Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 411
________________ साँधु ४०४ [आचार्य, उपाध्याय सपली कुल ग्लान संघ, साधु और मनोज्ञ इन दश भेदोंको अपेक्षा वैयावृत्य १० प्रकार की है । ] सा.भ./२/१४ का फुटनोटमाभवन्यासरचतुर्विधाः । भवन्ति मुनयः सर्वे दानमानादिकर्मसु । दान, मान आदि क्रियाओंके करने के लिए वे सब मुनि नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन निक्षेपके से चार प्रकारके हैं। १. पुलाकादिकी अपेक्षा भेद स.सू./६/२६ शकुशीत निनाका निर्मन्थाः पुजाक मकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक ये पाँच निर्ग्रन्थ हैं। (विशेष दे. वह वह नाम ) । ४. भ्रष्टाचारी साधुओं के भेद मू आ. / ५९३ सत्यो य कुसीलो संसत्तोसण्ण मिगच रित्तो य । दंसणणाचरि णिउता मंदरायेगा। ३१३ - पार्श्वस्थ, कुशीत, संसक्त, अवसन्न, और मृगचारित्र ये पॉच साधु दर्शन ज्ञान चारित्र में युक्त नहीं है और धर्मादिमें हर्ष रहित हैं इसलिए बन्दने योग्य नहीं है। (भ.आ./ / ९४६); (भ.आ./वि./२३/५४६/११); (चासा./ १४३/३ ) | २. व्यवहार साधु निर्देश १. व्यवहारावलम्बी साधुका लक्षण घ. १/१,१,१/५१ / २ पञ्च महाव्रतधरास्त्रिगुप्तिगुप्ताः अष्टादशशील सहस्रधराश्चतुरशीतिशतसहस्र गुणधराश्च साधनः जो पाँच महानतोंको धारण करते हैं. तीन गुझियोंसे सुरक्षित है. १०००० झोलके भेदोंको धारण करते हैं और ८४०००.०० उत्तरगुणों का पालन करते हैं वे साधु परमेष्ठी होते हैं । दे. संयम / १/२ । न च वृ./ ३३०-३३१ दंसणसुंद्धिविशुद्धो मूलाहगुणेहि संजुओ तय ।... ३३०| असुहेण रामरहिओ क्याड्रायेण जो हु संजुत्ता। सो इह भणिय सरागो-२३३११ दर्शन से जो निशुद्ध है तथा मूलादि गुणोंसे संयुक्त है | ३२० अशुभ रागसे रहित है, यत आदिके रागसे सयुक्त है वह सराग भ्रमण है । ३३१| = त. सा./१/५ श्रद्वानः परद्रव्यं बुध्यमानस्तदेव हि । तदेवोपेक्षमाणश्च उपमहारी स्मृतो मुनि 12 साल तत्वोंका भेदरूपसे श्रद्धान करता है, वैसे ही भेदरूपसे उसे जानता है तथा वैसे ही भेदरूपसे उसे उपेक्षित करता है अर्थात विकल्पात्मक भेद रत्नत्रयकी साधना करता है वह मुनि पारावतम्भी है || प्र. सा./त.प्र./२४६ शुभोपयोगिश्रमणानां शुद्धात्मानुरागयोग पारि 1४६|शुद्धात्माका अनुराग युक्त चारित्र शुभोपयोगी श्रमणों का लक्षण है। २. व्यवहार साधुके मूल व उत्तर गुण प्र. स. पू. /२०८-२०१] समिदिदियरोध कायमपेल मण्डा खिदिसयणमदतधोवगं ठिदिभोयणमेगभत्तं च । २० । एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता |... २०११ पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियोंका रोध, केशलोंच पद आवश्यक अलक अस्नान, भूमिशयन अदन्तथोवन खड़े खड़े भोजन, एक वार आहार, ये वास्तव में श्रमणोंके २८ मूलगुण जिनवरोंने कहे हैं।. ।२०८-२०१। (मु. आ./२-३) ( न च वृ./२२५) (पं. ध. / उ ०४५-१४६ । ब्रह्मचर्य / १/६ [ (तोन प्रकारकी अचेतन स्त्रियाँ x मन वचन व कायx कृत कारित अनुमोदना इन्द्रियार कषाय ७२० ) + (तीन Jain Education International २. व्यवहार साधु निर्देश = इस प्रकारकी चेतन स्त्रियमन वचन का कारित अनुमोदन पाँच इन्द्रियाँ चार संज्ञा सोलह कषाय - १७२८० ); १८००० ] प्रकार ये ब्रह्मचर्यको विराधनाके १८००० अंग हैं । इनके त्यागसे साधुको १८००० शील गुण कहे जाते हैं। अथवा [ मन वचन कायकी शुभ क्रिया रूप तीन योगxइन्होंकी शुभकी प्रवृत्तिरूप तीन करणचार सापच इन्द्रियपृथियो आदि दस प्रकार के जीवस धर्म - इस प्रकार साधुके १८००० शील कहे जाते हैं । ] । द. पा./टी./१/८/१८ का भावार्थ पाँच पाप, चार पाय सा भय, रति, अरति ये १३ दोष हैं + मन वचन कायकी दुष्टता ये ३+ मिथ्यात्व प्रमाद, पिशुनत्व, अज्ञान, पाँच इन्द्रियोंका निग्रह ये पाँच - इन २१ दोषोंका त्याग २१ गुण हैं ।) ये उपरोक्त २१ गुण x अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार ये चार पृथिवी आदि १०० जीवसमास १० शोल विराधना (दे. २/४) १० आलोचना दोष देना) १० धर्म - ४०००,०० उत्तरगुण होते हैं।) ३. व्यवहार साधुके १० स्थितिकल्प भ.आ./मू./४२१ आचेलक्कुछ सिय सेज्जाहररायपिंड कि रियम्मे । जेठपाम मा जोसमा ४२११ २. उद्दिष्ट भोजनका त्याग, ३ शय्याग्रह अर्थात् वसतिका बनवाने या सुधरवानेवाले आहारका त्याग, ४. राजपिंड अर्थात् अमीरों के भोजनका त्याग ५. कृतिकर्म अर्थात् साधुओं को विनय आदि करना, ६. व्रत अर्थात् जिसे व्रतका स्वरूप मालूम है उसे ही व्रत देना; ७. ज्येष्ठ अर्थात् अपने से अधिकका योग्य विनय करना, ८ प्रतिक्रमण अर्थात् नित्य लगे दोषोंका शोधन, ६ मासैकवासता अर्थात् छहों ऋतुओं में से एक मास पर्यन्त एकत्र मुनियोंका निवास और १० पद्य अर्थात् वर्षाकाल में चार मास पर्यन्त एक स्थानपर निवास - ये साधुके १० स्थिति कहे जाते हैं ( पू. आ./ १०१) । ४. अन्य कर्तव्य ! भा. पा/टी./७/२२६/११ त्रयोदशक्रिया भावय त्वं त्रिविधेन त्रिकरणशुद्रा व्यनमस्कारा, पडावश्यकानि चैत्यालयमध्ये प्रविशता निसिहो निसिद्धी निसिद्धी इति वारचयं द्वचार्यते जनमामन्दनाभक्ति कृष्णा वहिर्निर्गच्छता भव्यजीवन अमिही असिही असही इति वास्त्रयं रचा इति प्रयोदशक्रिया है भव्य एवं भावय । ... अथवा पञ्चमहावतानि पञ्चसमितयस्तिस्रो गुप्तयश्चेति त्रयोदशक्रियास्त्रयोदशविधं चारित्रं हे भव्यवरपुण्डरीकमुने! त्वं भावय । - हे भव्य, तू मन वचन व कायकी शुद्धि पूर्वक १३ क्रियाओकी भावना कर । वे १३ क्रियाएँ ये हैं - १. पंच नमस्कार, षड् आवश्यक, चैत्यालय में प्रवेश करते समय तीन बार 'निसही' शब्दका उच्चारण और चैत्यालय से बाहर निकलते समय तीन बार 'असही' शब्दका उच्चारण । ( अन ध./८/१३०/-४१ ) २. अथवा पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन पुति सैरप्रकारका चारित्र ही तेरह क्रियाएँ हैं। (दे, चारित्र / १/४ ) । संयत// [अदादिकी भक्ति ज्ञानियोंमें बारसम्म श्रमणों के प्रति वन्दन, अभ्युत्थान, अनुगमन, व वैयावृत्त्य करना, आहार व नीहार, तत्त्व विचार, धर्मोपदेश, पर्व के दिनों में उपवास, चातुर्मास योग, शिरोमति व आवर्त आदि कृतिकर्म सहित प्रतिदिन देव वन्दना आचार्य वन्दना, स्वाध्याय, रात्रियोग धारण, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान आदि, ये सब क्रियाएँ शुभोपयोगी साधुको प्रमत्त अवस्थामें होती हैं ।] दे. संयम/१/६ वीतरागी साधु स्वयं हटकर तथा अन्य साधु पक्षीसे जीवों को हटाकर उनकी रक्षा करते हैं । ] जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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