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सल्लेखना
१. सल्लेखना सामान्य निर्देश
न.
चदुक्खध। कम्मरयविप्पमुक्का तेणेब भवेण सिझति १२१६०। आराधयित्तु धीरा मज्झिममाराहणं चदुक्खध । कम्मरयविप्पमुक्का
संस्तरधारण
मरणकालका तच्चेण भवेण सिझति ।२१६११ आराधयित्तु धीरा जहण्णमाराहणं
कालका नक्षत्र
समय चदुक्रबंध । कम्मरयविष्पमुक्का सत्तमजम्मेण सिझति ।२१६२ -
नक्षत्र १. जो यति एक भवमें समाधिमरणसे मरण करता है वह अनेक भव धारण कर संसार में भ्रमण नहीं करता। उसको सात आठ भव १० मघा
मघा या इससे अगला
दिन धारण करनेके पश्चात् अवश्य मोक्षकी प्राप्ति होगी।६८२॥ (मू.आ/ ११ / पूर्व फाल्गुनी धनिष्ठा
दिन १९८)। २. बालपंडित मरणसे मरण करनेवाला श्रावक (दे.मरण/१/४) उत्तर फाल्गुनी मूल
सायं उत्कृष्टतासे सात भवों में नियमसे सिद्ध होता है ।२०८६-२०७४ |१३
भरणी
दिन ३. चार प्रकारके इस ( दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप) आराधनाको १४ चित्रा ।
मृगशिर
अर्धरात्रि जो उत्कृष्ट रूपसे आराधता है वह उसी भवमें मुक्त होता है, जो स्वाति रेवती
प्रभात मध्यमरूपसे आराधता है वह तृतीय भवसे मुक्त होता है, और जो विशाखा आश्लेषा जघन्य रूपसे आराधता है वह सातवें भवमें सिद्ध होता है आश्लेषा पूर्वभाद्रपद
दिन १२१६०-६२० ।
ज्येष्ठा
प्रभात प.पु/१४/२०४ भावानामेवमष्टानामन्तः कृत्वानुवर्तनम् । रत्नत्रयस्य पूर्वाषाढ़ मृगशिर
रातका निर्ग्रन्थो भूत्वा सिद्धिं समश्नुते ।२०४। -[जो गृहस्थधर्मका
प्रारम्भ पालन कर समाधि पूर्वक मरण करता है-(दे. शीर्षक सं.१० में प. उत्तराषाढ़ उत्तराषाढ अथवा भाद्रपद अपराह पु./१४/२०३) ] ऐसा जीव अधिकसे अधिक आठ भवोंमें रत्नत्रयका श्रवण
उत्तरभाद्रपद
दिन पालनकर अन्तमें निर्ग्रन्थ हो सिद्धपदको प्राप्त होता है ।२०४।
धनिष्ठा धनिष्ठा या उससे अगला दिन धर्मपरीक्षा/RE/R६ का भाषार्थ-जो सुधी पुरुष कषाय निदान और शतभिषज ज्येष्ठा
सूर्यास्त मिथ्यात्व रहित होकर संन्यास विधिके धारणपूर्वक मरण करते हैं, पूर्वभाद्रपद
पुनर्वसु
रात वे मनुष्य देवलोकमें सुखोंको भोगकर २१ भवके भीतर मोक्षपदको उत्तर भाद्रपद उत्तरभाद्रपद
दिन या रात प्राप्त होते हैं।
रेवती मृगशिर १२. सल्लेखनामें सम्मव लेश्याएँ भ.आ./मू./१९१८-१९२१ सुक्काए लेस्साए उक्कस्सं अंसयं परिणमित्ता।
जो मरदि सो हु णियमा उक्कस्साराधो होई ।१६१८। जे सेसा १४. सल्लेखनाका स्वामित्व मुक्काए दु अंसया जे य पम्मलेस्साए । तब्लेस्सापरिणामो दु मज्झिमाराधणा मरणे ।१९२०॥ तेजाए लेस्साए ये अंसा तेमु जो परिणमित्ता।
रा.वा./७/२२/१४/५५२/३ अयं सग्लेखनाविधिः न श्रावकस्यैव दिग्विरकाल करे। तस्स हु जहणियाराधणा भणदि।१२१शुक्ललेश्या
त्यादि शीलवतः । कि तहि । संयतस्यापीति अविशेषज्ञापमार्थ वाता के उत्कृष्ट अंश से परिणत होकर मरनेवालाक्षपक उत्कृष्ट आराधक है
पृथगुपदेशः कृतः। -यह सरलेखनाविधि शीलवतधारी गृहस्थको ११९१८५ शुक्ल लेश्याके शेष मध्यम व जघन्य अंश और पालेश्याके
ही नहीं है, किन्तु महावती साधुके भी होती है। इस सामान्य सर्व अंशोंसे परिणमित होकर मरनेवाला मध्यम आराधक है ।१६२०॥
नियमकी सूचना पृथक् सूत्र मनानेसे मिल जाती है। और पीत लेश्याके सर्व अंशोंसे परिणमित होकर मरनेवाला
दे. सल्लेखना/२/१ में भ.आ./७४-[गृहस्थ व साधु दोनों ही भक्तप्रत्याजघन्य आराधक है।
ख्यानके योग्य समझे जाते हैं।]
दे. सक्लेखना/// [गृहस्थ भी व्रत और शीलोंकी रक्षा करनेके लिए १३. संस्तर धारण व मरणकाल में परस्पर सम्बन्ध
सक्लेखना धारण करता है] भ.आ./अमितगति कृत प्रशस्ति/पृ.१८७५--
दे. सग्लेखना/२/४ [ श्रावक प्रीति पूर्वक मारणान्तिकी सन्लेखना
धारण करता है। संस्तरधारण
दे. सक्लेखना/२/७ में पु.सि.उ./१७६ [ 'मैं मरण कालमें अवश्य समाधिमरणकालका
मरण करूगा' श्रावकको ऐसी भावना नित्य भानी चाहिए।] कालका
समय नक्षत्र
दे, मरण/१/४ [भक्त प्रत्याख्यान आदि पंडित मरण मुनियोको होता है।
नक्षत्र
१५. सभी बतियोंको सल्लेखना आवश्यक नहीं
अश्विनी भरणी कृत्तिका रोहिणी मृगशिर
रात प्रभात मध्याह्न अर्धरात्रि
स्वाति रेवती उत्तर फाल्गुनी श्रवण पूर्व फाल्गुनी उत्तरा या इससे अगला अश्विनी मृगशिर चित्रा
आर्दा
दिन अपराह्न
रा.वा./७/२२/१२/१५१/३४ स्यादेतव-पूर्वसूत्रेण सह एक एव योगः कर्तव्यः लध्वर्थ इतिः तन्न; किं कारणम् । कदाचित् कस्यचिव ता प्रत्याभिमुरव्यज्ञापनार्थत्वात्। सप्ततपशीलवतः कदाचित् कस्यचिव गृहिणः सग्लेखनाभिमुख्यं न सर्वस्येति ।-प्रश्न-इस सूत्रको पहले सूत्रके साथ ही मिला देना योग्य था, क्योंकि. ऐसा करनेसे सूत्र छोटा हो जाता! उत्तर-नहीं, क्योंकि, कभी-कभी तथा किसी किसीको ही सग्लेखनाकी अभिमुखता होती है, यह मात बतानेके लिए पृथक सूत्र बनाया गया है। सात शील व्रतोंको धारनेवाला कोई एक आध गृहस्थ ही कदाचित सल्लेखनाके अभिमुख होता है, सब नहीं।
पुनर्व
पुष्य
आश्लेषा
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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