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सल्लेखना
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४. भक्त प्रत्याख्यान आदि विधि निर्देश
करते हैं । २०१३। यह मुान परगण में न जाकर स्वगण में ही रहता हुआ यथायोग्य पूर्वोक्त अर्थात् सविचार भक्तात्यारख्यान वाली विधिका पालन करता है । २०१५। इसके दो भेद हैं--प्रकाश और अप्रकाश । जो अन्य जनों के द्वारा जाना जाय वह प्रकाशरूप है और जो दूसरों के द्वारा न जाना जाय वह अप्रकाशरूप है ।२०१६। क्षपकका मनोबल अर्थात् धैर्य, क्षेत्र, काल, उसके बान्धव आदि कारणोंका विचार करके क्षपकके उस निरुद्धाविचार भक्तप्रत्याख्यानको प्रगट करते हैं अथवा अप्रगट करते हैं । अर्थात् अनुकूल कारणों के होनेपर तो वह मरण प्रगट कर दिया जाता है और प्रतिकूल कारणोंके होने पर प्रगट नहीं किया जाता ।२०१७। सर्प, अग्नि, व्याघ, भैंसा, हाथी.रीछ, शत्रु, चोर, म्लेच्छ, मुच्छा, तीन शूलरोग इत्यादिसे तत्काल मरणका प्रसंग प्राप्त होनेपर २०१८ जन तक बचन व कायबल शेष रहता है और जब तक तब वेदनासे चित्त आकुलित नहीं होता।२०१६। तब तक आयुष्यको प्रतिक्षण क्षीण होता जानकर शीघ्र ही अपने गणके आचार्य आदिके पास अपने पूर्व दोषोंकी आलोचना करनी चाहिए ।२०२०। इस प्रकार निरुद्धतर नामके दूसरे अविचार भक्त प्रत्याख्यानका स्वरूप है। इसमें भी यथा योग्य पूर्वोक्त अर्थात सविचार भक्त प्रत्याख्यानबाली सर्व विधि ( दे. सहलेखना/४) होती है ।२०२१। व्याघ्रादि उपरोक्त कारणोंसे पीडित साधु के शरीरका बल और बचन बल यदि क्षीण हो जाय तो परमनिरुद्ध नामका मरण प्राप्त होता है ।२०२२। अपने आयुष्यको शीघ्र ही क्षीण होता जान वह मुनि शीच ही मनमें अर्हन्त व सिद्ध परमेष्ठीको धारण करके उनसे अपने दोषोंकी आलोचना करे ।२०२३। आराधना विधिका जो पूर्व में सविस्तार वर्णन किया है अर्थात सविचार भक्तप्रत्याख्यान विधि ( दे. सालेखना/) उसोको ही यहाँ भी यथायोग्य रूपसे योजना करनी चाहिए ।२०२४।
माहारयचारणरवीरासबादिलद्धीसु । तवसा उप्पण्णामु वि बिरागभा. वेण सेवदि सो।२०५८। मोणाभिगहणिरिदो रोगादंकादिवेदणाहेदु। ण कुणदि पडिकारं सो तहेव तण्हाहादीणं ।२०५६। उबएसो पुण आइरियाण इंगिणिगदो विछिण्णकधो। देबेहिं माणुसे हिं व पुट ठो धम्म कधेदित्ति।२०६० भक्त प्रतिज्ञामें जो प्रयोगविधि कही है (दे. सल्लेखना/४) वही यथा सम्भव इस इंगिनीमरणमें भी समझनी चाहिए ।२०३०। अपने गणको साधुआचरण के योग्य बनाकर इंगिनी मरण साधनेके लिए परिणत होता हुआ, पूर्व दोषोंकी आलोचना करता है, तथा संघका त्याग करनेसे पहिले अपने स्थानमें दूसरे आचार्यको स्थापना करता है। तत्पश्चात् बाल वृद्ध आदि सभी गणसे क्षमाके लिए प्रार्थना करता है ।२०३२-२०३३ । स्वगणसे निकलकर अन्दर बाहरसे समान ऊँचे व ठोस स्थ डिलका आश्रय लेता है। वह स्य डिल निर्जन्तुक पृथिवी या शिलामयी होना चाहिए ।२०३५॥ ग्राम आदिसे याचना करके लाये हुए तृण उस पूर्वोक्त स्थंडिल पर यत्नपूर्वक बिछा कर संस्तर तयार करे जिसका सिराहना पूर्व या उत्तर दिशाकी ओर रखे ।२०३६। तदनन्तर अर्हन्त आदिकोंके समीप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें लगे दोषोंकी आलोचना करके रत्नत्रयको शुद्ध करे ।२०३८। सम्पूर्ण आहारों के विकल्पोंका तथा बाह्य भ्यन्तर परिग्रहका यावजीवन त्याग करे ।२०३६॥ कायोत्सर्गसे खड़े होकर, अथवा बैठकर अथवा लेट कर एक कवटपर पड़े हुए वे मुनिराज स्वयं ही अपने शरीरको क्रिया करते हैं ।२०४१। शौच व प्रतिलेखन आदि क्रियाएँ स्वयं ही करते हैं ।२०४२। जगत् के सम्पूर्ण पुदगल दुःखरूप या सुख रूप परिणमित होकर उनको दुःखी सुखी करनेको उद्यत हो तो भी उनका मन ध्यानसे च्युत नहीं होता ।२०४७-२०१८। वे मुनि याचना पृच्छना परिवर्तन और धर्मोपदेश इन सभों का त्याग करके सूत्रार्थ का अनुप्रेक्षात्मक स्वाध्याय करते हैं ।२०५२। इस प्रकार आठों पहरोंमें निद्राका परित्याग करके वे एकाग्र मनसे तत्वोंका विचार करते हैं। यदि बलात निद्रा आ गयी तो निद्रा लेते हैं ।२०५३। स्वाध्याय काल और शुद्धि वगैरह क्रियाएँ उनको नहीं है । श्मशानमें भी उनको ध्यान करना निषिद्ध नहीं है ।२०५४। यथाकाल षडावश्यक कर्म नियमित रूपसे करते हैं। सूर्योदय व सूर्यास्तमें प्रयत्न पूर्वक उपकरणोंकी प्रतिलेखना करते हैं ।२०५५॥ पैरों में काँटा चुभने और नेत्रमें रजकण पड़ जानेपर वे उसे स्वयं नहीं निकालते। दूसरों के द्वारा निकाला जानेपर मौन धारण करते हैं ।२०५७। तपके प्रभावसे प्रगटी वैक्रियक आदि ऋद्धियोंका उपयोग नहीं करते ।२०५८। मौन पूर्वक रहते हैं। रोगादिकोंका प्रतिकार नहीं करते ।२०५६। किन्हीं आचार्योके अनुसार वे कदाचित उपदेश भी देते हैं ।२०६०। दे. अगला शीर्षक/अतिम गाथा-[ कोई मुनि कायोत्सर्गसे और कोई दीर्घ उपवाससे शरीरका त्याग करते ?
१२. इंगिनी मरण विधि भ.आ./मू./२०३०-२०६१/१७७३ जो भत्तपदिण्णाए उबक्कमो वण्णिदो सवित्थारो। सो चेत्र जधाजोग्गो उवक्कमो इंगिणीए वि।२०६०। णिप्पादित्ता सगणं इंगिणि विधिसाधणाए परिणमिया ।।२०३२। परियाइगमालो चिय अणुजाणित्ता दिस महजणस्स। तिविधेण रखमावित्ता सबालबुड्ढाउलं गच्छ ।२०३३। एवं च णिक्कमित्ता अंतो बाहिं च थंडिले जोगे। पुढचौसिलामए वा अप्पाणं णिज्जवे एक्को १२०३५। पुटवुताणि तणाणि य जाचित्ता थडिल म्मि पुव्वुत्ते । जद. गाए संथरित्ता उत्तरसिरमधव पुवसिर ।२०३६। अरहादिअंतिगं तो किच्चा आलोचणं सुपरिसुद्धं । दसणणाणचरित्तं परिसारदूण णिस्सेसं ।२०३८। सव्वं आहारविधि जावज्जीवाय वोसरित्ताण । वोसरिदूण असेसं अम्भतरबाहिरे गथे ।२०३६। ठिच्चा णिसिदित्ता वा तुवट्टिदूणव सकायपडिचरण । सयमैव णिरुवसंग्गे कुणादि विहारम्मि सो भयबं । ।२०४१। सयमेव अप्पणो सो करेदि आउंटगादि किरियाओ। उच्चारादीणि तथा सयमेव विकिंचिदे विधिणा १२०४२। सब्यो पोग्गलकाओ दुक्रवत्ताए जदि तमुवणमेज । तधषि य तस्स ण जायदि ज्माणस्स विसोत्तिया को वि।२०४७५ सम्वो पोरगलकाओ सोक्रवत्ताए जदि वि तमुवणमेज । तध वि हू तस्स ण जायदि ज्झाणस्स विसोतिया को वि।२०४८। वायणपरियट्टणपुच्छणाओ मोत्तूण तधय धम्मथुदि । सुत्तच्छपोरिसीसु वि सरेदि सुत्तत्यमेय. मणों ।२०५२। एवं अछवि जामे अनबट्टो तह झादि एयमणो । जदि आधचा णिहा हविज्ज सो तस्थ अरदिण्णो ।२०५३। सज्झायकालपडिलेहणादिकाओ ण संति किरियाओ। जम्हा सुसाणमज्झे तस्स यमाणं अपडिसिधं ।२०५४। आवासगं च कुणदे उवधोकाल म्मि जं जहिं कमदि। उपकरणं पिपडिलिहा उधोकाल म्मि जदणाए ।२०५५। पादे कंटयमादि अच्छिम्मि रजादियं जदावेज्ज। गच्छदि अधाविधि सो परिणीहरणे य तुसिणीओ ।२०५७। वेउवण
१३. प्रायोपगमन सरण विधि
भ. आ./मू./२०६३-२०७१/१९७० पाओवगमणमरणस्स होदि सो चेव
बुवकमो सको। बुत्तो इंगिणीमरणस्मुक्कमो जो सविस्थारो।२०६३ •णबरि तणसथारोपाओबगदस्स होदि पडिसिद्घो। आदपरपओगेण
य पडिसिद्ध सवपरियम्मं ।२०६४। सो सल्ले हिददेही जम्हा पाओवगमणमुवजादि । उच्चारादिविकिंचणमवि णस्थि पबोगदो तम्हा १२०६५। पुढत्री आउतेऊवणप्फदितसेसु जदि वि साहरिदो। बोसट्च त्तदेहो अधाउग पालए तत्य ।२०६६। मज्जणयगंधपुप्फोवयारपडिचारणे विरते। वोसट्टचत्तदेहो अधाउगं पालए तधवि ।२०६७। बोसट्टचत्तदेहो दुणिविवेज्जो जहिं जधा अंग । जावज्जीवं तु सयं तहिं तमंग ण चालेज्ज (२०६८ एवं णिपडियम भणं ति पाओवगमणमरहंता। णियमा अणिहारं तं सया णीहारमुबसग्गे
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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