________________
सल्लेखना
३८५
२. सल्लेखनाके योग्य अक्सर
दे. अथालंद-जो साधु बल, वीर्य, धैर्य व स्थिरतामें हीन होनेके कारण
परिहार विधि या भक्त प्रत्याख्यान आदि विधियोंको धारण करने में समर्थ नहीं हैं, वे अथालंद विधिको धारण करते हैं।)
१६. सल्लेखनाके लिए हेमन्त ऋतु उपयुक्त है भ.आ./मू./६३१/८३२ एवं वासारते फासेद्रण विविधं तवोकर्म । संथार
पडिबज्जदि हेमंते सुहविह रंम्मि १६३१ - इस प्रकारसे वर्षाकाल में नाना प्रकार के तप कर वह क्षपक जिसमें अनशनादि करने पर भी महान् कष्टका अनुभव नहीं आता है, ऐसे हेमन्तकालमें संस्तरका आश्रय करता है ।६३१॥
२. निर्यापककी उपलब्धिकी अपेक्षा भ.आ./मू./७५/२०४ उस्सरह जस्स चिरमवि सुहेण सामण्णमणदिचार
बा। णिज्जावया य सुलहा दुब्भिवखभयं च जदि णस्थि ।७५। भ.आ/वि./७५/२०५/१ इदानीमहं यदि न त्यागं कुर्या निर्यापकाः पुनर्न लप्स्यन्ते सूरयस्तदभावे नाहं पण्डितमरणमाराधयितुं शक्नोमि इति यदि भयमस्ति भक्तप्रत्याख्यानाह एव । -जिस मुनीश्वरका चारित्रपालन सुखपूर्वक व निरतिचार हो रहा है, तथा जिसका निर्यापक भी मुलभ हो और जिसे दुर्भिक्ष आदिका भी भय न हो, ऐसा मुनीश्वर यद्यपि भक्त प्रत्याख्यान के अयोग्य है ७॥ तो भी 'इस समय यदि मैं भक्तप्रत्याख्यान न करूं और आगे यदि निर्यापकाचार्य कदाचित् न मिले तो मैं पंडितमरण न साध सकंगा' ऐसा जिसको भय हो तो वह मुनि भक्त प्रत्याख्यानके योग्य ही है।
३. योग्य कारणों के अभावमें सल्लेखना धारनेका निषेध भ.आ./म./७६/२०५ तस्स ण कप्पदि भत्तपणं अणुवटिठ्ठदे भये
पुरदो। सो मरणं पच्छिंतो होदि हु सामण्णणिविणो।७६- पूर्व में कहे गये सर्व भयोंके उपस्थित न होनेपर भी जो मुनि मरणकी इच्छा करेगा, वह मुनि चारित्रसे विरक्त है ऐसा समझना चाहिए। दे. शीर्षक नं.२-[ जिसका चारित्र निर्विघ्न पल रहा है और जिसे निर्यापक भी सुलभ हैं और दुर्भिक्ष आदिका भी भय नहीं है. वह भक्तप्रत्याख्यानके अयोग्य है।]
२ सल्लेखनाके योग्य अवसर
१. सल्लेखना योग्य शरीर क्षेत्र व काल भ आ./मू./७१-७४ वाहिन्न दुप्पसज्मा जरा य समण्णजोग्गहाणिकरी । उबसग्गा वा देवियमाणुसतेरिच्छया जस्स १७१३ अणुलोमा वा सल चारित्तविणासया हवे जस्स। दुभिक्खे वा गाढे अडवीए विप्पणट्ठो बा ।७२। चक्रवं वा दुब्बलं जस्स होज्ज सोदं व दुब्नलं जस्स। जंघावल परिहीणो जो ण समत्थो विहरिदु वा ।७३। अण्ण म्मि चावि एदारिसंम्मि आगाढकारणे जादे। अरिहो भत्तपइण्णाए होदि विरदो अविरदो बा ७४। -महाप्रयत्नसे चिकित्सा करने योग्य ऐसा कोई दुरुत्तर रोगहोनेपर, श्रामण्यकी हानि करनेवाली अतिशय वृद्धावस्था आने पर, अथवा निःप्रतिकार देव मनुष्य व तिर्यचकृत उपसर्ग आ पड़नेपर ७११ ( लोभ आदिके वशीभूत हुए ऐसे ) अनुकूल शत्रु जब चारित्रका नाश करनेको उद्य क्त हो जायें, भयंकर दुष्काल आ पड़नेपर, हिंसक पशुओंसे पूर्ण भयानक वनमें दिशाभूल जानेपर १७२। आँरत्र, कान व जंघा बल अत्यन्त क्षीण हो जानेपर १७३। तथा इनके अतिरिक्त अन्य भी तत्सदृश कारणोंके होनेपर मुनि या गृहस्थ भक्त प्रत्याख्यान ( शरीर त्याग) के योग्य समझे जाते हैं ७४ क.श्रा /१२२ उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निष्प्रतीकारे। धर्माय सनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ।१२२। -निष्प्रतिकार उपसर्ग आनेपर, दुर्भिक्ष होनेपर, बुढ़ापा आनेपर, और मृत्युदायक रोग होनेपर धमर्थ शरीर छोड़नेको सल्लेखना कहते हैं ।१२२॥ (चा.सा/ ४०/१) रा.पा./७/२२/११/१५१/२८/ जरारोगेन्द्रियहानिभिरावश्यकपरिक्ष्ये ॥११॥ -- जरा, रोग, इन्द्रिय व शरीर अलकी हानि तथा षडावश्यकका नाश होनेपर सल्लेखना होती है। सा.ध./८/९-१० कालेन बोपसर्गेण निश्चित्यायुः क्षयोन्मुखं । कृत्वा यथाविधि प्रायं तास्ताः सफलये क्रिया ।।। देहादिव कृतैः सम्यग्निमित्तेश्च सुनिश्चित्ते। मृत्यावाराधनामग्नयतेदूरे न तत्पदं ।१०। -स्वकाल पाकद्वारा अथवा उपसर्ग द्वारा निश्चित रूपसे आयुका क्षय सन्मुख होनेपर यथाविधि रूपसे संन्यासमरण धारकर सकल क्रियाओंको सफल करना चाहिए ।। जिनके होनेपर शरीर ठहर नहीं सकता ऐमे सुनिश्चित देहादि विकारों के होनेपर, अथवा उसके कारण उपस्थित हो जानेपर अथवा आयुका क्षय निश्चित हो जाने पर निश्चयसे आराधनाओंके चिन्तवन करने में मग्न होता है, उसे मोक्ष पद दूर नहीं ॥१०॥ दै. सग्लेखना/३/१० [स्व कालपाकवश आयु क्षय होनेपर सविचार भक्त प्रत्याख्यान धारा जाता है और अकस्माद आयुक्षय होने पर अविचार भक्त प्रत्याख्यान धारा जाता है।
४. अन्त समय में धारनेका निर्देश त.सू./७/२२ मारणान्तिकी सक्लेखना जोषिता ।२२। स.सि./७/२२/३६२/१२ 'अन्तग्रहणं' तद्भवमरणप्रतिपत्त्यर्थम् । मरण
मन्तो मरणान्तः । स प्रयोजनमस्येति मारणान्तिकी। -तथा वह श्रावक मारणान्तिक सल्लेखनाका प्रीति पूर्वक सेवन करनेवाला होता है। उसी भवके मरणका ज्ञान कराने के लिए सूत्र में मरण शब्दके साथ अन्त पदका ग्रहण किया है,। मरण यही अन्त मरणान्त है और जिसका यह मरणान्त ही प्रयोजन है वह मारणान्तिकी कहलाती
है । (रा.वा./७/२२/२/५५०/२१); (चा.सा./४७/५) दे. श्रावक/९/३/[अन्त समय समाधिमरण धरनेवाला श्रावक साधक कहलाता है।
५. अन्त समयकी प्रधानताका कारण भ.आ./मू./ गा. जो जाए परिणिमित्ता लेस्साए संजुदो कुणइ कालं ।
तल्लेत्सो उववज्जइतरलेस्से चेव सो सग्गे १६२२। जदि दा सुभाविदप्पा वि चरिमकालम्मि संकिलेसेण । परिवदि वेदणट्ठो खवओ संथारमारूढो ।१६४८। सुचिरम वि णिरदिच.र विहरिता जाणदसणचरित्ते। मरणे विराधयित्ता अणंतस सारिओ दिट्ठो ।१५ -जो जीव जिस लेश्यासे परिणत होकर मरणको प्राप्त होता है, वह उत्तर भवमें उसी लेश्याका धारक होकर स्वर्गमें उत्पन्न होता है ।१६२२ जिसने अत्माको आराधनाओंसे सुसंस्कृत किया था, तो भी मरणसमय संबलेशपरिणामों की उत्पत्ति होने से वह संस्तरपर आरूढ हुआ श्रमण सन्मार्गसे भ्रष्ट होता है ।१६४८। पूर्व में न आराधी गयी रत्नत्रयकी आराधनाको यदि अन्तकालमें कोई भाये तो वह जीव स्थानुके दृष्टान्तको प्राप्त होता है (अर्थात जैसे अन्धेको स्तम्भसे टकराकर नेत्र खुल जानेसे भाग्य वश वहाँसे रत्नप्राप्ति हो जाय ऐसे ही उसे समझना १२४) सा.घ./८/१६ आराद्धोऽपि चिरं धर्मो विराद्धो मरणे मुधा। सत्वाराद्धस्तत्क्षणेऽहः क्षिपत्य पि चिराजितं १९६६ - चिर कालसे आराधन किया हुआ धर्म भी यदि मरनेके समय छोड़ दिया जाय वा उसकी
भा०४-४९
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org