Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 395
________________ सल्लेखना ३८८ ३. भक्तप्रत्याख्यान आदि विधि निर्देश कुटुम्बियों और चाकरोंसे भी क्षमा करावे और आप भी सत्रको क्षमा करे ।१२४। छलकपट रहित और कृत कारित अनुमोदना सहित किये हुए समस्त पापोंकी आलोचना करके मरण पर्यन्त रहनेवाले समस्त महावतोंको धारण करे ।१२। शोक, भय, विषाद, राग कलुषता और अरतिको त्याग करके तथा अपने बल और उत्साहको प्रगट करके संसारके दुख रूपी संतापको दूर करनेवाले अमृतरूप शास्त्रों के श्रवणसे मनको प्रसन्न करे ।१२६ क्रम क्रमसे आहारको छोड़कर दुग्ध वा छाछको बढ़ावे और पीछे दुग्धादिकको छोड़कर कांजी और गरम जलको बढ़ावे ।१२७। तत्पश्चात् उष्ण जलपानका भी त्याग करके और शक्त्यनुसार उपवास करके पंचनमस्कार मन्त्रको मनमें धारण करता हुआ शरीरको छोड़े।१२। (चा. सा./४८/२); (सा. घ./८/१७.६४.६५,६७); ( विशेष दे. सल्लेखना/४)। ८. असमर्थ श्रावकोंके लिए भक्तप्रत्याख्यानकी सामान्य विधि वसु. श्रा./२७१-२७२ धरिऊण वत्थमेत्तं परिगह छडिऊण अवसेसं । सगिहे जिणालए बा ति विहाहारस्स बोसरणं ।२७१। जं कुणइ गुरुसयासम्मि सम्ममालोइऊण तिविहेण । सल्लेखणं चउत्थं मुत्ते सिक्वावयं भणियं ।२७२।-[उपरोक्त दोनों शीर्षकोंमें कथित राग द्वेषका त्याग, समता धारण और परिजनों आदिसे क्षमा आदिकी यहाँ भी अनुवृत्ति कर लेनी चाहिए ] वस्त्रमात्र परिग्रहको रखकर और अवशिष्ट समस्त परिग्रहको छोड़कर अपने ही घरमें अथवा जिनालयमें रहकर जो श्रात्रक गुरुके समीपमें मन वचन कायसे अपनी भले प्रकार आलोचना करके पानके सिवाय शेष तीन प्रकारके आहारका (खाद्य, स्वाद्य और लेह्य इन तीनका) त्याग करता है, उसे उपासकाध्ययन सूत्र में सल्लेखना नामका चौथा शिक्षाबत कहा गया है ।२७१-२७२। सा, ध./८/६६-ज्याध्याद्यवेक्षयाम्भो वा समाध्यर्थ विकल्पयेत् । भृशं शक्तिक्षये जह्यात्तदप्यासन्नमृत्युकः ६६ व्याधि आदिकी अपेक्षासे समाधिमें निश्चल होनेके लिए उस क्षपकको गुरुकी आज्ञानुसार केवल पानी पीनेकी प्रतिज्ञा रख लेनी चाहिए। और मृत्युका समय निकट आनेपर जम शरीरकी शक्ति अत्यन्त क्षीण हो जाय तब उसे जलका भी स्याग कर देना चाहिए ।६६ ( और भी दे. सग्लेखना/४/११३) । दे. मरण/१/४ [ बिना सबलेख ना धारण किये अपने घर में ही संस्तरारूढ हो साम्यता पूर्वक शरीरको त्यागना बालपण्डित मरण है ] । १०. सविचार व अविचार भक्त प्रत्याख्यानके सामान्य लक्षण व स्वामी भ. आ./वि./६५/१६२/६ द्विविधमेव भक्त प्रत्यारण्यानं । सविचारमध अविचार इति । विचरणं नानागमन विचारः। विचारेण वर्तते इति सविचारं एतदुक्तं भवति। वक्ष्यमाणाह लिङ्गादि विकल्पेन सहित भक्तप्रत्याख्यान इति । अविचार वक्ष्यमाणा दिनानाप्रकाररहित । भवतु द्विविधं । सविचारभक्तप्रत्याख्यान कस्य भवति इत्यस्योत्तरं। सविचार भक्तप्रत्याख्यानं अणागाढे सहसा अनुपस्थिते मरणे चिरकालभाविनि मरणे इति यावत् । सपरक्कमस्स सह पराक्रमेण वर्तते इति सपराक्रमस्तस्य भवे भवेत् । पराक्रमः उत्साहः एतेनैव सहसोपस्थिते मरणे पराक्रमरहितस्य अविचारभक्तप्रत्याख्यानं भवतीति लभ्यते यतो विचारभक्तप्रत्याख्यानं अस्य अस्मिन्काले इति सूत्रे नोक्त। -भक्तपश्याख्यानमरणके सविचार व अविचार ऐसे दो भेद हैं। तहाँ नाना प्रकारसे चारित्र पालना, चारित्रमें विहार करना विचार है । इस विचारके अर्ह, लिंग आदि ४० अधिकार हैं जिनका विवेचन आगे करेंगे (दे. सरलेखना/४) उस विचारके साथ जो वर्तता है वह सविचार है और जो उन अह लिंगादि रूप विचारके विकल्पोंके साथ नहीं वर्तता सो अविचार है। तहाँ जो गृहस्थ अथवा मुनि उत्साह व बलयुक्त है और जिसका मरणकाल सहसा उपस्थित नहीं हुआ है अर्थात जिसका मरण दीर्घकालके अनन्तर प्राप्त होगा ऐसे साधुके मरणको सविचारभक्तप्रत्याख्यान मरण कहते हैं। जिसको सामर्थ्य नहीं है और जिसका मरणकाल सहसा उपस्थित हुआ है ऐसे पराक्रमरहित साधुके मरणको अविचारभक्त प्रत्याख्यान कहते हैं। [तहाँ सविचार विधि तो आगे सल्लेखना/४ के अन्तर्गत पृथक्से सविस्तार दी गयी है और अविचार विधि निम्न प्रकार है।] ११. अविचार भक्तप्रत्याख्यान विधि भ. आ./मू./२०११-२०२४ तस्य अविचारभत्तपइण्णा मरणमिम होइ आगाढो । अपरक्कमस्स मुणिणो कालम्मि असं पुहत्तम्मि ।२०११तत्थ पढमं णिरुद्धं णिरुद्धतरयं तहा हवे विदियं । तदियं परमणिरुद्धं एवं तिविधं अवीचार ।२०१२। तस्स णिरुद्ध भणिदं रोगादंकेहिं जो समभिभूयो । जंघाबलपरिहीणो परगणगमणम्मि ण समत्थो ।२०१३।। इय सण्णिरुद्वमरणं मणिय अणिहारिमं अवीचारं । सा चेन जधाजोग्गं पुब्वुत्तविधी हव दि तस्स ।२०१५। दुविहं तं पि अणीहारिमं पयासं च अप्पगासं च । जणणादं च पगासं इदरं च जणेण अण्णादं ।२०१६। खवयस्स चित्तसारं वित्तं कालं पडुच्च सजणं बा। अण्णम्मि य । तारिसयम्मि कारणे अप्पगासं तु ।२०१७ बालग्गिवग्घम हिसगयरिंछ पडिणीय तेण मेच्छेहि। मुच्छाविसूचियादीहि होज्ज सज्जो हु वावत्ती॥२०१८। जाव ण बाया खिप्पदि बलं च विरियं च जाव कायम्मि । तिव्वाए वेदणाए जाव य चित्तं ण विक्रवत्तं ।१२१६। णच्चा संवटिज तमाउगं सिग्धमेव तो भिक्खू । गणियादीणं सण्णिहिदाणं आलोचए सम्म ।२०२०। एवं णिरुद्धदरयं विदियं अणिहारिमं अवीचार। सो चेव जधाजोग्गे पुटवुत्तविधी हवदि तस्स ।२०२१॥ बालादिएहिं जइया अक्वित्ता होज्ज भिक्खुणो वाया। तइया', परमणिरुद्वधं भणिदं मरणं अवीचारं ।२०२२। णचा संवट्टिर्ज तमाउन सिग्धमेव तो भिक्खू । अरहंतसिद्धसाहूण अंतिगे सिग्धमालोचे ।२०२३॥ आराधणाविधी जो पुर्व उववण्णिदो सविस्थारो। सो चेक जुज्जमाणो एत्य विही होदि णादब्यो ।२०२४। - पराक्रमरहित मुनिको सहसा मरण उपस्थित होनेपर अविचारभक्त प्रत्या ख्यान करना योग्य है ।२०१२। वह तीन प्रकारका है-निरुद्ध, निरुद्धतर व परमनिरुद्धतर व परमनिरुद्ध ।२०१२। रोगोंसे पीड़ित होनेके कारण जिसका जंघाचल क्षीण हो गया है और जो परमणर्मेन जानेको समर्थ नहीं है, वह मुनि निरुद्ध अविचार भक्तप्रत्याख्यान ९. मृत्युका संशय या निश्चय होनेकी अपेक्षा भक्तप्रत्याख्यान विधि मू. आ./११२-११४ एदम्हि देसयाले उबस्कमो जीविदस्स, जदि मज्झ । एवं पच्चक्खाणं णित्यिण्णे पारणा होज्जं ।११। सवं आहारविहि पवक्रवामी य पाणयं वज्ज । उवहिं च बोसरामि य दुविहे ति विहेण सावज्ज ११३। जो कोइ मज्झ उवधी सम्भंतरवाहिरो य हवे। आहार च सरीरं जाबाजीव य बोसरे ।११४।-जीवितमें सन्देह होने की अवस्थामें ऐसा विचार करे कि इस देशमें इस काल में मेरा जीनेका सद्भाव रहेगा तो ऐसा त्याग है कि जब तक उपसर्ग रहेगा तब तक आहारादिकका त्याग है । उपसर्ग दूर होनेके पश्चात् यदि जीवित रहा तो फिर पारणा करूगा ।११२१ ( पर जहाँ निश्चय हो जाय कि इस उपसर्गादिमें मैं नहीं जी सकूँगा वहाँ ऐसा त्याग करे ।] मैं जलको छोड़ अन्य तीन प्रकारके आहारका त्याग करता हूँ। बाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहको तथा मन वचन कायकी पाप क्रियाओंको छोड़ता हूँ।११३। जो कुछ मेरे अभ्यन्तर बाह्य परिग्रह है उसे तथा चारों प्रकारके आहारोंको और अपने शरीरको यावज्जीवन छोड़ता हूँ। यही उत्तमार्थ त्याग है ।११४॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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