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साधु
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४. अयथार्थ साधु सामान्य निर्देश
- बगुलेको चेष्टाके समान, अन्तरंगमें कषायसे मलिन साधु की बाह्य क्रिया किस कामकी ! वह तो घोड़ेकी लीदके समान है, जो ऊपरसे
चिकनी अन्दरसे दुर्गन्धी युक्त होती है। नि. सा././१२४ कि काहदि बनवासो कायकलेसो विचित्तउववासी। अझयणमौणपहुदी समदारहियस्स समणस्स ।१२४। - वनवास, कायक्लेशरूप अनेकप्रकारके उपवास, अध्ययन, मौन आदि, ये सब
समता रहित श्रमणको क्या कर सकते हैं। मू.आ./६८२. अकसायं तु चारित्तं कसायवसिओ असंजदो होदि । उवसमदि जम्हि काले तकाले संजदो होदि १८२१ - अकषायपनेको चारित्र कहते हैं। कषायके वश होनेवाला असंयत है। जिस काल में कषाय नहीं करता उसी काल में संयत है। (प.प्र./मू./२/४१) सू. पा./मू-/१५ अह पुण अप्पा णिच्छदि धम्माइ करेइ णिरवसेसाई। तह
वि ण पाव दि सिद्धिं संसारस्थो पुण भणिदो ।१५॥ सर्व धर्मोंको निरवशेषरूपसे पालता हुआ भी जो आत्माकी इच्छा नहीं करता वह सिद्धिको प्राप्त नहीं होता बल्कि संसारमें ही भ्रमण करता है ।१५॥ भा. पा. १२२ जे के वि दब्बसमणा इंदियसुहाउला ण छिदं ति। छिदंति भावसमणा झाण कुठारे हिं भवरुवरखं ।१२२। - इन्द्रिय विषयों के प्रति व्याकुल रहनेवाले द्रव्य श्रमण भववृक्षका छेदन नहीं करते, ध्यानरूपी कुठारके द्वारा भाव श्रमण ही भववृक्षका छेदन करते हैं। (दे, चारित्र./४/३ तथा लिंग/२/२) दे, चारित्र/४/३ [ मोहादिसे रहित व उपशम भाव सहित किये गये ही व्रत, समिति, गुप्ति, तप, परीषह जय आदि मूलगुण व उत्तरगुण
संसारछेदके कारण हैं, अन्यथा नहीं।] दे. ध्यान /२/१० [ महावत, समिति, गुप्ति, प्रत्याख्यान, प्रायश्चित्त
आदि सब एक आत्मध्यानमें अन्तर्भूत हैं । ] दे. अनुभव // [निश्चय धर्मध्यान मुनिको ही होता है गृहस्थको
नहीं।] प्र. सा/त.प्र/गा. एक एव हि स्वद्रव्यप्रतिबन्ध उपयोगमार्जकत्वेन माजि
तोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य परिपूर्णतायतनं, तस्माद्भावादेव परिपूर्णश्रामण्यम् ।२१४। न चै काग्रयमन्तरेण श्रामण्यं सिद्धयेत् ।२३। एक स्वद्रव्य-प्रतिबन्ध हो, उपयोगको शुद्ध करनेवाला होनेसे शुद्ध उपयोगरूप श्रामण्यकी पूर्णताका आयतन है, क्योंकि उसके सदभावसे परिपूर्ण श्रामण्य होता है ।२१४। एकाग्रताके बिना श्रामण्य सिद्ध नहीं होता ॥२३॥
प्र. सा/त.प्र/२४५ ये खलु श्रामण्यपरिणति प्रतिज्ञायापि जीवितकषायकणतया समस्तपरद्रव्यनिवृत्तिप्रवृत्तिप्रवृत्त सुविशुद्भदृशिज्ञप्तिस्वभावात्मतत्त्ववृत्तिरूपा शुद्धोपयोगभूमिकामधिरोढुं न क्षमन्ते ते तदुपकण्ठनिविष्टाः कषायकुण्ठीकृतशक्तयो नितान्तमुत्कण्ठुलमनस: श्रमणा: किं भवेयुर्न वेत्यत्राभिधीयते। 'धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो। पावदि णियाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं इति स्वयमेव निरूपितत्वादस्ति तावच्छ भोपयोगस्य धर्मेण सहकार्थसमवायः । ततः शुभोपयोगिनोऽपि धर्मसभावाभवेयुः श्रमणाः किंतु तेषां शुद्रोपयोगिभिः समं समकाष्ठत्वं न भवेत, यतः शुद्धोपयोगिनो निरस्तसमस्तकषायत्वादनासवा एव । इमे पुनरनवकीर्ण कषायकणत्वात्सालवा एव । प्रश्न-जो वास्तव में श्रामण्यपरिणतिकी प्रतिज्ञा करके भी, कषायकणके जीवित होने से समस्त परद्रव्यसे निवृत्तिसे प्रवर्त्तमान जो सुविशुद्ध दर्शनज्ञान स्वभाव आत्मतत्वमें परिणतिरूप शुद्धोपयोग भूमिका उसमें आरोहण करनेको असमर्थ हैं; वे (शुभोपयोगी ) जीव-जो कि शुद्रोपयोगभूमिकाके उपकण्ठ (तलहटीमें) निवास कर रहे हैं, और कषायने जिनकी शक्ति कुण्ठित की है, तथा जो अत्यन्त उत्कण्ठित मनवाले हैं, वे श्रमण हैं या नहीं। ? उत्तर(आचार्यने इसी ग्रन्थकी ११वीं गाथामें) स्वयं ऐसा कहा है कि धर्मसे परिणमित स्वरूपवाला आत्मा यदि शुद्धोपयोगमें युक्त हो तो मोक्ष सुखको प्राप्त करता है, और यदि शुभोपयोगवाला हो तो स्वर्ग सुखको प्राप्त करता है ।११। इसलिए शुभोपयोगका धर्म के साथ एकार्थ समवाय है । इसलिए शुभोपयोगी भी उनके धर्मका सद्भाव होनेसे श्रमण है। किन्तु वे शुद्धोपयोगियोंके साथ समान कोटिके नहीं है। क्योंकि शुद्धोपयोगी समस्त कषायोंके निरस्त किया होनेसे निरासप ही हैं, और ये शुभोपयोगी तो कषायकणके विनष्ट न होनेसे
सासव ही हैं। प्रसा/त.प्र/२५२ यदा हि समधिगतशुद्धात्मवृत्तेः श्रमणस्य तत्प्रच्या
वनहेतोः कस्याप्युपसर्गस्योपनिपातः स्यात् स शुभोपयोगिनः स्वशक्त्या प्रतिचिकीर्षा प्रवृत्तिकालः। इतरस्तु स्वयं शुद्धारमवृत्त समधिगमनाय केवल निवृत्तिकाल एव । जब शुद्धात्म परिणतिको प्राप्त श्रमणको, उससे च्युत करनेवाले कारण-कोई उपसर्ग आ जाय, तब वह काल, शुद्धोपयोगीको अपनी शक्तिके अनुसार प्रतिकार करनेकी इच्छारूपप्रवृत्तिकाल है। और उसके अतिरिक्त का काल अपनी शुद्धात्मपरिणतिकी प्राप्तिके लिए केवल निवृत्तिका काल है। ४. अयथार्थ साधु सामान्य निर्देश
१. अयथार्थ साधुकी पहचान भ. आ/मु२६०-२६३ एसा गणधरमेरा आयारस्थाण वणिया मुत्ते। लोगसुहागुरदाण अप्पच्छंदो जहिच्छए ।२६० सीदावेह विहार सुहसीलगुणेहिंजो अबुद्धीओ। सो णवरि लिंगधारी संजमसारेण णिस्सारो ।२६१। पिंडं उवधि सेजामविसोधिय जो खु भुंजमाणो हु। मूलट्ठाण पत्तो बालोत्तिय णो समणबालो ।२६२। कुलगामणयररज्ज पयहिय तेसु कुणइ दुममत्ति जो। सो णवरि लिंगधारी संजमसारेण णिरसारो।२६३. जो लोकोंका अनुसरण करते हैं और सुखकी इच्छा करते हैं उनका आचरण मर्यादा स्वरूप माना नहीं जाता है। उनमें अनुरक्त साधु स्वेच्छासे प्रवर्तते हैं ऐसा समझना चाहिए ।२६०। यथेष्ट आहारादि सुखोंमें तल्लीन होकर जो मूर्ख मुनि रत्नत्रयमें अपनी प्रवृत्ति शिथिल करता है वह द्रव्य लिंगी है ऐसा समझना चाहिए, क्योंकि, वह इन्द्रिय संयम और प्राणिसंयमसे निःसार है।२६१ उद्गमादि दोषोंसे युक्त आहार, उपकरण, वसतिका, इनका जो साधु ग्रहण करता है। जिसको प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयम है हो नहीं, वह साधु मूलस्थान-प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है (दे.
५. निश्चय व्यवहार साधुका समन्वय र. सा/११,६१ दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा।
झाणाझयणं मुक्खं जइधम्म ण तं विणा तहा सो वि।११॥ तच्चवियारणसीलो मोक्खपहाराणसहावजुदो। अणवरयं धम्मकहापसंगादो होइ मुणिराओ ।। =दान व पूजा ये श्रावकके मुख्य धर्म हैं। इनके बिना श्रावक नहीं होता। परन्तु साधुओंको ध्यान व अध्ययन प्रधान हैं। इनके बिना यतिधर्म नहीं होता।१श जो मुनिराज सदा तत्त्वविचारमें लीन रहते हैं, मोक्षमार्ग ( रत्नत्रय) का आराधन करना जिनका स्वभाव है और जो निरन्तर धर्मकथामें लीन रहते हैं अर्थात यथा अवकाश रत्नत्रयकी आराधना व धर्मोपदेशादि रूप दोनों प्रकारकी क्रियाएँ करते हैं वे यथार्थ मुनि
हैं ।। प्र. सा/मू/२१४ चरदि णिबद्रो णिच्चं समणो णाणम्मि देसणमुहम्मि । पयदो मूलगुणेसु य जो सो पडिपुण्णसामण्णो । - जो श्रमण ( अन्तरंग में तो) सदा ज्ञान व दर्शन आदिमें प्रतिबद्ध रहता है और (बाह्यमें ) मूलगुणोंमे प्रयत्नशील विचरण करता है, वह परिपूर्ण श्रामण्यवान है ।२१४।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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