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सल्लखना
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४. सविचार भक्त प्रत्याख्यान विधि
उपायसहित पूछते हैं। तब यदि यह क्षपक सरल परिणामका है, ऐसा गुरुके अनुभवमें आ जाय तो उसको प्रायश्चित्त देते हैं अन्यथा नहीं।६१७। यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके आश्रयसे हुए सम्पूर्ण दोष क्षपक अनुक्रमसे कहेगा तो प्रायश्चित्त दान कुशल आचार्य उसको प्रायश्चित्त देते हैं ।६२१३ जिसका आचार निर्दोष है ऐसा वह क्षपक प्रायश्चित्त लेकर शास्त्रकथित विधि के अनुसार गुरु समीप रहकर अपनेको निर्मल चारित्रयुक्त बनाता हुआ रत्नत्रयमें प्रवृत्ति करता है. तथा समाधिमरणके लिए जिस विशिष्ट आचरणको स्वीकार किया है, उसमें उन्नतिकी इच्छा करता है ।६३० (विशेष दे. 'आलोचना' व 'प्रायश्चित्त'); (मू. आ./५५-५६)
८.क्षपणा, समता व ध्यान म. आ./म./गा. एवं पडिक्कमणाए काउसग्गे य विणयसज्झाए । अणुपेहासु य जुत्तो संथारगओ धुणदि कम्मं ७१६॥ एवं अधियासें तो सम्म खबओ परीसहे एदे। सव्वत्थ अपडि उवेदि सवत्थ समभाव । १६८३। मित्तेमुयणादीसु य सिस्से साधम्मिए कुले चावि । राग वा दोसं वा पुवं जायं पि सो जहइ ।१६८६। इठेसु अणिठेसु य सद्दफरिसरसरूवगंधेस । इहपरलोए जीविदमरणे माणावमाणे च ।१६८८। सम्वत्थ णिबिसेसो होदि तदो रागरोसरहिदप्पा। खवयस्स रागदोसा हु उत्तम विराधेति ।१६८१। सेज्जा संथारं पाणयं च उवधि तहा सरीरं च । विज्जावच्चकरा विय बोसरह समत्तमारूढा ।१६६३। एवं सम्बत्थेसु वि समभावं उवगओ विसुद्धप्पा। मित्ती करुण मुदिदमुवेखं खवओ पुण उवेदि ।१६६५। एवं कसायजुद्ध मि हवदि खवयस्स आउध' झाणं । ज्माणविहूणो खवओ जुद्धव णिरावुधो होदि ।१८६२) १. उक्त क्रमसे संस्तरारूढ जो क्षपक प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, विनय, स्वाध्याय, अनुप्रेक्षा इनमें एकाग्र होकर कर्मका क्षय करता है ।७१६। २. इस प्रकार समस्त परीषहोंको अव्याकुलतासे सहन करनेवाला यह क्षपक शरीर, वसतिका, गण और परिचारक मुनि इन सर्व वस्तुओंमें ममत्वरहित होता है। रागद्वषोंको छोड़कर समताभावमें तत्पर होता है ।१६८३। मित्र, बन्धु, माता, पिता, गुरु वगैरह, शिष्य और साधर्मिक इनके ऊपर दीक्षा ग्रहणके पूर्व में अथवा कवचसे अनुगृहीत होनेके पूर्व जो राग-द्वेष उत्पन्न हुए थे, क्षपक उनका त्याग करता है ।१६८६। इष्ट और अनिष्ट ऐसे शब्द, रस, गन्ध, स्पर्श, रूप विषयों में, इहलोक और परलोकमें, जीवित और मरणमें, मान और अपमानमें यह क्षपक समानभाव धारण करता है। ये राग-द्वेष रत्नत्रय, उत्तमध्यान और समाधिमरणका नाश करते हैं, इसलिए क्षेपक अपने हृदयसे इनको दूर करता है ।१६८८-१६८१। सम्पूर्ण रत्नत्रयपर आरूढ होकर यह क्षपक वसतिका, तृणादिका संस्तर, पानाहार अर्थात् जल पान, पिच्छ, शरीर और वैयावृत्त्य करनेवाले परिचारक मुनि, इनका निर्मोह होकर त्याग करता है।१६६३। इस प्रकार सम्पूर्ण वस्तुओंमें समताभाव धारण कर यह क्षपक अन्तःकरणको निर्मल बनाता है। उसमें मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भावनाओं को स्थान देता है ।१६६५। ३. कषायोंके साथ युद्ध करते समय ध्यान मुनिको शस्त्रके समान उपयोगी होता है। जैसे शस्त्र रहित वीर पुरुष युद्ध में शत्रुका नाश नहीं कर सकता है, वैसे ही ध्यानके बिना कर्म शत्रुको मुनि नहीं जीत सकता
है । १८६२। (विशेष दे. ध्यान/२/8)।
९. कुछ विशेष भावनाओंका चिन्तवन भ. आ./मू./गा, जावं तु केइ संगा उदोरया होति रागदोसाण । ते वज्जितो जिणदि हु राग दोसं च णिस्संगो।१७८। एदाओ पंच वज्जिय इणमो छट्ठीए विहरदे धीरो। पंचसमिदो तिगुत्तो णिस्संगो सब्यसंगेसु ।१८६। तवभावणा य सुदसत्तभावणेगत्तभावणे चेव । धिदिबलविभावणाविय असं कि लिट्ठावि पंचविह।।१८७५-जितना कुछ
भी परिग्रह है वह सब राग और द्वेषको उत्पन्न करनेवाला है। और निःसंग होकर अर्थात परिग्रहको छोड़नेसे क्षपक राग द्वेषको भी जीत लेता है ।१७८। इन कन्दी आदि पाँच कुत्सित भावनाओंका (दे, भावना/३) त्यागकर जो धीर मुनि पाँच समिति और तीन गुप्तियों का पालनकर सम्पूर्ण परिग्रहों से निस्पृह रहते हैं वे ही छठी भावनाके आश्रयसे रत्नत्रयमें प्रवृत्त होते हैं ।१६। तप, श्रुताभ्यास, भयरहित होना, एकत्व, धृतिबल, ये पाँच प्रकारको असं क्लिष्ट भावनाएँ हैं, जिन्हें क्षपकको भाना चाहिए ।१८१ मू. आ./७५-८२ उडमधो तिरियम्हि दु कदाणि बालमरणाणि बहुगाणि । दसणणाणसहगदो पडियमरणं अणुमरिस्से ।७। जइ उप्पज्जह दुक्रवं। तो दट्ठयो सभावदो णिरये । कदम मए ण पत्तं संसारे संसरं तेण ७८० संसारचक्कवाल म्मि मए सम्बेपि पोग्गला बहुसो। आहारिदा य परिणामिदा ण य मे गदा तित्ती ७४ा आहारणिमित्तं किर मच्छा गच्छति सत्तमी पुढवि । सच्चित्तो आहारोण कप्पदि मणसावि पत्थे, ८२। -ऊर्ध्व अधो व तिर्यक लोकमें मैंने बालमरण बहुत किये हैं, अब दर्शन ज्ञानमयी होकर संन्यासपूर्वक पण्डित मरण करू गा ।७५। यदि संन्यासके समय क्षुधादिकी वेदना उपजे तो नरकके स्वरूपका चिन्तवन करना चाहिए तथा जन्म, जरा, मरणरूप संसारमें मैंने कौनसे दुःख नहीं उठाये ऐसा चिन्तवन करना चाहिए।७८। चतुर्गतिरूप संसारमें भ्रमण करते हुए मैंने सभी पुद्गल बहुत बार भक्षण किये है, और खल रस रूपसे परिणमित किये हैं परन्तु आज तक मेरी इनसे तृप्ति नहीं हुई है ७६। आहारके कारण ही तन्दुल मत्स्य सातवें नरक जाता है। इसलिए जीवधातसे उत्पन्न सचित्त आहार मनसे भी याचना करने योग्य नहीं है ।। १०. मौन वृत्ति भ. आ./मू./१७४/३६१ गणिणा सह संलाओ कज्ज पर सेसएहि साहूहिं। मोणं से मिच्छजणे भज्जं सण्णीसु सजणे य ।१७४।-क्षपकको संघमें आचार्यके साथ तो बोलना चाहिए, पर अन्य साधुओं के साथ अल्प मात्र ही भाषण करना चाहिए अधिक नहीं। मिथ्यादृष्टि जनों के साथ बिलकुल मौनसे रहे तथा विवेकी जनों या स्वजनों के साथ थोड़ाबहुत बोले अथवा बिलकुल न बोले ।१७४। ११.क्रम पूर्वक आहार व शरीरका त्याग १. १२ वर्षों का कार्य क्रम भ, आ./मू./२५३-२५४ जोगेहिं विचित्तेहिं दु खवेइ संवच्छराणि
चत्तारि। वियडी णिज्जूहित्ता चत्तारि पुणो वि सोसेदि ।२५३। आयंबिल णिव्वियडीहिं दोणि आयंबिलेण एक्कं च । अद्धं. णादिविगठे हिं अदो अद्धं विगठेहिं ।२५४।[भक्त प्रत्याख्यानका उत्कृष्ट काल १२ वर्ष प्रमाण है--(दे. सरलेखना/३/५)। इन बारह वर्षोंका कार्यक्रम निम्न प्रकार हैं। ] प्रथम चार वर्ष अनेक प्रकारके कायक्लेशों द्वारा बिताये, आगे के चार वर्षों में दूध, दही, घी, गुड़ आदि रसोंका त्याग करके शरीरको कृश करता है। इस तरह आठ वर्ष व्यतीत होते हैं ।२५३॥ दो वर्ष तक आचाम्ल व निर्विकृति भोजन ग्रहण करके रहता है। (दे, वह वह नाम )। एक वर्ष केवल आचाम्ल भोजन ग्रहण करता है। छह महीने तक मध्यम तपों द्वारा शरीरको क्षीण करता है और अन्तके छह महीनों में उत्कृष्ट तपों द्वारा शरीरको क्षीण करता है ।२५४॥ (दे. आगे उपशीर्षक नं.४)।। २. आहारत्यागकी १२ प्रतिमाएँ दे, सल्लेखना/९/३ [यदि आयु व देहकी शक्ति अभी बहुत शेष है तो
शास्त्रोक्त १२ भिक्षु प्रतिमाओंको ग्रहण करे, जिससे कि क्षपकको पीड़ा न हो।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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