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सल्लेखना
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१. सल्लेखना सामान्य निर्देश
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निर्यापकोंकी संख्याका प्रमाण । सर्व निर्यापकोंमें कर्तव्य विभाग। क्षपककी वैयावृत्ति करते हैं। आहार दिखाकर वैराग्य उत्पन्न कराना । कदाचित् क्षपकको उग्र वेदनाका उद्रेक । उपर्युक्त दशामें भी उसका त्याग नहीं करते। यथावसर उपदेश देते हैं। १. सामान्य निर्देश। २. वेदनाको उग्रतामें सारणात्मक उपदेश । ३. प्रतिज्ञाको कवच करनेके अर्थ उपदेश ।
लक्षणमें कषायौंको कृश करना तो अभ्यन्तर सल्लेरखना है और
शरीरको कृश करना बाह्य सल्लेखना है। पं. का./ता,वृ./९७३/२५३/१७ आत्मसंस्कारानन्तरं तदर्थ मेव क्रोधादिकषायरहितामन्तज्ञानादिगुणलक्षणपरमात्मपदार्थ स्थित्वा रागादिविकल्पानां सम्यग्लेखनं तनुकरणं भावसरलेखना, तदर्थ कायक्लेशानुष्ठानं द्रव्यसल्लेखना, तदुभयाचरणं स सहलेखनाकालः । = आत्मसंस्कार (दे. काल/१/६) के अनन्तर उसके लिए ही क्रोधादि कषायरहित अनन्तज्ञानादि गुणलक्षण परमात्मपदार्थ में स्थित होकर रागादि विकल्पोंका कृश करना भाव सल्लेखना है, और उस भाव सल्लेखनाके लिए कायक्लेशरूप अनुष्ठान करना अर्थात भोजन आदिका त्याग करके शरीरको कृश करना द्रव्य सल्लेखना है। इन दोनों रूप आचरण करना सल्लेखना काल है।
मृत शरीरका विसर्जन व फल विचार शरीर क्षेपण योग्य निषयका।
-दे. निषीधिका। संस्तर ग्रहण व मरणकालमें परस्पर सम्बन्ध
दे. सग्लेखना/१/१३॥ शव विसर्जन विधि। शरीर विसर्जनके पश्चात् संघका कर्तव्य । फल विचार१.निषीधिकाकी दिशाओंपर से। २. शवके संस्तरपर से। ३. नक्षत्रोंपरसे। ४, शरीरके अंगोपांगोंपरसे।
१. सल्लेखना सामान्य निर्देश १. सल्लेखना सामान्यका लक्षण स.सि/७/२२/३६३/१ सम्यक्कायकषायलेखना सल्लेरखना। कायस्य बाह्यस्याभ्यन्तराणां च कषायाणां तत्कारणहापनक्रमेण सम्यग्लेखना सल्लेखना। -अच्छे प्रकारसे काय और कषायका लेखन करना अर्थात् कृश करना सल्लेखना है। अर्थात् बाहरी शरीरका और भीतरी कषायोंका, उत्तरोत्तर काय और कषायको पुष्ट करनेवाले कारणोंको घटाते हुए भले प्रकारसे लेखन करना अर्थात कृश करना सल्लेखना है। (स.सि./७/२२/३/१९०/२३); (भ.आ./वि./१५०/
३६६/१२)। दे. सल्लेरखना/२/१ [ दुर्भिक्ष आदिके उपस्थित होनेपर धर्म के अर्थ
शरीरका त्याग करना सल्लेखना है। दे, निक्षेप//५/२ [कदलीघातके बिना बहिरंग और अन्तरंग परिग्रहका त्याग करके जीवन व मरणकी आशासे रहित छूटा हुआ शरीर त्यक्त शरीर कहलाता है, जो भक्तप्रत्याख्यान आदिकी अपेक्षा तीन प्रकारका है।
३. शरीर कृश करनेका उपाय भ.आ./मू./२४६-२४६ उल्लीणोलीणे हि य अहवा एक्कतवडढमाणेहि।
सलिहइ मुणी देहं आहारविधि पयशुगितो।२४६। अणुपुत्वेणाहार संबठ्ठ तो य सल्लिहइ देह । दिवसुग्गहिएण तवेण चावि सल्लेहण कुणइ ।२४७। विविहाहिं एसणाहिं य अवगहेहिं विविहेहि उग्गेहि । संजममविराहिंतो जहाबलं सल्लिहइ देहं ।२४८। सदि आउगे सदि बले जाओ विविधाओ भिक्खुपडिमाओ। ताओ वि ण बाधते जहाबलं सल्लिहंतस्स ।२४६॥ = क्रमसे अनशनादि तपको बढ़ाते हुए यतिराज अपने देहको कृश कर शरीर सल्लेखना करते हैं ।२४६॥ क्रमसे आहार कम करते करते क्षपक अपना देह कृश करता है। प्रतिदिन लिये गये नियमके अनुसार कभी उपवास और कभी बृत्तिसंख्यान, इस क्रमसे तपश्चरण कर क्षपक शरीर कृश करता है ।२४७१ नाना प्रकारके रसव जित, अल्प, रूक्ष ऐसे आचाम्ल भोजनोंसे अपने सामर्थ्य के अनुसार क्षपक मुनि देहको कृश करता है। नाना प्रकारके उग्र नियम ले ले कर संयमकी विराधना न करता हुआ स्व शक्ति अनुसार शरीरको कृश करता है ।२४८। यदि आयु व देहकी शक्ति अभी काफ़ी शेष हो तो शास्त्रोक्त बारह भिक्षुप्रतिमाओंको (दे. सल्लेखना/४) स्वीकार करके शरीरको कृश करता है। उन प्रतिमाओंसे इस क्षपकको पीड़ा नहीं होती। (विशेष दे. सल्लेखना/३,४)।
४. सल्लेखना आत्महत्या नहीं है स.सि./9/२२/३६३/५ स्यान्मतमात्मवधः प्राप्नोतिः स्वाभिसन्धिपूर्व
कायुरादिनिवृत्तेः । नैष दोषः; अप्रमत्तत्वात् । 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा' इत्युक्तम् । न चास्य प्रमादयोगोऽस्ति । कुतः। रागाद्यभावात । रागद्वेषमोहाविष्टस्य हि विषशस्त्राद्य पकरणप्रयोगवशादारमान घ्नतः स्वघातो भवति। न सल्लेखनां प्रतिपन्नस्य रागादयः सन्ति ततो नात्मवधदोषः । = प्रश्न-चूकि सल्लेखनामें अपने अभिप्रायसे आयु आदिका त्याग किया जाता है, इसलिए यह आत्मघात हुआ । उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सल्लेखनामें प्रमादका अभाव है। 'प्रमत्तयोगसे प्राणोंका वध करना हिंसा है' यह पहले कहा जा चुका है (दे, हिंसा)। परन्तु इसके प्रमाद नहीं है, क्योंकि, इसके रागादिक नहीं पाये जाते। राग, द्वेष और मोहसे युक्त होकर जो विष और शस्त्र आदि उपकरणों का प्रयोग करके उनसे अपना घात करता है उसे आत्मघातका दोष प्राप्त होता है (दे. मरण/४/१)। परन्तु सल्लेखनाको प्राप्त हुए जीवके रागादिक तो हैं नहीं, इसलिए इसे आत्मघातका दोष प्राप्त नहीं होता है। [कहा भी है-रागादिकका न होना ही अहिंसा है (दे. अहिंसा/२/१) और उनकी उत्पत्ति ही हिंसा है (दे. हिंसा/१/१); (रा.वा./७/२२/६-७/५६०/३३) (पु.सि, उ./१७७ -१७८); (सा.ध./८/८); (और भी दे. शीर्षक सं.)।
२. बाह्य व अभ्यन्तर सल्लेखना निर्देश भ.आ./मू/२०६/४२३ सल्लेहणा य दुविहा अभंतरिया य बाहिरा चेव । अभंतरा कसायेसु बाहिरा होदि हु सरीरे ।२०६। सल्लेखना दो प्रकारको है-अभ्यन्तर और बाह्य । तहाँ अभ्यन्तर सल्लेखना तो कषायों में होती है और बाह्य सल्लेखना शरीरमें। अर्थात उपरोक्त
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