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सल्लेखना
६. मृत शरीरका विसर्जन व फलविचार
१६५७ जिहापर आनेके समय ही आहार मुखदायक प्रतीत होता है, पीछे तो दुःखदायक ही है ।१६६०। वह मुख अत्यन्त क्षणस्थायी है।१६६२। तलवारकी धार एक भवमें ही नाशका कारण है पर अयोग्य आहार सैकड़ों भवों में हानिकारक है ।१६६६। अब तू इस शरीरकी ममताको छोड़।१६६७। निःसंगत्वकी भावनासे अब इस मोहको क्षीण कर ।१६७१। मरण समय संक्लेश परिणाम होनेपर ये संस्तर आदि बाह्य कारण तेरी सल्लेखनामें निमित्त न हो सकेंगे १६७२। (दे. सल्लेखना/१/७)। यद्यपि अब यह श्रम तुझे दुष्कर प्रतीत होता है परन्तु यह स्वर्ग व मोक्षका कारण है, इसलिए हे क्षपक ! इसे तू मत छोड़ ।१६७। जैसे अभेद्य कवच धारण करके योद्धा रणमें शत्रुको जीत लेता है, वैसे ही इस उपदेशरूपी कवचसे युक्त होकर क्षपक परीषहोंको जीत लेता है।१६८१-१६५२।
११. यथावसर उपदेश देते हैं १. सामान्य निर्देश दे. उपदेश/३/४ (आक्षेपिणी, संवेजनी. और निजनी ये तीन कथाएँ क्षपकको सुनाने योग्य हैं। पर विक्षेपणी कथा नहीं। (भ.आ./मू./
६५५, १६०८). भ. आ./मू./गा. सं० का भावार्थ-[हे क्षपक ! तुम सुख-स्वभावका त्याग करके चारित्रको धारण करो ५२२। इन्द्रिय व कषायोंको जीतो।२३ हे क्षपक !तू मिथ्यात्वका वमन कर सम्यग्दर्शन, पचपरमेष्ठी की भक्ति व ज्ञानोपयोगमें सदा प्रवृत्ति कर ७२२, ७२ पंच महावतोंका रक्षण कर, कषायोंका दमन कर, इन्द्रियोंको वश कर १७२३। (मू. आ./८३-१४)।
२. वेदनाकी उग्रतामें सारणात्मक उपदेश भ, आ./म./गा. सं० का भावार्थ-वधादिसे पीड़ित होनेपर, वे आधारवान् निर्यापकाचार्य क्षपककी मधुर व हितकर उपदेश द्वारा आतध्यानसे रक्षा करते हैं ।४४॥ हे मुनि ! यदि परिचारकोंने तेरा त्याग भी कर दिया है, तब भी तू कोई भय मत कर ऐसा कहकर उसे निर्भय करते हैं । ४३। शिक्षावचन रूप आहार देकर उसकी भूखप्यास शान्त करते हैं ।४४५॥ आचार्य क्षपकको आहारकी गृद्धिसे संयमकी हानि व असंयमकी वृद्धि दर्शाते हैं ।६६ जिसे सुनकर वह सम्पूर्ण अभिलाषाका त्याग करके बैराग मुक्त व संसारसे भययुक्त हो जाता है।६६७) पूर्वाचरणका स्मरण करानेके लिए आचार्य उस क्षपकको निम्न प्रकार पूछते हैं, जिससे कि उसको लेश्या निर्मल हो जाती है ।१५०४॥ हे मुने ! तुम कोन हो. तुम्हारा क्या नाम है, कहाँ रहते हो. अब कौनसा काल है अर्थात दिन है या रात, तुम क्या कार्य करते हो, कैसे रहते हो । मेरा क्या नाम है ११११०॥ ऐसा सुनकर कोई क्षपक स्मरणको प्राप्त हो जाता है कि मैंने यह अकाल में भोजन करनेकी इच्छा की थी। यह आचरण अयोग्य है, और अनुचित आचरणसे निवृत्त हो जाता है ।१५०८१ (मू. आ./६५-१०२)। ३. प्रतिशाको कवच करनेके अर्थ उपदेश भ. आ./ /गा, सं० का भावार्थ-प्रतिज्ञा भंग करनेको उद्यत हुए क्षपकको निर्यापकाचार्य प्रतिज्ञा भंगसे निवृत्त करनेके लिए कवच करते हैं ।१५१३। अर्थात् मधुर व हृदयस्पर्शी उपदेश देते हैं ।१५१४॥ हेक्षपक! तू दीनताको छोड़कर मोहका त्याग कर । वेदना व चारित्रके शत्रु जो राग व कोप उनको जीत ।१५१३ तूने शत्रुको पराजित करनेकी प्रतिज्ञा की है, उसे याद कर। कौन कुलीन व स्वाभिमानी शत्रु समक्ष आनेपर पलायन करता है ।१५१८। हे क्षपक! तूने चारों गतियों में जो-जो दुःख सहन किये हैं उनको याद कर ।१५६१३ [विशेष दे. बह-बह गति अथवा भ.आ./मू./१५६२-१६०१)] उस अनन्त दुःखके सामने यह दुःख तो ना के बराबर है ।१६०२। अनन्त बार तुम्हें तीव्र भूख व प्यास सहन करनी पड़ी है।१६०५१६०७। तुम संवेजनी आदि तीन प्रकार कथाए सुनो, जिससे कि तुम्हारा बल बढ़े।१६०८। कर्मोंका उदय होनेपर औषधि आदि भी असमर्थ हो जाती हैं ।१६१०१ मरण तो केवल उस भवमें ही होता है परन्तु असंयमसे सैकड़ों भवोंका नाश होता है ।१६१४॥ असाताका उदय आने पर देव भी दुःख दूर करनेको समर्थ नहीं।१६१७-१६१६। अतः वह दुर्निवार है।१३२२। प्रतिज्ञा भंग करनेसे तो मरना भला है।१६३३ ( दे. बत/१/७)। आहारकी लम्पटता पाँचौ पापोंकी जननी है ।१६४२॥ हे क्षपक ! यदि तेरी आहारको अभिलाषा इस अन्तिम समयमें भी शान्त नहीं हुई हो तो अवश्य ही तू अनन्त संसारमें भ्रमण करनेवाला है ।१६५२॥ हे क्षपक ! आज तक अनन्त बार तूने चारों प्रकारका आहार भक्षण किया है, पर तू तृप्त नहीं हुआ
६. मृत शरीरका विसर्जन व फल विचार
१. शव विसर्जन विधि भ, आ./मू./गा. जे वेलं कालगदो भिक्खू तं वेलमेव णीहरणं । जग्गणबंधणछेदणविधी अबेलाए कादवा १९७४। गीदत्था...रमिज्जबाधेज्ज ।१९७६-७७ ( दे. अपवाद/३/६)। उयसय पडिदावण्णं....पि तो होज्ज ।१९७८-७१। (दे. अपवाद/३/३)। तेण पर संठाविय संथारगदं च तत्थ बंधित्ता। उठेतरवणठं गामं तत्तो सिर किच्चा (१९८० पुबाभोगिय मग्गेण आसु गच्छति तं समादाय । अद्विदमणियत्तता य पीट्टदो ते अणिभंता १९६१। तेण कुसमुट्ठिधाराए अब्बोच्छिणाए समणिपादाए। संथारो कादब्बो सव्वस्थ समो सगि तत्थ ।१९८३ जत्थ ण होज्ज तणाई चुण्णेहि वि तस्थ केस रेहिं वा । संघरिदव्वा लेहा सव्वस्थ समा अवोच्छिण्णा १६८४। जत्तो दिसाए गामो तत्तो सीस करित्त सोवधियं । उठेतररवण? वोस रिदव्व सरीरं तं १६ जो वि विराधिय दंसणमंते काल करित्तु होज्ज सुरो। सो वि विबुज्झदि दळूण सदेह सोवधि सज्जो १६८७। गणरक्वत्थं तम्हा तणमयपडिविवयं खु कादूण । एक्कं तु समे खेत्ते दिवढखेत्ते दुवे देज्ज ।१९६०ा तट्ठाणसावणं चिय तिवखुत्तो ठविय मडयपासम्मि। विदियवियप्पिय भिक्खू कुज्जा तह विदियतदियाणं ।१६६११ असदि तणे चुण्णेहिं च केसरच्छारिट्टियादिचुण्णेहिं । कादब्बोथ ककारो उबरि हिट्ठा यकारी से।१६६२। -जिस समय भिक्षुका मरण हुआ होगा, उसी वेलामें उसका प्रेत ले जाना चाहिए। अवेलामें मर जानेपर जागरण, अथवा छेदन करना चाहिए।१६७४। [ पराक्रमी मुनि उस शवके हाथ और पाँव तथा अंगूठा इनके कुछ भाग बाँधते हैं अथवा छेदते हैं। यदि ऐसा न करे तो किसी भूत या पिशाचके उस शरीर में प्रवेश कर जानेकी सम्भावना है, जिसको लेकर बह शव अनेक प्रकारकी क्रीड़ाओं द्वारा संघको क्षोभ उत्पन्न करेगा ।१९७६-१९७७ (दे.अपवाद/३/६)।-गृहस्थों से माँगकर लाये गये थाली आदि उपकरणोंको गृहस्थोंको वापस दे देने चाहिए । यदि सर्व जनोंको विदित किसी आर्यिका या क्षुल्लकने सग्लेखना मरण किया है तो उसके शवको किसी पालकी या विमानमें स्थापित करके गृहस्थजन उसे ग्रामसे बाहर ले जायें ।१९७८-११७६(दे. अपवाद/३/३) शिविकामें बिछानेके साथ उस शवको बाँधकर उसका मस्तक ग्रामकी ओर करना चाहिए। क्योंकि कदाचित् उसका मुख ग्रामकी तरफ न होनेसे वह ग्राममें प्रवेश नहीं करेगा। अन्यथा ग्राममें प्रवेश करनेका भय है ।१६८०। पूर्व में देखे गये मार्ग से उस शवको शीघ्र ले जाना चाहिए। मार्ग में नं खड़े होना चाहिए और न पीछे मुड़कर देखना १६६१। जिसने निषद्यका स्थान पहले देखा हो वह मनुष्य आगे ही वहाँ जाकर दर्भमुष्टिकी समानधारासे सर्वत्र सम ऐसा संस्तर करे १६८३६ दर्भ
जैनेन्द्र सिवान्त कोश
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