का अर्थ ) इतना कुछ होनेपर भी वह श्रमणाभास है। दे, कां/३/१३ [आरमाको परद्रव्योंका कर्ता देखने वाले भले ही लोकोत्तर हों अर्थात् श्रमण हों पर वे लौकिकपनेको उनलंघन नहीं.
करते।]
२. निश्चय साधुकी पहचान पं. घ./उ./६६८-६७४ नोच्याच्चायं यमी किंचिद्धस्तपादादिसंशया। न
किंचिद्दर्शयेत स्वस्थो मनसापि न चिन्तयेत् ।६६८। आस्ते स शुद्ध- मात्मानमास्तिनुवानश्च परम् । स्तिमितान्तर्बहिर्जल्पो निस्तरङ्गा
दे. लिंग/२/२ [ सम्यग्दर्शन युक्त ही नग्नरूपको निर्ग्रन्थ संज्ञा प्राप्त है।]
४. निश्चय लक्षणकी प्रधानता भ. आ. म./१३४७/१३०४ घोडगलिंडसमाणस्स तस्स अभंतरम्मि कुधिदस्स । बाहिरकरणं किं से काहिदि मगणिहूदकरणस्स ।१३४७।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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