Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 406
________________ सांख्य और 'तम' अन्धकार व अवरोधक स्वरूप है । यह तीनों गुण अपनी साम्यावस्था में सदृश परिणामी होनेसे अव्यक्त रहते हैं और वैसा दृश्य होनेपर व्यक्त हैं, क्योंकि तब कभी तो सत्त्व गुण प्रधान हो जाता है और कभी रज या तमोगुण । उस समय अन्य गुणोंकी शक्ति हीन रहने से वे अप्रवान होते हैं । ५. रजो गुणके कारण व्यक्त व अव्यक्त दोनों ही प्रकृति नित्य परिणमन करती रहती हैं। वह परिणमन तीन प्रकारका है- धर्म, लक्षण व अवस्था । धर्मोका आविर्भाव न तिरोभाव होना धर्मपरिणाम है, जैसे मनुष्यसे देव होना प्रतिक्षण होनेवाली सुक्ष्म विलक्षणता लक्षण परिणाम है और एक ही रूपसे टिके हुए अवस्था बदलना अवस्था परिणाम है जैसे मच्चेसे जुड़ा होना। इन तीन गुणोंकी प्रधानता होनेसे बुद्धि आदि ३३ तत्त्व भी तीन प्रकार हो जाते हैं- सात्त्विक, राजसिक, तामसिक जैसे ज्ञान वैराग्य पूर्ण बुद्धि साबिक है, विषय विलासी राजसिक है और अधर्म हिंसा आदिमें प्रवृत तामसिक हैइत्यादि ६. च. आदि ज्ञानेन्द्रिय है हाथ पॉन, वचन, गुदा न जननेद्रिय कर्मेन्द्रिय है, ज्ञानेन्द्रियोंके विषयभूत रूप आदि पाँच तन्मात्राएँ है और उनके स्थूल विषयभूत पृथ्वी आदि भूत कहलाते हैं । व ३९९ ४. ईश्वर व सुख-दुःख विचार दर्शन समुच्चय (२५-३६/२२-१३ ) ( भारतीय दर्शन) १. ये लोग ईश्वर तथा यज्ञ-याग आदि क्रियाकाण्डको स्वीकार नहीं करते । २. सवादि गुणोंकी विषमता कारण ही सुख-दुख उत्पन्न होते हैं। वे दोन प्रकारके हैं-आध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक । ३. आध्यात्मिक दो प्रकार हैं-कायिक व मानसिक । मनुष्य, पशु आदि कृत आधिभौतिक और यक्ष, राक्षस आदि या ट । ५. सृष्टि, प्रलय व मोक्ष विचार पदर्शन समुच्चय (४४ /३८); (भारतीय दर्शन) १ यद्यपि पुरुष तव रूपसे एक है। प्रकृतिकी विकृतिसे चेतन प्रतिबिम्ब रूप जो बुद्धियाँ उत्पन्न होती हैं - वे अनेक हैं। जड़ होते हुए भी यह बुद्धि चेतनवत् दीखती है। इसे ही बद्ध पुरुष या जीवात्मा कहते हैं । त्रिगुणधारी होने के कारण यह परिणामी है। २. महद, अकार ग्यारह इन्द्रियाँ न पाँच तन्मात्राएँ, प्राण व अपान इन सत्तरह तत्वोंसे मिलकर सूक्ष्म शरीर बनता है जिसे लिंग शरीर भी कहते हैं । वह इस स्थूल शरीर के भीतर रहता है, सूक्ष्म है और इसका मूल कारण है। यह स्वयं निरूपण योग्य है, पर नटकी भाँति नाना शरीरोंको धारण करता है । ३. जीवात्मा अपने अदृष्टके साथ परा प्रकृतिमें तय रहता है। जब उसका अदृष्ट पाकोन्मुख होता है राय तमो गुणका प्रभाव हट जाता है । पुरुषका प्रतिबिम्ब उस प्रकृतिपर पड़ता है, जिससे उसमें क्षोभ या चंचलता उत्पन्न होती है और I स्वतः परिणमन करती हुई महत आदि २३ विकारोंको उत्पन्न करती है उससे सूक्ष्म शरीर और उससे स्थूल शरीर बनता है यही सृष्टि है । ४. अदृष्टके विषय समाप्त हो जानेपर ये सब पुनः उलटे क्रमसे पूर्वोक्त प्रकृति में लय होकर साम्यावस्थामें स्थित हो जाते हैं । यही प्रलय है । ५. अनादि कालसे इस जीवात्माको अपने वास्तविक स्वरूपका ज्ञान नहीं है । २५ तत्वोंके ज्ञानसे उसे अपने स्वरूपका भान होता है तब उसके राजसिक व तामसिक गुणोंका अभाव हो जाता है। एक ज्ञानमात्र रह जाता है, वही कैवल्यकी प्राप्ति है। इसे ही मोक्ष कहते हैं । ६. वह मुक्तात्मा जब तक शरीर में रहता है तब तक जीवन्मुक्त कहलाता है और शरीर छूट जानेपर विदेह मुक्त कहलाता है । ७. पुरुष व मुक्त जीव में यह अन्तर है कि पुरुष तो एक है और Jain Education International सांख्य और मुक्तात्माएँ अपने अपने सत्व गुणोंकी पृथक्ताके कारण अनेक हैं । पुरुष, अनादि व नित्य है और मुक्तात्मा सादिव नित्य । ६. कारण कार्य विचार (भारतीय दर्शन) ये लोक सरकार्यवादी हैं। अर्थात इनके अनुसार कार्य सदा अपने मस्त पदार्थ में विद्यमान रहता है। कार्य हाम पूर्व वह अव्यक्त रहता है। उसकी व्यक्ति ही कार्य है। वस्तुतः न कुछ उत्पन्न होता है न नष्ट । ७. प्रमाण विचार 1 ( भारतीय दर्शन ) प्रत्यक्ष, अनुमान व आगम तीन प्रमाण मानता है । अनुमान व आगम नैयायिक है 'बुद्धि' अहंकार व मनको साथ लेकर बाहर निकल जाती है। और इन्द्रिय विशेषके द्वारा उसके तदाकार हो जाती है। बुद्धिका प्रतिनियत विषयको ग्रहण करके विषयाकार होना ही प्रत्यक्ष है।. * अन्य सम्बन्धित विषय १. वैदिक अन्य दर्शनोंका क्रमिक विकास- दे. दर्शन । २. साधु तथा साधना योगदर्शन ३. सांख्य व योगदर्शनकी तुलना योगदर्शन f ८. जैन बौद्ध व सांख्यदर्शन की तुलना - स्याम. १.४२०१ जैन व बौद्धकी तरह सांस्य भी वेद, ईश्वर, याज्ञिक क्रियाकाण्ड, व जाति भेदको स्वीकार नहीं करता । नोंकी भाँति ही बहु आत्मवाद तथा जीवका मोक्ष होना मानता है। जैन व बौकी भाँति परिणामवादको स्वीकार करता है। अपने तीर्थंकर कपितको क्षत्रियोंनें उत्पन्न हुआ मानता है। वैदिक देवी-देवताओं पर विश्वास नहीं करता और वैदिक ऋचाओंपर कटाक्ष करता है । तत्त्वज्ञान, संन्यास, व तपश्चरणको प्रधानता देता है । ब्रह्मचर्यको यर्थार्थ यज्ञ मानता है। गृहस्थ धर्मकी अपेक्षा संन्यास धर्मको अधिक महत्त्व देता है। [self ] २. सांख्योंकी भाँति जैन भी किसी न किसी रूप में २५ उत्त्रको स्वीकार करते हैं तथा परम भावग्राही इम्याधिक नयसे स्वीकार किया गया एक व्यापक, नित्य, चैतन्यमात्र, जीव तत्त्व ही पुरुष है । संग्रह नयसे स्वीकार किया गया एक, व्यापक, नित्य, अजीव तत्त्व ही अव्यक्त प्रकृति है । द्रव्य व भावकर्म व्यक्त प्रकृति है । शुद्ध निश्चय नयसे जिसे उपरोक्त प्रकृतिका कार्य, विकार तथा जड़माया कहा गया है, ऐसा ज्ञानका क्षयोपशम सामान्य महत् या बुद्धि तत्त्व है, मोहजनित सर्व भावअहंकार तत्त्व हैं, संकल्प विकल्प रूप भावमन मनतत्त्व है, पाँचों भावेन्द्रिय ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। व्यवहार नयसे भेद करके देखा जाये तो शरीरके अत्रयवभूत वाकू, पाणि, पाद आदि पाँच कर्मेन्द्रियाँ भी पृथत है। शुद्ध निश्चय नयसे ये सभी तत्व चिदाभास है, यही प्रकृतिपर पुरुषका प्रतिबिम्ब है । यह तो चेतन जगत्का विश्लेषण हुआ। जड़ जगत्की तरफ भी इसी प्रकार शुद्ध कारण परमाणु व्यक्त प्रकृति है । शुद्ध ऋजुसूत्र या पर्यायार्थिक दृष्टिसे भिन्न माने गये स्पर्श रस आदि उस परमाणुके गुणोंके स्वलक्षणभूत अविभाग प्रतिच्छेद ही तन्मात्राएँ हैं । नैगम व व्यवहार नयसे अविभाग प्रतिच्छेदोंसे युक्त परमाणु और परमाणुओं के बन्धसे पृथिवी आदि पाँचौकी उत्पत्ति होती है असद्भूत व्यवहार नयसे द्रव्यकर्मरूप कामेंग शरीर और अशुद्ध निश्चयनय औवारिक म क्षायोपशमिक भावरूप कार्मग शरीर हो जीवका सूक्ष्म शरीर है जिसके कारण उसके स्थूल शरीरका निर्माण होता है और जिसके जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551