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सतिर निरन्तर वगंगा
विनाशसे उसका मोक्ष होता है। सृष्टि मोक्षकी यही प्रक्रिया सांख्यमतको मान्य है । शुद्ध पारिणामिक भावरूप पुरुष व अव्यक्त प्रकृतिको ही तरूपसे देखते हुए अन्य सत्र भेदोंको उसीमें लय कर देना शुद्ध पार्थिक दृष्टि है। वही परमार्थ ज्ञान या विवेकख्याति है। तथा वही एक मात्र साक्षात् मोक्षका कारण है। इस प्रकार सांख्य व जैन तुश्य हैं परन्तु दूसरी ओर जैन तो उपरोक्त सर्व नयोंके विरोधी भी नयोंके विषयोंको स्वीकार करते हुए अनेकान्तवादी हैं और सांख्य उन्हें न स्वीकार करते हुए एकान्तवादी हैं। यथा संग्रह से जो पुरुष व प्रकृति तत्त्व एक-एक व सर्व व्यापक हैं वही व्यवहार नयसे अनेक अव्यापक भी हैं। शुद्ध निश्चय नयसे जो पुरुष नित्य है अशुद्ध निश्चय नयसे अनित्य भी है। शुद्ध निश्चय मयसे जो बुद्धि, अहंकार, मनाने प्रकृतिविकार है अ निश्चय नयसे वहो जीवकी स्वभावभूत पर्यायें हैं। इत्यादि । इस प्रकार दोनों दर्शनोंमें भेद है । ]
सांतर निरन्तर वर्गणा - दे. वर्गणा / १ ।
सांतरबन्धी प्रकृति---दे, प्रकृति बन्ध / २ । सांतर मार्गणा
मार्गगा
सांतर स्थिति - दे, स्थिति / १ ।.
सांद्र -- नियमित सान्द्र - Regular Solid ( जं. प / प्र.१०७ ) । सांपराय -- दे. संपराय । सांपरायिक आलव १२ सांप्रति अशोकका दादा व चन्द्रगुप्त मौर्यका पुत्र था। "सम्राट् मगधका जैनधर्मानुयायी राजा था। मौर्य वंशकी वंशावली के अनुसार इसका समय जैन मान्यतानुसार ई. पू. ३६४-३२४ तथा वर्तमान इतिहासके अनुसार ई. पू. २२ आता है। वे इतिहास / २/३ (आ. हेमचन्द्र रचित परिशिष्ट पर्व १८-१० ।।
सांप्रतिक कृष्टि - दे. कृष्टि । सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष १४ सांशयिक मिथ्यात्व - दे. संशय ।
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साकांक्ष अनशन देन
साकार - चेतनकी विकल्पात्मक वृत्ति अर्थात् ज्ञान-दे, आकार । साकारमन्त्रभेदस सि./७/२६/३६६/११ अर्थप्रकरणाङ्गविकारधूविक्षेपादिभिः पराङ्गतमुक्तम्यदाविष्करणमय्यादिनिमित्तं यत्तत्साकारमन्त्रभेद इति कथ्यते । अर्थवश, प्रकरणवश, शरीरके विकारवश या धूप आदिके कारण दूसरे अभिप्रायको जानकर डाहसे उसका प्रगट कर देना साकारमन्त्रभेद है । (रा. वा. /७/२६/५/ २२४/९) । साकेतभरत क्षेत्रका एक नगर । अपर नाम अयोध्या । दे. मनुष्य / ४ | सागर- मध्यलोक द्वीपोंके हित करते हुए एकके पीछे एक करके असंख्यात सागर स्थित हैं- दे. लोक /२/१११२. मान्यवान् गजदन्तपर स्थित एक कूट तथा नन्दनवन का एक कूट- दे. लोक / ५ /१४ १ ३. भूतकालीन द्वितीय तीर्थंकर - दे. तीर्थंकर /५ । ४. कालका एक प्रमाण - दे. गणित / II/७/५ ।
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सागर बुद्धि-वरांग चरित्र / १४ /७१ - ललितपुरका एक वणिक तथा रांगका धर्म पिता । सागरोपम
कालका एक प्रमाण- दे, गणित / 1 /१/५ ।
सागार
चा. पा./मू./२१, २३ सायारं सग्गंथे...|२१| पंचेवाणुव्वयाई गुणव्वयाई हवं ति तह तिणि। सिवखावय चत्तारिय संजमचरणं च साधार |२३|| सागार संयमाचरण परिग्रहसहित श्रावक के होता है ॥२१॥ अणुमत पाँच गुणवत तीन और शिक्षामत चार ऐसे १२ प्रकार संयमा चरण चारित्र सो सागार है विशेष दे मत प्रतिमा (सा. ध. /१/ १२ ) ।
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प.नि./१/१३ आराध्यन्ते जिनेन्द्रा गुरुषु च विनतिर्धार्मिकः प्रीतिरुच्चैः पात्रेभ्यो दानमापनिहत्तजनकृते तच्च कारुण्यबुद्धया । तत्त्वाभ्यासः स्वकमतर तिरमलं दर्शनं यत्र पूज्यं गार्हस्थ्यं बुधानामितरदि पुनः दो मोहपाशः १३॥ एकादश स्थानानीति गृहिन व्य नितात्यागस्तदाद्यः स्मृत' | १४| जिस गृहस्थ अवस्थामें जिनेन्द्रकी आराधना की जाती है, निर्मन्थ गुरुयोंके प्रति विनय, धर्मात्माओंके प्रति प्रीति व वात्सल्य, पात्रोंको दान, आपत्ति प्रस्त पुरुषोंको दया बुद्धिसे दान, तरोंका परिशीलन, मतों व गृहस्थ धर्म से प्रेम तथा निर्मल सम्यग्दर्शन धारण करना, ये सब किया जाता है वह गृहस्थ अवस्था विद्वानोंके लिए पूजनेके योग्य है अन्यथा दुःखरूप है। श्रावक धर्म में ग्यारह प्रतिमाएँ निर्दिष्ट की गयी हैं। उस सबके आदि में तादि व्यसनोंका त्याग स्मरण किया गया है ।१४ ( विशेष दे. श्रावक ) 1
सा. ध / १/२ अनाद्यविद्यादोषोत्थचतुः संज्ञाज्वरासुराः । शश्वत्स्वज्ञानविमुखाः सागारा विषयन्मुखाः २१ अनादिकालीन अविद्यारूपी वात पित्त कफसे उत्पन्न आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञारूपी ज्जरों से दुखी और सदा अपने आत्मज्ञानसे विमुख तथा पंचेन्द्रियके विषयोंके उन्मुख, ऐसे सागार होते हैं। अर्थात सकल परिग्रह सहित घरमें रहनेवाले सागार होते हैं।
सागारधर्मामृत - आशावर (ई. ११०३-१२४३) द्वारा रचित संस्कृत श्लोक बद्ध श्रावकाचार विषयक विस्तृत ग्रन्थ। इसमें आठ अध्याय और ४७७ श्लोक हैं । (ती./४/४५) ।
सादृश्य
सातकर्णी
त्वं गौतमीपुत्र शालिवाहनका दूसरा नाम समय --- वी. नि. ६००-६४६ ( ई. ७४-१२० ) - दे. इतिहास / ३ / ४ |
सातगारवदे, गारव । साततस्व व्यसन आदि
दे
सातत्य Continuum ( ध. ५/प्र. २८ ) । साता-दे, बेदनीय' सातिप्रयोग — मायाके एक भेद - दे. माया / २ | सातिरेक - Excess - ( जं. प्र. / प्र.१०६ ) 1
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सातिशय अप्रमत्त दे. सं/२/४ सातिशय मिध्यादृष्टि सात्यकि पुत्र - ११ वें रुद्र - दे. शलाका पुरुष / ७ । सात्त्विक दान दे दान /१/५ ।
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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सादि - दे. अनादि ।
सादृश्य-स. भ. त./७४ /४ - तद्भिन्नत्वे सति तद्गतभूयोधर्मवत्त्वं सादृश्यम् । यथा चन्द्रमित्ये सति चन्द्रगाहारस्यादि मु
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