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सर्वतोभद्रा
३८०
सल्लेखना
mr02 पंक्ति।
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२. बृहत् विधि
-सप्त ऋषियों में से एक-दे, सप्त ऋषि । प्रस्तारमें १ से ७
सर्वस्थिति-दे. स्थिति/१/३। तकके अंक सात पंक्तियों में इस
सर्वस्पर्श-दे. स्पर्श/९/५ । क्रमसे लिखे गये हैं कि ऊपर नीचे
सर्वातिचार-दे. अतिचार/३ । आड़े टेढ़े किसी प्रकार भी जोड़ने
सर्वानशन-दे. अनशन। पर २८ लब्ध आता है। प्रथम
सर्वानुकम्पा-दे. अनुकम्पा। द्वितीय आदि पंक्ति में लिखे
सर्वार्थपुर-विजयार्धको उत्तर श्रेणीका एक नगर - दे. विद्याधर । क्रमसे कुल १६६
२०२६/२०२८ उपवास करे।
सर्वार्थसिद्धा-दे. विद्या। बीचके सब स्थानोंमें एक-एक पारणा करे। त्रिकाल नमस्कार मंत्रका
जाप्य करे । (ह. पु./३४/५७-५८), (बत विधान संग्रह/पृ.६१) सर्वार्थसिद्धि विमान-१. अनुदिश तथा अनुत्तर स्वर्ग का सर्वतोभद्रा-नन्दीश्वर द्वीपकी उत्तर दिशामें स्थित एक वापी
इन्द्रक -दे. स्वर्ग/२/३ । २. ये देव केवल एक भवावतारी होते हैं।
-दे, स्वर्ग/२/१| (दे. लोक/५/११)।
रा.वा./४/१६/२/२२४/२२ सर्वार्थानां सिद्धश्च । । सर्वथा-'सर्वथा' शब्दका सम्यक् व मिथ्या प्रयोग। रा.वा./४/२६/१/२४४/११ सर्वार्थ सिद्ध इत्यम्बर्थ निर्देशात् । -३. सर्व -दे. एकान्त/१/४
अर्थों की अर्थात सर्व प्रयोजनोंकी सिद्धि हो जानेसे उनकी 'सर्वार्थ
सिद्धि' यह अन्वर्थ संज्ञा है। सर्वशित्व शक्ति-स. सा./आ./परि/शक्ति नं.:-विश्वविश्वसामान्यभावपरिणामात्मदर्शनमयी सर्वदर्शित्वशक्तिः ।।। - समस्त सर्वार्थसिद्धि व्रत-सप्तमीको धारणाके दिन एकाशना करे। विश्वके सामान्य भावको देखने रूपसे (अर्थात् लोकालोकको सत्तामात्र
८-१९ तक ८ उपवास करे और पडिमाको पारणा करे। नमस्कारग्रहण करनेरूपसे) परिणमित ऐसे आत्मदर्शनमयी सर्वदर्शित
मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (व्रत विधान संग्रह/पृ.८६) शक्ति है।
सर्वार्थसिद्धि शास्त्र-आ. पूज्यपाद (ई. श./५) द्वारा विरचित सर्वधन-दे. गणित/II/५/३ ।
तत्त्वार्थ सूत्रकी विशद वृत्ति है। संस्कृतभाषामें लिखा गया है। इस सर्वधारा-दे. गणित/11/५/२६
पर निम्न टीकाएं उपलब्ध हैं-(१) आ. अकलंक भट्ट (ई. ६२०
६८०) कृत तत्त्वार्थ राजवार्तिक (२) आ, प्रभाचन्द्र'नं. ५(ई. ६५०सवनीद-काशी नरेश सिंहवर्माके समकालीन तथा प्राकृत गाथाबद्ध १०२०) कृत एक वृत्ति। (३) पं.जयचन्द छावड़ा (ई. १८०६) कृत लोक विभाग नामक ग्रन्थके रचयिता । इस ग्रन्थका संस्कृत रूपान्तर भाषा वचनिका । (जै./२/२८०) । पीछे श्री सिद्धनन्दि द्वारा ई.श. ११ में किया गया है। समयः
सर्वावधि ज्ञान-दे. अवधिज्ञान/१! ई. ४५८ (श. ३८०); (ति. प./प्र.६ A. N. Up ) (जै./२/७)। सर्वप्रभ-भावीकालीन १वें तीर्थकर । अपर नाम सर्वात्मभूति व सवसिंख्यात-दे. असंख्यात । सर्वायुध । -दे. तीर्थकर/५
सर्वोषध ऋद्धि-दे, ऋद्धि/७॥ सर्वभद्र-यक्ष जातिके व्यंतरदेवीका एक भेद ।-दे. यक्ष ।
सर्षप फल-तोलका एक प्रमाण -दे. गणित//१।२। सर्वरक्षित-एक लौकान्तिक देव -दे. लौकान्तिक ।
सल्लेखना-अतिवृद्ध या असाध्य रोगग्रस्त हो जानेपर, अथवा सर्वरत्न-मानुषोत्तर व रुचक पर्वतपर स्थित एक-एक कूट-दे.
अप्रतिकार्य उपसर्ग आ पड़नेपर अथवा दुर्भिक्ष आदिके होने पर
साधक साम्य भाव पूर्वक अन्तरंग कषायों का सम्यक प्रकार दमन लोक/११
करते हुए, भोजन आदिका त्याग करके, धीरे-धीरे शरीरको कृश सर्वविद्याप्रकर्षिणी-दे, विद्या ।
करते हुए, इसका त्याग कर देते हैं। इसे ही सल्लेखना या समाधि
मरण कहते हैं । सम्यग्दृष्टि जनोंको यथार्थतः सम्भव होनेसे इसे पण्डितसर्वविद्याविराजिता-दे, विद्या।
मरण कहते हैं। शरीरके प्रति जो स्वभावसे ही उपेक्षित है, ऐसे
श्रावक व साधुको ऐसे अवसरों पर अथवा आयु पूर्ण होनेपर इस ही सर्वव्यापी-दे. सर्वगत।
प्रकारकी वीरतासे शरीरका त्याग योग्य है। इसे आत्म हत्या कहना
अनभिज्ञताका सूचक है। सल्लेखनागत साधुको क्षपक कहते हैं । सर्वशून्य-दे. शून्य।
पीड़ाओं के प्रकर्षकी सम्भावना होनेके कारण सल्लेखना विधिर्म सर्वसंक्रमण-दे, संक्रमण/६ ।
निर्यापकों, परिचारकों, वैयावृत्ति उपदेश आदिका प्रघान स्थाने है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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