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सल्लेखना
२. इन अधिकारोंका कथन क्रम
नोट- उपरोक्त ४० अधिकारोंमें सलेखना धारने की विधिका कम व्याख्यान किया गया है। तहाँ नं० १-११, १७, १८, २०, २१, ब २४ ये अधिकार अन्वर्थक होनेसे सरल है । नं० १२, १३, १४, २३, २६.३०, ३१, ३२, ३६, ३७ इनका कथन सल्लेखना / ४ में किया गया है । नं० १६, २२, २७, २८, ३४ व ३५ का कथन सल्लेखना / ५ में ; नं० ३८ का सल्लेखना /१ में और नं० ३६ व ४० का सक्लेखना / ६ में किया गया है।]
३. आचार्य पदव्याग विधि
भ.आ./मू./२७२-२७४ सम्लेहणं करेंतो जदि आयरिओ हवेज्ज तो तेण ताए वि अवस्थाए चितेदव्वं गणस्स हियं । २७२॥ कालं संभावित्तदिच नाहरिय सोमतिहिकरण
मंगल गासे | २७३ | गच्छाणुपालनत्यं आहोइय अत्तगुणसमं भिक्खू । तो सम्म गर्ग अनकहाए कृणदि धीरो | २७४ - सलेखना करने के लिए प्रयुक्त हुआ सपक यदि आचार्य पदवीका धारक होगा तो उसको क्षपकको अवस्थामें भी अर्थात् जमतक आयुका अन्त निष्ट न आवे तभतक अपने गमके हितकी चिन्ता करनी चाहिए (२७३१ अपनी आयु अभी कितनी रही है इसका विचार कर तदनन्तर अपने शिष्य समुदायको और अपने स्थानमें जिसकी स्थापना की है. ऐसे बालाचार्य को बुलाकर, सौम्य तिथि, करण, नक्षत्र और सनके समय, शुभप्रदेश २७३। अपने गुणके समान जिसके गुण हैं ऐसा वह बालाचार्य गच्छका पालन करनेके लिए योग्य है, ऐसा विचारकर उसपर अपने गणको विसर्जित करते हैं, और उस समय उसे थोड़ा सा उपदेश भी देते हैं। २०४८ (भ.आ./पू./१००/१५) (दे. संस्कार / २ मे २१वी क्रिपाका लक्षण )।
४. सबसे क्षमा
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भ.आ./ /गा आमंतेण गणि गच्छमि तं गणि वेदून। तिविहेग समावेदि साल २०६॥ जं दीहकास संगसवार ममकारणेहरागेण कडुतपरु भनिया तमहं व् खमावेमि । २७७ ॥ अन्भहियजादहासो मत्थम्मि कदंजली कदपणामो । खामेसम्म संवेगं जमानी ।७११| मणकाहिं पूरा कदकारिदे अणुमदे वा । सब्वे अवराधपदे एस खमावेमि णिस्सलो |७१२। उस नवीन आचार्यको बुलाकर उसको गणके बीच में स्थापित कर और स्वयं अलग होकर माल व वृद्ध आदि मुनियोंसे पूर्ण ऐसे गणसे मन वचन कायसे वह आचार्य क्षमा माँगते हैं । हे मुनिगण ! तुम्हारे साथ मेरा दीर्घकाल तक सहवास हुआ है। मैंने ममत्व, स्नेहसे. द्वेषसे, आपको कटु और कठोर वाक्य कहे होंगे। इसलिए आप सब मेरे ऊपर क्षमा करेंगे ऐसी आशा है । २७७ ( आयुका अन्त निकट आनेपर ) वह क्षपक अपने मस्तकपर दो हाथ रखकर सर्व संघको नमस्कार करता है और साधर्मिकों में अनुराग उत्पन्न करता हुआ क्षमा ग्रहण कराता है । ७१२ । मन, वचन और शरीर के द्वारा जो-जो अपराध मैंने किये हैं, उनके लिए आप लोग मुझे क्षमा करो। मैं राज्य रहित हुआ हूँ |०१२ (मू.आ./५८)।
५. परगणचर्या व इसका कारण
भ.आ./मू./१८४४०० एवं उस्थित सगर्भ वग्भुज्जवं परिहरतो आराधनाणिमित्तं परगणगमणे महं कुणदि । ३८४ । सगणे आणाकोवो फरुसं कलहपरिदावणादो य। निग्भय सिणेह कालुगणकाविरघ य असमाधी । ३८५। परगनवासी व पुणो अम्मावारो गणी हनदि तेसु । पत्थिय असमाहा आणाको वि कदम |८०| कलहपरिदावणादि दोसेवा जमा करते गोवेजगणे ममति
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४. सविचार भक्तप्रत्याख्यान विधि
दोसेण असमाधी । ३१० तम्हादिसु सहणिजे वि सगगम्मि णिन्भओ संतो| जाएज्ज व सेएज्ज य अकप्पिदं किं पि वीसत्थो ||३२| एदे दोसा गणिणो विसेसदो होंति सगणवासिस्स । भिवखुस्स वि तारिसयस्स होंति पाएण ते दोसा | ३६६ । एदे सब्बे दोसा ण होति परगण निवासियो गणियो । तम्हा सगणं पहिय वयदि सो परगण समाधी ३१० संविज्भीरुस्स पादसम्म तरस विहरतो । जिणवयणसव्वसारस्स होदि आराधओ तादी |४००| इस प्रकार अपने गणसे पूछकर अपने रत्नत्रय में अतिशय प्रयत्नसे प्रवृत्ति करनेवाले ने आचार्य आराधना निमित्त परगणाने गमन करनेकी इच्छा मनमें धारण करते हैं । ३८४| स्वसंघमें रहने से आज्ञाकोप, कठोरवचन कलह, दुःख, विवाद, खेद वर निर्भयता, स्नेह, कारुण्य, ध्यानविघ्न और असमाधि ये दोष उत्पन्न होते हैं । ३८५० जब आचार्य परगण में जाकर रहते हैं तब उस गणस्थ मुनियोंको वे उपदेश बाला करते नहीं, जिससे उनके द्वारा आज्ञाभंगका प्रसंग आता नहीं। और यदि कदाचित् आज्ञाभंग हो भी जाय तो भी 'इनपर तो मैंने कोई उपकार किया नहीं है, जो कि ये मेरी आज्ञा समाधि दोष उत्पन्न नहीं
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मानें ऐसा विचारकर उनको यहाँ होता है। ३०० अब अपने में झुलकारि मुनि कलह, शोक, सन्तापादि परस्पर में करते हुए देखकर आचार्यकी अपने गर ममता होने से चित्तको एकाग्रता नष्ट हो जायेगी । ३६० | समाधिमरगोश आचार्यको भूख-प्यास वगैरहका दुःख सहन करना चाहिए। परन्तु वे अपने संघमें रहकर निर्भय होकर आहार जल वगैरह पदार्थोंकी याचना करेंगे अथवा स्वयं आहारादिका सेवन करेंगे और जा रहित होकर छोड़ी हुई अयोग्य वस्तुओंका भी ग्रहण करेंगे | ३६२ स्वगण में रहनेवाले जाचायोंको में दोष होंगे तथा जो आचार्य के समान उपाध्याय तथा प्रवर्तक मुनि हैं उन्हें भी स्वगण में रहने से ये दोष होंगे । ३६६ । परगण निवासी गणी. को ये दोष नहीं होते हैं। इसलिए स्वगण को छोड़कर परगण में जाते हैं । ३६७, संसारमी, पापभीरु और आगमके ज्ञाता आचार्यके चरणमूलमें ही अहमति समाधिमरणोचमी होकर आराधनाको सिद्धि करता है 18001
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६. उद्यत साधुके उत्साह आदिका विचार भ.आ./मू./१२-२२६ वो तस्स उत्तम करगुच्चाहं परिवि निरहू खीरोदयुमदुपार समाधीष ४१५ स्ववयरव पणस्सं तस्स आराधणा अविक्खेव । दिव्वेण णिमित्तेण य पहिलेहृदि अप्पमत्त सो ।५१६। यह क्षपक रत्नत्रयाराधनकी क्रिया करने में उत्साही है या नहीं, इसको परीक्षा करके अथवा मित्र बाहारोंमें यह अभिलषित है। विरत, इसकी परीक्षा करके हो आचार्य उसे अनुशा देश निर्णय करते हैं।७१५० हमारे संपका इस पकने समाधिके लिए आश्रय लिया है। इसकी समाधि निर्विघ्न समाप्त होगी या नहीं, इस विषयका भी आचार्य शुभाशुभ निमितों से निर्णय कर लेते हैं। यह भी एक परीक्षा है । ५१६। ७. आलोचना पूर्वक प्रायश्चित्त ग्रहण भ.आ./मू./गा. इय पयविभागियाए व ओघियाए व सल्लमुद्धरिय । सम्यगुणसोधियंत्री मुरूमएस' समायरह | ६१४ आलोय सुनिता तितो भयो उवायेग जदि उज्जुगोति निज जहाकर्द पटुवेद ६१० पादचारे जदि आप जहाक सध्ये कुब्वति तहो सोधि आगमववहारिणो तस्स | ६२श सो कदसामाचारी सोज्यं कटुं विधिणा गुरुसयासे । विहरदि सुविसुद्धप्पा अब्भुज्जदचरणगुण कवी | ६३०|- विशेषालोचना करके अथवा सामान्यालोचना करके मायाशज्यको हृदयसे निकाल कर दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपश्चरणों में शुद्धिकी अभिलाषा रखता हुआ गुरुके द्वारा कहा हुआ प्रायश्चित्त, रोष, दीनता और अश्रद्धानका त्यागकर क्षपक ग्रहण करता है । सम्पूर्ण आलोचना सुनकर गुरु क्षपकको तीन बार
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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