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सल्लेखना
सवर्णकारिणी
तृणके अभावमें प्रामुक तण्डुल मसूर की दाल इत्यादिकोंके चूर्णसे, कमल केशर वगैरहसे मस्तकसे लेकर पावतक बिना टूटी हुई रेखाएँ खेंचे ।१९८४॥ अन ग्रामकी दिशामें मस्तककर पीछीके साथ उस शवको उस स्थानपर रखे ।१६६६। जिसने सभ्यग्दर्शनकी विराधनासे मरणकर देवपर्याय पाया है, वह भी पीछीके साथ अपना देह देखकर 'मैं पूर्व जन्म में मुनि था' ऐसा जान सकेगा ।१९८७। गणके रक्षण के हेतु मध्यम नक्षत्र में तृणका एक या दो प्रतिबिम्ब बनाकर उसके पास रखना चाहिए।१६801 उन्हें वहाँ स्थापनकर जोरसे बोलकर ऐसा कहें कि मैंने यह एक अथवा दो क्षपक तेरे अर्पण किये हैं। यहाँ रहकर यै चिरकाल पर्यन्त तप करें।१६। यदि तृण न हों तो तण्डल चूर्ण, पुष्प केसर, भस्म आदि जो कुछ भी उपलब्ध हो उससे ही वहाँ 'काय' ऐसा शब्द लिखकर उसके ऊपर क्षपकको स्थापन करे ।१६६२। २. शरीर विसर्जनके पश्चात् संघका कर्तव्य भ. आ./मू./१६६३-१६६६ उवगहिदं उबकरणं हवेज अंतस्थ पाडिहरियं
तु। पडिमोधित्ता सम्म अप्पेदव्वं तयं तेसिं १९६३। आराधणपत्तीयं काउसग्गं करेदि तो संघो। अधिउत्ताए इच्छागारं खबयस्स बसधीए REE४. सगणत्थे कालगदे खमणमसज्झाइयं च तदिवसं। सज्झाइ परगणत्थे भयणिज्ज खमण करणं पि१६६श एवं पडिट्ठवित्ता पूणो वितदियदिवसे उवेक्वंति। संघस्स सुहविहारं तस्स गदी चेव णा९जे १६६६-मृतकको निषीधिकाके पास ले जानेके समय जो कुछ वस्त्र काष्ठादिक उपकरण गृहस्थों से याचना करके लाया गया था उसमें जो कुछ लौटाकर देने योग्य होगा वह गृहस्थोंको समझाकर देना चाहिए १६६३. चार आराधनाओंकी प्राप्ति हमको होवे ऐसी इच्छासे संघको एक कायोत्सर्ग करना चाहिए। क्षपककी बसतिकाका जो अधिष्ठान देवता है उसके प्रति 'यहाँ संघ बैठना चाहता है' ऐसा इच्छाकार करना चाहिए १६६४। अपने गणका मुनि मरणको प्राप्त होवे तो उपवास करना चाहिए और उस दिन स्वाध्याय नहीं करनी चाहिए। यदि परगणके मुनिकी मृत्यु हुई हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। उपवास करे अथवा न करे ।१९६५उपर्युक्त क्रमसे क्षपकके शरीरको स्थापना कर पुनः तीसरे दिन वहाँ जाकर देखते हैं कि संघका सुख से विहार होगा या नहीं और क्षपकको कौनसी गति हुई है। [ये बातें जाननेके लिए, पक्षियों द्वारा इधरउधर ले जाकर डाले गये, शबके अंगोपांगोंको देखकर विचारते हैं। ( दे. अगला शीर्षक)] १६६६) ३. फल विचार . १. निषीधिकाको दिशाऑपरसे भ. आ./मू-१९७१-११७३ जा अवरदक्षिणाए व दक्खिणाए व अध व
अवराए । वसधीदो वणिज्जदि णिसीधिया सा पसस्थत्ति १६७०। सव्वसमाधी पढ़माए दक्विणाए दु भत्तगं सुलभं । अवराए सुहविहारो होदि य उवधिस्स लाभो य ।११७१२ जद सेसिं माघादो दट्ठबा पुबदक्विणा होइ। अवरुत्तरा य पुव्वा उदीचिपुव्वुत्तरा कमसो १६७२। एदासु फलं कमसो जाणेज्ज तुमंतुमा य कलहो य । भेदोय गिलाणं पि य चरिमा पुण कड्दे अण्णं ।१९७३ वह निषीधिका क्षपककी वसतिकासे नैऋत्य दिशामें, दक्षिण दिशामें, अथवा पश्चिम दिशामें होनी चाहिए। इन दिशाओं में निषीधिकाकी रचना करना प्रशस्त माना गया है।१७। नैऋत्य दिशाकी निषोधिका सर्वसंघके लिए समाधिकी कारण है। अर्थात वह सघका हित करनेवाली है। दक्षिण दिशाको निषी धिकासे सघको आहार सुलभतासे मिलता है। पश्चिम दिशामें निषोधिका होनेसे संघका सुत्रसे विहार होता रहेगा, और उनकी पुस्तक आदि उपकरणोंका
Shri लाभ होता रहेगा।१७१। यदि उपरोक्त तीन दिशाओं में निषोधिका
बनवाने में कुछ बाधा उपस्थित होती है तो १. आग्नेय, २. वायव्य, ३. ऐशान्य, ४. उत्तर दिशाओं में से भी किसी एक दिशामें बनवानी चाहिए ।१९७२। इन दिशाओंका फल क्रमसे-१. संधौ ‘मैं ऐसा हूँ, तू ऐसा है' इस प्रकारकी स्पर्धा, २. संधमें कलह, फूट, व्याधि, परस्पर खेंचातानी और मुनिमरण समझना चाहिए ।१६७३। २. शवके संस्तरपरसे भ, आ./म./१६८५ जदि विसमो संथारो उवरि मज्झे व होज्ज हेटा
वा। मरण व गिलाणं वा गणिवसभजदीण गायब १६८५१- यदि तन्दुल चूर्ण आदिसे अंकित संस्तरमें रेखाएँ ऊपर नीचे व मध्यमें विषम हैं तो वह अनिष्ट सूचक है। ऊपरकी रेखाओंके विषम होनेपर आचार्यका मरण अथवा व्याधि, मध्यकी रेखाएँ विषम होनेपर एलाचार्यका मरण अथवा व्याधि, और नीचेकी रेखाओंके विषम होनेपर सामान्य यतिका मरण अथवा व्याधिको सूचना मिलती है ।१६८५ ३. नक्षत्रों परसे भ. आ./मू./१६८८-१९८६ णत्ता भाए रिक्खे जदि कालगदो सिवंतु सब्वेसिं । एको दु समे खेत्ते दिड्ढखेत्ते मरं ति दुवे ।१९८८ सदभिसभरणा अदा सादा असलेस्स) जि अवखरा। रोहिणि विसाहपुणव्वसुत्ति उत्तरा मज्झिमा सेसा REVI -जो नक्षत्र १५ मुहूर्त के रहते हैं उनको जघन्य नक्षत्र कहते हैं । शतभिषक, भरणी, बार्दा, स्वाती, आश्लेषा इन छह नक्षत्रों में से किसी एक नक्षत्र पर अथवा उसके अंशपर यदि क्षपकका मरण होगा तो सर्व संघका क्षेम होगा। ३० मुहूर्त के नक्षत्रोंको मध्यम नक्षत्र कहते हैं। अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा. पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वाभाद्रपदा और रेवती इन १५ नक्षत्रोंपर अथवा इनके अंशोंपर क्षपकका मरण होनेसे, और भी एक मुनिका मरण होता है । ४५ मुहूर्त के नक्षत्र उत्कृष्ट हैं-उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपदं, पुनर्वसु, रोहिणी इन छहमें से किसी नक्षत्रपर अथवा उसके अंशपर क्षपकका मरण होनेसे और भी दो मुनियों का मरण होता है। ४. शरीरके अंगोपांगोंपरसे भ.आ./मू./१६६७ जदिदिवसे संचिठ्ठदि तमणालद्धच अवखदं भडयं ।
तदिवसिसाणि मुभिवं खेमसि तम्हि रज्जम्मि १६६७ जं वा दिवसमुवणीदं सरोरयं खगचदुप्पदगणेहिं । खेमं सिर्व सुभिक्खं बिहरिज्जो तं दिसं संघो ।१६६८। जदि तस्स उत्तमंगं दिस्सदि दंता च उवरिगिरिसिहरे । कम्ममलविप्पमुक्को सिद्धि पत्तोत्ति णादव्यो 1१६६६। वेमाणिओ थलगदो समम्मि जो दिसि य धाण वितरओ। गड्डाए भवणवासी एस गदी से समासणे ।२०००।-जितने दिन तक वृकादि पशु-पक्षियोंके द्वारा वह क्षपक शरीर स्पर्शित नहीं होगा और अक्षत रहेगा उतने वर्षतक उस राज्यमें क्षेम रहेगा ।१६६७। पक्षी अथवा चतुष्पद प्राणी जिस दिशामें उस क्षपकका शरीर ले गये होंगे, उस दिशामें संघ विहार करे, क्योंकि ये अंग उस दिशामें क्षेमके सूचक हैं ।१६६८क्षपकका मस्तक अथवा दन्तपंक्ति पर्वतके शिखरपर दीख पड़ेगी तो यह क्षपक कर्ममलसे पृथक् होकर मुक्त हो गया है, ऐसा समझना चाहिए |१६|क्षपकका मस्तक उच्च स्थल में दोखनेपर वह वैमानिक देव हुआ है, समभूमिमें दीखने पर ज्योतिष्क देव अथबा व्यन्तर देव और गड्ढे में दीखनेपर भवनवासी देव हुआ समझना चाहिए ।२००० . सवरी गुह्यगृहन-कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे. व्युत्सर्ग १ । सवर्णकारिणी-दे. विद्या ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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