________________
साधु
२. पुलाकादिमें संयम लब्धिस्थान
(स.सि./६/४७/४६२/१२); ( रा. वा./१/४७/४/६३८/१६): ( चा. सा./९०६ / ९) संकेत- असं असंख्यात
स्थान
प्र. असं. स्थान
द्वि. असं स्थान
तृ. असं स्थान
चतु असं स्थान
पंच. असं. स्थान
षष्ठ. असं, स्थान
अन्तिम १ स्थान
स्वामि
ताक व कषाय कुशीत ।
केवल कषाय कुशील |
कषाय व प्रतिसेवना कुशीत और मकुश कषाय व प्रतिसेवना कुशील ।
केवल कषाय कुशील । निर्मन्थों के अकषाय स्थान । स्नातकों का अकषाय स्थान ।
२. पुलाक आदि पाँचों निग्ध है
स.सि./१/४६/४६०/१२ - एते च निर्यथाः । चारित्रपरिणामस्य
कप मे सत्यपि नेगमसंग्रहादिनयापेक्षया सर्वेऽपि ते निर्मन्या इत्युच्यन्तेये पाँचों ही निर्बन्ध होते हैं। इसमें चारित्ररूप परिणामोंको न्यूनाधिकता के कारण भेद होनेपर भी मेगम और संग्रह आदि (व्यार्थिक ) नयाँकी अपेक्षा वे सब निर्ग्रन्य कहलाते हैं। (पा. सा/१०९/१ )
४. पुलाकादि के
निर्ग्रन्थ होने सम्बन्धी शंका
समाधान
Jain Education International
+
रा. बा/६/०६/६-१२/६३०/१- यथा गृहस्थश्चारित्र मेरा प्रियव्ययदेशभाग् न भवति तथा पुलाकादीनामपि प्रकृष्टाप्रकृष्टमध्यचारित्रमेनोपपद्यते। ६न दोषः कृतः यथा जात्या चारित्राध्ययनादिभेदेन भिन्नेषु ब्राह्मणशब्दोऽवशिष्ट वर्तते तथा निर्धन्यशब्दोऽपि इति [७] विषयद्यपि निश्चयनयापेक्षया प्रवर्तते तथापि संग्रहव्यवहारनय- विवक्षावशात् सकलविशेषसंग्रहो भवति । किंच दृष्टिरूपसामान्यात् || भग्नवते वृचातिप्रसंग इति चेन्न रूपाभावाद ॥१०॥ अन्यस्मिन् पेऽतिप्रसंग इति चैव नः दृष्टमभावात् ॥ १११... किमर्थ: पुढाका दिव्यपदेशः ... वारिजगुणस्योत्तरोत्तरप्रकर्षे वृतिविम्यापनार्थः कायुपदेशः क्रियते ।१२ प्रश्न जैसे गृहस्थ चारित्रभेद होनेके कारण निर्ग्रन्थ नहीं कहा जाता, वैसे ही पुलाकादि को भी उत्कृष्ट मध्यम जघन्य आदि चारित्र भेद होनेपर भी निर्ग्रन्थ नहीं कहना चाहिये ! - उत्तर १- जैसे चारित्र व अध्ययन आदि का भेद होनेपर भी सभी ब्राह्मणोंमें जाति की दृष्टिसे ब्राह्मण शब्दका प्रयोग समानरूपसे होता है, उसी प्रकार पूजाक आदिमें भी निर्मन्थ शब्दका प्रयोग हो जाता है । २- यद्यपि निश्चय नय से गुणहीनों में निर्ग्रन्थ शब्द नहीं प्रवर्तता परन्तु संग्रह और उपहार नमकी अपेक्षा वहाँ भी उस शब्दका प्रयोग सर्वसंग्रहार्थ कर लिया जाता है। ३- सम्यग्दर्शन और नग्न रूप की अपेक्षा भी वे सब समान हैं । प्रश्न- यदि व्रतोंका भंग हो जानेपर भी आप इनमें निर्ग्रन्थ शब्द की वृति मानते हैं तब तो गृहस्थोंमें भी इसकी वृत्ति होनेका प्रसंग प्राप्त होता है ? उत्तर - नहीं होता, क्योंकि वे नग्नरूपधारी नहीं हैं। प्रश्न - तत्र जिस किसी भी नग्नरूपधारी मिथ्यादृष्टिमें उसकी वृद्धिका प्रसंग मात्र हो जायगा उत्तर-नहीं, क्योंकि
मा० ४-५२
—
४०९
५. पुलाक व पार्श्वस्थ आदि साधु
उनमें सम्यग्दर्शन नहीं पाया जाता [ और सम्यग्दर्शन युक्त हो नग्न रूपको निर्ग्रन्थ संज्ञा प्राप्त है- ( दे, लिंग /२/१)] प्रश्नफिर उसमें पुलाक आदि भेदोंका व्यपदेश ही क्यों किया उत्तर- पारिगुणका क्रमिक विकास और कम दिलाने लिए इनकी चर्चा की है।
५. निर्ब्रन्थ होते हुए भी इनमें कृष्ण लेश्या क्योंस. सि/१/४७/४६२/ फुटनोट में अन्य पुस्तक से उपलब्ध पाठ - "कृष्ण. लेश्वास्त्रियं तयोः कथमिति चेदुपते तयोरुपकरणास विभवादार्तध्यानं कदाचित्संभवति वार्तध्यानेन च कृष्णादिश्यातिप संभवतीति । प्रश्न- मकुश और प्रतिसेवना कुशील ( यदि निर्ग्रन्थ हैं तो ) इन दोनोंके कृष्ण नील कापोत ये तीन लेश्याएँ कैसे हो सकती हैं उत्तर- उनमें उपकरणों के प्रति आसक्ति भावकी संभावना होनेसे कदाचित आध्यान सम्भव है और आर्त ध्यान में कृष्णादि तीनों लेश्याओं का होना सम्भव है (./१/४०/६१६/२९) त. वृ/६/४०/३१६/२३ मतान्तरम् परिग्रहसंस्काराकाङ्क्षायां स्वमेयोतरगुण विराधनायामार्त संभवादार्ताविनाभावि च लेश्याषट्कम् । पुलाकस्यार्त कारणाभावान्न पह लेश्याः । दूसरे मतकी अपेक्षा परिग्रह और शरीर संस्कारकी आकांक्षामें स्वयमेव उत्तर गुणों की विराधना होती है, जिससे कि आध्यान सम्भव है और उसके होनेपर उसकी अविनाभावी यहाँ देश्याएं भी सम्भव हैं। पुलाक साधु के आर्त के उन कारणों का अभाव होनेसे यह लेश्या नहीं है। ६. पार्श्वस्थादि मुनि भ्रष्टाचारी हैं
भ. बा // ११०६-१३९२- दूरे सासस्य डियसो उपश्रेण पलादि । सेवदि कुसील पडिसेवणाओ जो सुत्तदिट्ठाओ | १३०६. इं दियकसायगुरुगतणेण चरणं तणं व पस्संतो । णिधसो भवित्ता यदि कुसीसेवाओ | १२०७] सो होदि साधु सस्था जिग्दो जो हु भये जाणंदी उत्तम तो
| १३१० इय एदे पंचविधा जिणेहिं सबणा दुगु च्छिदा सुत्ते । इंदियकसाय गुरुयत्तणेण णिच्चपि पडिकुद्धा | १३१५१ = भ्रष्टमुनि दूरसे ही साघुसार्थका त्याग करके उन्मार्ग पलायन करता है तथा आगम में कहे हुए कुशील नामक मुनिके दोषोंका आचरण करते हैं ११०६ इन्द्रियों तथा कषायके तीन परिणामों में सरपर हुए
चारित्रको समझते हुए निर्लज्ज होकर कुशीलका सेवन करते हैं । १३०७॥ जो मुनि साधुसार्थका त्यागकर स्वतंत्र हुआ है, जो स्वेच्छाचारी बनकर आगमविरुद्ध और पूर्वाचार्योंके द्वारा न कहे हुए आचारों की कल्पना करता है, उसे स्वच्छन्द नामका भ्रष्ट मुनि समझना चाहिए । १३१०। इन पाँच तरह के भ्रष्ट मुनियोंकी जिनेश्वरोंने आगम में निन्दा की है। ये पाँचों इन्द्रिय व कषायके गुरुत्व से सिद्धान्तानुसार आचरण करनेवाले मुनियोंके प्रतिपक्षी
सा./१४४ / २ एते च श्रमणाजिनधर्ममाझा जिनधर्ममाा है (भा. पा/टी./१४/११०/२३) ये प्रायश्चित्त / ४/२/- हम पाँचों मुनियोंको मृतच्छेद नामका प्रायश्चिन्त दिया जाता है । ]
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
1
७. पाँचोंके भ्रष्टाचारकी प्ररूपणा
भ.आ./मू./१६५२-१९५७ सुहसादा किंमज्झा गुणसायी पावसुत्तपडिसेवी । विसयासापविद्धा गारवगुरुया पमाइला | १६५२॥ समिदीस यगुती व अभाविदा सोसजन गुणे परती पसचा जणा हिश भावशुद्धी [१६५३१ गंधायिता महमोहा समससेवणासेवी । सहरसरूत्रगंधे फासेसु य मुच्छिदा घडिदा । १६५४ | पर लोग
For Private & Personal Use Only
ये पाँचों पुनि
www.jainelibrary.org