________________
सल्लेखना
३८६
३. भक्तप्रत्याख्यान आदि विधि निर्देश
विराधना को जाय तो वह निष्फल हो जाता है। और यदि मरनेके समय उस धर्मकी आराधना की जाय तो वह चिर कालके उपाजित पापोंका भी नाश कर देता है।
६. परन्तु केवल अन्त समयमें धरना अत्यन्त कठिन है भ.आ./म.व, वि./२४/८३ चिरमभावितरत्नत्रयाणामन्तर्मुहर्तकाल
भावनानां सिद्धिरिष्यते तम्कि चिरभावनयेत्यस्योत्तरमाचष्टे'पुरमभाविदजोग्गो आराधेज्ज मरणे जदि 'वि कोई। खण्णुगदिद्रुतो सो तं खु पमाणं ण सम्वत्य ।२४। = जिन्होंने बहुत कालपर्यंत रत्नत्रयका आराधन नहीं किया परन्तु केवल अंतमुहूर्त कालपर्यन्त ही आराधन किया है, उनको भी मोक्षलाभ हो गया है। • अतः चिरकाल पर्यन्त रत्नत्रयको भावना आवश्यक नहीं है। उत्तरपूर्व काल में जिस जीवने रत्नत्रयका कभी आराधन नहीं किया है, वह मरणसमय उसकी आराधना करले, ऐसा व्यक्ति स्थानुके दृष्टान्तको प्राप्त होता है । अर्थात बिलकुल उस अन्धे व्यक्तिकी भाँति है जो कि अकस्मात स्थानुसे सर टकरा जानेके कारण नेत्रवान हो गया है और साथ ही उस स्थानकी जड़में पड़े रत्नका लाभ भी जिसे हो गया हो ।२४
आराधक होता है ।१८४ तीर्थ क्षेत्र या निर्यापकके प्रति प्रारम्भ कर दिया है गमन जिसने, ऐसा व्यक्ति यदि मार्गमें मरणको प्राप्त हो जाये तो भी उस भावनाके कारण आराधक ही गिना जाता है, क्योंकि भावना भवनाशिनी होती है।३०।
८. अन्त समय व जीवन पर्यन्तकी आराधनाका समन्वय भ. आ./वि./१८/६८/६ मरणे या विराधना सा महती संसृतिमावहति ।
अन्यदा जातायामपि बिराधनाया मृतकाले रत्नत्रयोपगतौ संसारोच्छित्तिर्भवत्येव ततो मरणकाले प्रयत्नः कार्य इत्यस्माभिरुपन्यस्तम्। इतरकालवृत्तं तु रत्नत्रयं संबरनिजरयो तिकर्मण च क्षयकारणनिमित्त इतोष्यत एव । मरण समयमें रत्नत्रयकी विराधना करनेसे विराधकको दीर्घकालतक संसार में भ्रमण करना पड़ता है। परन्तु दीक्षा, शिक्षा आदि काल (दे. काल) में विराधना हो गयी हो तो भो मरणकाल में रत्नत्रयकी प्राप्ति हो जानेसे संसारका नाश हो जाता है। अतः मरणकालमें रत्नत्रयमें परिणति करनी चाहिए। ऐसा हमारा अभिप्राय है। परन्तु इतर कालोंमें की गयी आगधना भी विफल नहीं होती, उससे कर्मका संवर व निर्जरा होती है, तथा घाती कर्मोंके क्षय करने में वह निमित्त होगी, ऐसा हम समझते हैं।
७. अतः सल्लेखनाकी भावना व अभ्यास जीवन पर्यन्त करना योग्य है
भ. आ./भू./१८-२१ जदि पक्यणस्स सारो मरणे आराहणा हदि दिट्ठा।
किं दाई सेसकाले जदि जददि तवे चरित य १८ आराहणाए कज्जे परियम्म सम्बदा वि य कायब्वं । परियम्मभाविदस्स हु सुहसज्झाराहणा होइ ।१६। जह रायकुलपसूओ जोरगं णिच्चमावि कुणह परिकम्मं । तो जिदकरणो जुइधे कम्मसमत्थो भविस्सदि हि २० इय सामण्णं साधू वि कुणदि णिच्चमवि जोगपरियम्म। तो जिद करणो मरणे माणसमत्यो भविस्संति।२१-प्रश्न -आगमकी सारभूत रत्नजयपरिणति मरणकालमें यदि होती हुई देखी जाती है तो उससे भिन्न कालमें चारित्र व तपश्चरण करने की क्या आवश्यकता है। ११८० उत्तर-मरण समयमें रत्नत्रयको सिद्धिके लिए सम्यग्दर्शनादि कारगकलाप सामग्रीकी अवश्य प्राप्ति कर लेना चाहिए, अर्थात् उसका सर्वदा अभ्यास करना योग्य है, क्योंकि ऐसा करनेवालेको मरण समय में सुखपूर्वक अर्थात बिना क्लेशके उस आराधनाकी सिद्धि हो जाती है ।१६। जेसे राजपुत्र शस्त्रविद्याका नित्य अभ्यास करता है और उसीसे वह युद्ध में उस प्रकारका कर्म करनेको समर्थ होता है .२०। इसी प्रकार साधु भी आराधनाके योग्य नित्य अभ्यास करता है, इसीसे वह जितेन्द्रिय होता हुआ मरण समय ध्यान करनेको समर्थ हो जाता है ।२१। पु. सि, उ /१७५-१७६ इयमे कैव समर्था धर्मस्व मे मया समं नेतुम् । सततमिति भावनोया पश्चिमसल्लेखना भक्त्या। ।१७५१ मरणान्तेडवश्यमहं विधिना सल्लेखना करिष्यामि। इति भावनापरिणतो नागतमपि पालयेदिदं शीलम् ॥६७६। यह एक ही सक्लेखना मेरे धर्मरूपो धनको मेरे साथ ले चलनेको समर्थ है। इस प्रकार भक्ति करके मरणान्त सल्लेखनाको निरन्तर भावना वाहिए।१७। मैं मरण कालमें अवश्य ही शास्त्रोक्त विधिसे समाधिमरण करूगा इस प्रकार भावनारूप परिणति करके मरणकाल प्राप्त होनेके पहले ही यह सल्लेवनाबत पालना चाहिए।१७६ (सा. ध/७/१७) सा. ध./८/१८-३१ सम्यग्भावितमार्गोऽन्ते स्यादेवाराधको यदि। प्रति
रोधि सुदुर' किंचिन्नोदेति दुष्कृतम् ।१८, प्रस्थितां यदि तीर्थाय म्रियते बान्तरे तदा । अस्त्येवाराधको यस्मादभावना भवनाशिनी ।३१। यदि कोई दुनिबार प्रतिरोधी कर्म उदयमें न आवे तो सम्यक् प्रकारसे पूर्व में भावित रत्नत्रयके कारण वह अन्तकालमें अवश्य हो
३. भक्तप्रत्याख्यान आदि विधि निर्देश
१. सल्लेखनामरणके व विधिके भेद दे. मरण/१/४.[पण्डितमरण तीन प्रकार है-भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी व प्रायोपगमन । भक्तप्रत्याख्यान दो प्रकार है-सविचार व अविचार। अविचार तीन प्रकार है-निरुद्धतर व परम निरुद्ध । निरुद्ध दो प्रकार है-प्रकाशरूप और अप्रकाशरूप) भ. आ./मू./१५५/३५२ किण्णु अधालंदविधी भत्तपइण्णे गिणी य परिहारो। पादोवगमण जिणकप्पियं च विहरामि पडिवण्णो ।१५।अथालन्द विधि, भक्तप्रतिज्ञा, इंगिनीमरण, परिहार विशुद्धि, चारित्र, पादोपगमन, मरण और जिनकल्पावस्था, इनमें से कौन-सी अवस्थाका आश्रय कर मैं रत्नत्रयमें विहार करू ऐसा विचार करके साधुको, धारण करने योग्य अवस्थाको धारण करके समाधिमरण करना चाहिए।
२. भक्त प्रत्याख्यान आदि तीनके लक्षण ध. १/१,१,१/२३/४ तत्रारमपरोपकारनिरपेक्ष प्रायोपगमनम्। आत्मोपकारसव्यपेक्षं परोपकारनिरपेक्षं इंगिनीमरणम् । आत्मपर पकारसम्यपेझ भक्तप्रत्याख्यानमिति ।-[भोजनका क्रमिक त्याग करके शरीरको कृश करनेको अपेक्षा तीनों समान हैं। अन्तर है शरीरके प्रति उपेक्षा भावमें] तहाँ अपने और परके उपकारकी अपेक्षा रहित समाधिमरणको प्रायोपगमन विधान कहते हैं। जिस संन्यासमें: अपने द्वारा किये गये उपकारकी अपेक्षा रहती है किन्तु दूसरेके द्वारा किये गये वैयावृत्त्य आदि उपकारकी अपेक्षा सर्वथा नहीं रहती, उसे इंगिनी समाधि कहते हैं । जिस संन्यासमें अपने और दूसरे दोनों के द्वारा किये गये उपकारको अपेक्षा रहती है, उसे भक्तप्रत्याख्यान संन्यास कहते हैं । (भ. आ/वि/२०६४/१४६१): (गो.क /./६१/५७) (चा. सा./१५४/४); (भा. पा./टी/३२/११६/१४) भ, आ./वि./२६/११३/८ पादाम्यामुपगमनं ढोकन तेन प्रवर्तितं मरणं पादोपगमनमरणम् । इतरमरणयोरपि पादाभ्यामुपगमनमस्तीति त्रवि ध्यानुपपत्तिरिति चेन्न, मरणविषे वक्ष्यमाणलक्षणं रूढिरूपेणाय प्रवतं ते...... अथवा पाउग्गगमणमरणं इति पाठः। भवान्तकरणप्रायोग्यं संहननं संस्थान च इह प्रायोग्यशब्देनोच्यते। अस्य गमन प्राप्तिः, तेन कारणभूतेन यन्निवर्त्य करणं तदुच्यते पाउग्गगमणन
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org