Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 412
________________ साधु ५. मूलगुणोंके मूल्यपर उत्तरगुणोंकी रक्षा योग्य नहीं पं. वि. / १/४० मुक्त्वा मूलगुणान् यतेर्विदधतः शेषेषु यत्नं परं दण्डो मूलहरो भवत्यविरत' पूजादिकं वाञ्छतः । एकं प्राप्तमरेः प्रहारमतुलं हिला शिरश्छेदकं रक्षतिकोटिण्डनकर बोयो र बुद्धि मात्] [४०] लोंको छोड़कर केवल शेष उत्तरगुणों के परिपालनमें ही प्रयत्न करनेवाले तथा निरन्तर पूजा आदिकी इच्छा रखनेवाले साधुका यह प्रयत्न मूलघातक होगा। कारण कि उत्तरगुणों में दृढ़ता उन मूलगुणोंके निमित्तसे ही प्राप्त होती है। इसीलिए यह उसका प्रयत्न इस प्रकारका है जिस प्रकार कि युद्धमें कोई मूर्ख सुभट अपने शिरका छेदन करनेवाले शत्रुके अनुपम प्रहारकी परवाह न करके केवल अंगुली अग्रभागको खण्डित करनेवाले प्रहारसे ही अपनी रक्षा करनेका प्रयत्न करता है |४०| ४०५ ६. मूलगुणोंका अखण्ड पालन आवश्यक है। पं.प.व./०१३-०४४ यतेनाश्चाष्टाविंशतिर्मूलयतः। नात्राप्यन्यतमेनोना नातिरिक्ताः कदाचन । ०४३। सर्वे रेभिः समस्तैश्व सिद्ध यावन्मुनित्रतम् । न व्यस्त व्यस्तमात्रं तु यावदं शनयादपि । ७४४ | -वृक्षकी जड़के समान मुनिके २८ गुण होते हैं। किसी भी समय मुनियों ने न एक कम होता है, ने एक अधिक ७४३ सम्पूर्ण मुनिमत इन समस्त जों ही सिद्ध होता है, किन्तु केवल अंशको ही विषय करनेवाले किसी एक नयकी अपेक्षासे भी असमस्त मूलगुणोंके द्वारा एक देशरूप मुनित्रत सिद्ध नहीं होता । ७४४ | ७. शरीर संस्कारका कड़ा निषेध सू.आ./हबंधा विण्नेहा अप्पको सरीरम्मि ण करंति किंचि साहू परिमं ठप्पं सरोरम्मि ।८३६ | मुहणायणढोणा संचारिमपसरीरसंठावर्ण |३७|धूषणमण विरेयण अंजण अभंगलेवणं चेव । णत्युयवfreकम्मं सिखेज् अप्पणी सव्वं : ८३८ पुत्र स्त्री आदिमें जिन्होंने प्रेमरूपी बन्धन काट दिया है और जो अपने शरीर में भी ममता रहित हैं, ऐसे साधु शरीरमें कुछ भी संस्कार नहीं करते हैं । ८३६ । मुख नेत्र और दाँतों का धोना शोधना पखारना, उबटन करना, पैर धोना, अंगमर्दन करना, मुट्ठीसे शरीरका ताइन करना, काठके यन्त्र से शरीरका पीड़ना, ये सब शरीरके संस्कार हैं |३७| धूपसे शरीरका संस्कार करना, कण्ठशुद्धिके लिए वमन करना, औषध आदिसे दस्त लेना, अंजन लगाना, सुगन्ध तेल मर्दन करना, चन्दन, कस्तुरीका लेप करना, रालाई बसी आदि नासिका व वस्तिकर्म (इनेमा) करना नसों से लोहीका निकालना ये सब संस्कार अपने शरीरमें साधुजन नहीं करते |३८| ८. साधुके लिए कुछ निषिद्ध कार्य मू. आ./गा. पिंडोवधिसेज्जाओ अविसोधिय जो य भुंजदे समणो । मूलट्ठाणं पत्तो भुवणेसु हवे समणपोल्लो | ११६ । किं तस्स ठाणमोर्ण कि काइदि अन्भवगासमादायो मेतिविहूको समणो सिम्झदिन सिद्धि | २४| टोचतो मंदो तह साहू पुमंसपि वीगारो दुरासओ होदि सो समणो १६५॥ दर्भ परपरिवाद पिसुणत्तण पावसुत्त पडिसेवं । चिरपत्रइदपि मुणी बाजु ण से विज्न जो मुनि आहार, उपकरण, खावास इनको न सोधकर सेवन करता है वह मुनि गृहस्थपनेको प्राप्त होता है और लोक युनियनेसे होन कहलाता है । ६१६। उस सुनिके कायोत्सर्ग मौन और अभ्रावकाश योग, आतापन योग क्या कर Jain Education International २. व्यवहार साधु निर्देश ण सकता है। जो साधु मैत्री भाव रहित है वह मोक्षका चाहनेवाला होनेपर भी मोक्षको नहीं पा सकता । ६२४| जो अत्यन्त क्रोधी हो, चंचल स्वभाववाला हो, चारित्रमें आलसी पीधे दोष कहनेवाला विशुम हो, गुरुता कपाय बहुत रखता हो ऐसा सानु सेवने योग्य नहीं । ६५५ । जो ठगनेवाला हो, दूसरोंको पीड़ा देनेवाला हो, झूठे दोष को ग्रहण करनेवाला हो, मारण आदि मन्यशास्त्र अथवा हिसापोषक शास्त्रोंका सेवनेवाला हो, आरम्भ सहित हो, ऐसे बहुत काल से भी दीक्षित मुनिको सदाचरणी नहीं सेवे ॥१५७॥ रसा / १०० का विप्पमुस्को आहाफम्मानिरहिओ पाणी ॥१००॥ -यतीश्वर विक्या करनेसे युक्त तथा आधाकर्मादि सहित चर्यात रहित है। निष. कथा / ७ तथा आहार/11/५)। भा.पा./मू./६६ अवसान भागणेण य किं ते नगे पायमतिणेण । पेणहासमा रमायाले सयपेण ॥ ६६- पैशुन्य, हास्य, मसर माया आदिकी बहुलतायुक्त अथवा उसके नरमपनेसे क्या साध्य है । वह तो अपयशका भाजन है | ६ | लि.पा./मू./१२०दि गायदि तानं माय बापदि लिंगरूपेण सो पायमोहिमदी तिरिमखजोगी सो समय 12 वा आ विरूपं बहुमानगविवओ लिंगी वयदि गरयं पाओ करमाणो लिंगवेण |६| कंदप्पाइय वट्टछ करमाणी भोयणेसु रसगिद्धि । मायी लिंग वियाई तिरिक्खजोणी ण सो समणो । १२ उपदि पदि धावदि पुढवीओ खणदि लिंगरूवेण । इरियावह धारतो तिरिक्खजोणी ण सो समणो । १५३ रागो करेदि णिच्चं महिलावरगं परं व से इंसणणाणविहीनो विक्सिजोणी न सो समणो हि हि सासम्मि महदे बहुसो आयार विषयहीणो तिरिक्खोणी ण सो समणो ११८ | दंसणणाणचरिते महिलावरगम्मि देहि बीस हो । पात्थ विहु जियट्ठो भावविणट्ठो ण सो समणो | २० | = जो साधुका लिंग ग्रहण करके नृत्य करता है, गाता है, बाजा बजाता है, || बहु मानसे गर्वित होकर निरन्तर कलह व वाद करता है ( दे. वाद / ७ ); द्यूतक्रीड़ा करता है । ६ । कन्दर्पादि भावनाओं में वर्तता है ( दे. भावना / १/३) तथा भोजनमें रसगृद्धि करता है (दे. आहार / II / २); मायाचारो व व्यभिचारका सेवन करता है (दे. १) १२ ईर्याथ सोधे बिना दौड़ते हुए अथवा उछलते हुए चलता है, गिर पड़ता है और फिर उठकर दौड़ता है |१२| महिला वर्गने निश्वराम करता है, और दूसरोंमें दोष निकालता है |१| गृहस्थों व शिष्योंपर स्नेह रखता है ।११ स्त्रियों पर विश्वास करके उनको दर्शन ज्ञान चारित्र प्रदान करता है, मह तिर्यग्योनि है, नरकका पात्र है, भाबोंसे विनष्ट हुआ यह पार्श्वस्थ है साधु नहीं |२०| पं. ध. /उ. / ६५७ यद्वा मोहात् प्रमादाद्वा कुर्याद् यो लौकिकी क्रियाम् । तावत्कालं स नाचार्योऽप्यस्ति चान्तव ताच्च्युतः । जो मोहमे अथवा प्रमादसे जितने काल तक लौकिक क्रिया करता रहता है, उतने काल तक वह आचार्य नहीं है और अन्तरंग में जसो च्युरा भी है। देवा आदि शुभक्रियाएँ करते हुए पट् कायके tant बाधा नहीं पहुँचानी चाहिए ) । दे, विहार / १/१ [ स्वच्छन्द व एकल विहार करना इस काल में fire) दे धर्म / ६ / ० [ अधिक शुभोपयोग क्योंकृित्यादि शुभ कार्य को गौण] दे, मन्त्र / १ / ३-४ [ मन्त्र तन्त्र, ज्योतिष, वैद्यक, वशीकरण, उच्चाटन आदि करना, मन्त्र सिद्धि, शस्त्र अंजन सर्प आदिकी सिद्धि करना तथा आजीविका करना साहुके लिए बर्जित है। ] संगतिदुर्जन, सौकिक जन, तरुण जन, स्त्री 1 ची मपुंसक पशु आदिकी संगति करना निषिद्ध है । आर्थिकासे भी सात हाथ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only वर्तन करना साधुको योग्य नहीं गृहस्थों को प्रधान हैं और साधुओं www.jainelibrary.org

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