Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 417
________________ साधु ४१० ६. आचार्य, उपाध्याय व साधु णिपिवासा इहलोगे चेव जे सुपडिबद्धा। सज्झायादीसु य जे अणुट्टिदा संकिलिङ्कमदी ।१९५५॥ सव्वेसु य मूलुत्सरगुणेसु तह ते सदा अइचरता। ण लहंति खवोषसमं चरित्तमोहस्स कम्मस्स ।१९५६। एवं मूढमदीया अवंतदोसा करें ति जे कालं । ते देवदुम्भगतं मायामोसेण पावति ।१६५७। -ये पाँचों मुनि सुखस्वभावी होते हैं। इसलिए 'मेरा इनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं' यह विचारकर संघके सब कार्यसे उदासीन हो जाते हैं। सम्यग्दर्शनादि गुणों के प्रति निरुत्साही हो जाते हैं। नीति, वैद्यक, सामुद्रिक आदि पाप शास्त्रों का आदर करते हैं। इष्ट विषयोंकी आशासे बंधे हुए हैं। तीन गारवसे सदा युक्त और पन्द्रह प्रमादोंसे पूर्ण हैं ।१६५२। समिति गुप्तिको भावनाओं से दूर रहते हैं। संयमके भेदरूप जो उत्तरगुण व शील वगैरह इनसे भी दूर रहते हैं। दूसरों के कार्यों की चिन्तामें लगे रहते हैं । आत्मकल्याणके कार्योंसे कोसों दूर हैं, इसलिए इनमें रत्नत्रयकी शुद्धि नहीं रहती ।१६५३। परिग्रहमें सदा तृष्णा, अधिक मोह व अज्ञान, गृहस्थों सरीखे आरम्भ करना, शब्द रस गन्ध रूप और स्पर्श इन विषयों में आसक्ति ।१६५४। परलोकके विषयमें निस्पृह, ऐहिक कार्यों में सदा तत्पर, स्वाध्याय आदि कार्यों में मन न लगना, संक्लेश परिणाम ॥१६॥ मूल व उत्तर गुणोंमें सदा अतिचार युक्तता, चारित्रमोहका क्षयोपशम न होना 1१६५६। ये सब उन अबसन्नादि मुनियों के दोष हैं, जिन्हें नहीं हटाते हुए वे अपना सर्व आयुष्य व्यतीत कर देते हैं। जिससे कि इन मायावी मुनियों को देव दुर्गति अर्थात् नीच देवयोनिकी प्राप्ति होती है ।१६५७ ८. पावस्थादिकी संगतिका निषेध भ. आ./३३६, ३४१ पासत्थादीपणयं णिच्च वजह सबधा तुम्हे । हंदि हु गेलणदोसेण होइ पुरिसस्स तम्मयदा ।३३६। संविग्गस्सपि संसग्गीए पीदी तदो य वीसंभो। सदि वीसंभे य रदी होइ रदीए वि तम्मयदा ।३४१६ - पावस्थादि पाँच भ्रष्ट मुनियों का तुम दूरसे त्याग करो, क्योंकि उनके संसर्गसे तुम भी वैसे ही हो जाओगे 1३३६। वह ऐसे कि संसारभययुक्त मुनि भी इनका सहवास करनेसे, पहले तो प्रीतियुक्त हो जाता है और तदनन्तर उनके विषयमें मनमें विश्वास होता है, अनन्तर उनमें चित्त विश्रान्ति पाता है अर्थ त आसक्त होता है और तदनन्तर पावस्थादिमय बन जाता है ।३४॥ मोक्षस्य सदृष्टिनिं चारित्रमात्मनः । रत्नत्रयं समं तेषामपि चान्तर्बहिःस्थितम् ।६४२। ध्याता ध्यानं च ध्येयं च ज्ञाता ज्ञानं च ज्ञेयसात् । चतुर्धाराधना चापि तुल्या क्रोधादिजिष्णुता १६४३। किंवात्र बहुनोक्तेन तद्विशेषोऽवशिष्यते । विशेषाच्छेषनिःशेषो न्यायादस्त्यविशेषभाक् ।६४४। -उन आचार्यादिक तीनौका एक ही प्रयोजन है, क्रिया भी एक है, बाह्य वेष, बारह प्रकारका तप और पंच महावत भी एक हैं ।६३१। तेरह प्रकारका चारित्र, समता, मूल तथा उत्तर गुण, संयम ६४०। परीषह और उपसर्गोंका सहन, आहारादिकी विधि, चर्या, शय्या, आसन ।६४१। मोक्षमार्ग रूप आत्मके सम्यग्दर्शन ज्ञान व चारित्र-इस प्रकार ये अन्तरंग और बहिरंग रत्नत्रय ।६४२। ध्याता ध्यान व ध्येय, ज्ञाता, झंयाधीन ज्ञान, चार प्रकार आराधना तथा क्रोध आदिका जीतना ये सब समान व एक हैं।६४३। अधिक कहाँ तक कहा जाय उन तीनोंकी सब ही विषयों में समानता है ।६४४। (और भी दे. आचार्य व उपाध्यायके लक्षण), दे, देव ।[१/४-५ [रत्नत्रयकी अपेक्षा तीनोंमें कुछ भो भेद न होनेसे तीनों ही देवत्वको प्राप्त है।) दे. ध्येय/३/४ [ रत्नत्रयसे सम्पन्न होनेके कारण तीनों ही ध्येय हैं। २. तीनों एक ही आत्माकी पर्यायें हैं मो. पा./५ /१०४ अरुहा सिद्धायरिया उज्झाया साहू पंचपरमेट्ठी। ते विहु चिट्ठहि आधे तम्हा आदा हू मे सरणं। - अर्हत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँच एक आत्मामें ही चेष्टारूप हैं, इसलिए मुझको एक आत्माका ही शरण है। ३. तीनोंमें कथंचित् भेद पं.ध./उ./६३८ आचार्यः स्यादुपाध्यायः साधुश्चेति त्रिधा गतिः । स्युविशिष्टपदारूढास्त्रयोऽपि मुनिकुञ्जराः ।६३८-आचार्य, उपाध्याय और साधु इस प्रकार उस गुरुकी तीन अवस्थाएँ होती है, क्योंकि ये तीनों मुनि कुंजर आचार्य आदि विशेष-विशेष पदमें आरूढ माने जाते हैं ।६३८॥ दे. उपाध्याय/ध, १/१,१,१/पृ. ५०/१ [ संग्रह अनुग्रहको छोड़कर शेष बातों में आचार्य व उपाध्याय समान हैं।] (विशेष दे. उस उसके लक्षण।) ४. श्रेणी आदि आरोहणके समय इन उपाधियोंका त्याग पं.ध./उ./७०६-७१३ किंचास्ति यौगिकी रूढिः प्रसिद्धा परमागमे । बिना साधुपदं न स्यारकेवलोत्पत्तिरब्जसा ७०६। तत्र चोक्तमिदं सम्यक् साक्षात्सर्वार्थसाक्षिणा। क्षणमस्ति स्वतः श्रेण्यामधिरूढस्य तत्पदम् ।७१०॥ यतोऽवश्यं स सूरिर्वा पाठकः श्रेण्यनेहसि । कृरस्नचिन्तानिरोधात्मलक्षणं ध्यानमाश्रयेत् १७११। ततः सिद्धमनायासात्तत्पदत्वं तयोरिह । नूनं वाह्योपयोगस्य नावकाशोऽस्ति यत्र तत ७१२। न पुनश्चरणं तत्र छेदोपस्थापना वरम् । प्रागादाय क्षणं पश्चात्सूरिः साधुनदं श्रयेत ७१३३ - परमागममें यह अन्वर्थ रूढि प्रसिद्ध है कि वास्तवमें साधु पदके ग्रहण किये बिना किसीको भी केवलज्ञानकी उत्पत्ति नहीं होती है 1७०६। तथा वहाँ प्रत्यक्ष ज्ञाता सर्वज्ञ देवने यह अच्छी तरह कहा है कि श्रेणी पर अधिरूढ आचार्य आदिको क्षण भरमें वह साधु पद स्वयं प्राप्त हो जाता है ।७१० क्योंकि, वह आचार्य और उपाध्याय श्रेणी चढ़नेके कालमें सम्पूर्ण चिन्ताओंके निरोधरूप ध्यान को अवश्य ही धारण करते हैं 1७११॥ इसलिए सिद्ध होता है कि श्रेणी कालमें उनको अनायास ही वह साधुपद प्राप्त हो जाता है, क्योंकि वहाँपर निश्चयसे बाह्य उपयोगके ६. आचार्य, उपाध्याय व साधु १. चारित्रादिकी अपेक्षा तीनों एक हैं प्र. सा./त. प्र./२ ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारयुक्तरवात्संभावितपरमशुद्धोपयोगभूमिकानाचार्योपाध्यायसाधुत्व विशिष्टात् श्रमणाश्च प्रणमामि । -ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचारयुक्त होनेसे जिन्होंने शुद्धोपयोग भूमिकाको प्राप्त किया है, ऐसे श्रमणोंको-जो कि आचार्यत्र उपाध्यायत्व और साधुत्वरूप विशेषोंसे विशिष्ट हैं, उन्हें-नमस्कार करता हूँ। प्र. सा./ता. व./२/४/२० श्रमणशब्दवाच्यानाचार्योपाध्यायसाधुश्च । - आचार्य, उपाध्याय व साधु ये तीनों श्रमण शब्दके वाच्य हैं। (और भी दे. मन्त्र/२/५)। पं.ध./उ/६३६-६४४ एको हेतुः क्रियाप्येका वेषश्चैको बहिः समः। तपो द्वादशधा चैक व्रतं चैकं च पञ्चधा ।६३६॥ त्रयोदविधं चैकं चारित्र समतैकधा । मूलोत्तरगुगैश्चैके संयमोऽप्येकधा मतः ६४० परोषहोपसर्गाणां सहन च समं स्मृतम् । आहारादिविधिश्चै कश्च स्थानासनादयः ६४१॥ मार्गो जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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