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सयोग केवली
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'सर्वतोभद्र व्रत
द्र. सं./टी./४/१६४/१० शुद्धात्मभावनोत्पन्न निविकारबास्तवमुखामृत- मुपादेयं कृत्वा संसारशरीरभोगेषु योऽसौ हेयबुद्धिः सम्यग्दर्शनशुद्धः स चतुर्थ गुणस्थानी व्रतरहितो दर्शनिको भण्यते । - शुद्धात्म भावनासे उत्पन्न निर्विकार यथार्थ सुखरूपी अमृतको उपादेय करके संसार शरीर और भोगोंमें जो हेय बुद्धि है वह सम्यग्दर्शनसे शुद्ध चतुर्थगुणस्थानवाला बतरहित दर्शनिक है। (दे. सम्यग्दृष्टि/५-२); (और भी दे. राग/६)। पंध./३.१२६१,२७१ उपेक्षा सर्वभोगेषु सदृष्टेष्टरोगवत् । अवश्य तदवस्थायास्तथाभावो निसर्गजः ॥२६॥ इत्येवं ज्ञाततत्त्वोऽसौ सम्यग्दृष्टिनिजात्मक् । वैषयिके मुखे ज्ञाने राग-द्वेषौ परित्यजेत् ।३७१। -सम्यग्दृष्टिको सर्व प्रकारके भोगों में प्रत्यक्ष रोगकी तरह अरुचि होती है, क्योंकि, उस सम्यक्त्वरूप अवस्थाका, विषयोंमें अवश्य अरुचिका होना स्वतःसिद्ध स्वभाव है ।२६१। इसप्रकार तत्त्वोंको जाननेवाला स्वात्मदर्शी यह सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रियजन्य सुख और ज्ञान में राग तथा द्वेषका परित्याग करे ।३७१।-दे, राग/६।
सवंगतत्व-रा. बा./२/७/११/१२/२४ असर्वगतत्वमपि साधारण परमाग्वादीनामविभुत्वाद, धर्मादीनां च परिमितासंख्यासप्रदेशत्वात । कर्मोदयाद्यपेक्षाभावात्तदपि पारिणामिकम् । यदस्य कर्मोपात्तशरीरप्रमाणानुविधायित्वं तदसाधारणमपि सन्न पारिणामिकमः कर्मनिमित्त त्वात् । - 'असर्वगतत्व' यह साधारण धर्म है, क्योंकि, परमाणु आदि द्रव्य अव्यापी हैं और धर्म आदि द्रव्य परिमित असंख्यात प्रदेशी है। कर्मोदय आदिकी अपेक्षाका अभाव होनेसे यह धर्म पारिणामिक भी कहा जा सकता है। जीवके कर्मों के निमित्तसे जो शरीरप्रमाणपना पाया जाता है वह असाधारण धर्म होते हुए भी पारिणामिक नहीं है, क्योंकि, वह कोके निमित्तसे होता है।
सर्वगत नय-दे, नय//५/४ ।
सयोग केवली-दे, केवली/११ सरःशोष कर्म-दे. सावद्य/५। सरल समीकरण-Simple equation. सरस्वती पूजा-दे. पूजा। सरस्वती यन्त्र-दे. यन्त्र । सरह-महायान सम्प्रदायके एक गूढ़वादी बौद्ध विद्वान् । समय-
१००० ( प. प्र./प्र./१०३/A. N. Up.) सरहपा-बौद्धों के ८४ सिद्धों में से एक थे। इन्होंने हिन्दी दोहाबद्ध ग्रन्थोंकी रचना की है। समय-७६९-८०६ ( हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास ।पृ. २४। कामता प्रसाद)। सराग संयम-दे. चारित्र/१/१४ । सराग सम्यग्दर्शन-दे. सम्यग्दर्शन/II/४ | सरित-अपर विदेहका एक क्षेत्र तथा सुखावह वक्षारका एक
कूट। -दे. लोक/१/२। सपिःस्रावो-दे, अद्धि । सर्व-रा. वा./२/७/२/५३५/१६ सरति गच्छति अशेषानवयवानिति
सर्व इत्युच्यते । अवशेष अवयवोंको प्राप्त हो उसे सर्व कहते हैं। ध.१/३.१.४/४७ सर्व विश्वं कृत्स्नम् ।।...सरति गच्छति आकुश्चनविसर्पणादीनीति पुद्गलद्रव्यं सर्व-विश्व, कृत्स्न ये 'सर्व' शब्दके समानार्थक हैं। अत्रवा जो आकुंचन और विसर्पण आदिको प्राप्त हो
वह पुदगलद्रव्य सर्व है। ध. १३/१,५,६६/३२३/८ सब केवलणाणं । सर्वका अर्थ केवलज्ञान है। सर्वगध-उत्तर अरुणाभास द्वीप और अरुणसागरका रक्षक व्यन्तर
देव-दे, व्यं तर/४ । सर्वगत-केवलज्ञानसे सर्व लोकालोकको जाननेके कारण जीव सर्वगत या सर्वव्यापी है।
सर्वगुप्त-भगवती आराधनाके रचयिता आ. शिवकोटिके गुरु थे।, तदनुसार इनका समय-ई. श. १ का पूर्वपाद । (भ. आ./प्र.२-३/ प्रेमी जी)1-दे.शिवकोटि। सर्वज्ञ-दे. केवलज्ञान। सर्वज्ञत्वशक्ति-स. सा./अ./परि/शक्ति नं. १० विश्वविश्वविशेषभावपरिणामात्मज्ञानमयी सर्वज्ञत्वशक्तिः।- समस्त विश्व के विशेष भावों को जाननेरूपसे परिणमित ऐसे आत्मज्ञानमयी सर्वज्ञस्व
शक्ति। सर्वज्ञात्म मुनि-शंकराचार्य के शिष्य सुरेश्वरके शिष्य । समय
ई. ६००-दे. वेदान्त/१/२। सर्वघाती प्रकृति-दे. अनुभाग/४ । सर्वघाती स्पर्धक-दे. स्पर्धक । Hinme_ सर्वचन्द्र-नन्दिसंघके देशीयगणकी गुर्वावली के अनुसार आप वसुनन्दिके शिष्य तथा दामनन्दिके गुरु थे। समय-वि. १७५-१००५ (ई. ११८-१४८); ( दे. इतिहास/७/५ )। सवंतंत्र-वे, सिद्धान्त। सर्वतोभद्रपूजा-दे. पूजा/१। सर्वतोभद्र यन्त्र-वे. यंत्र। सर्वतोभद्र व्रत-१. लघु विधि
जोड़
xcc पंक्तिनं.
दिखाये गये प्रस्तारमें से तकके अंक पक्तियों में इस प्रकार लिखे गये हैं कि ऊपर नीचे आड़े टेढ़े किसी भी प्रकार पंक्तिबदधसे जोड़नेपर १५ लब्ध आते हैं। पंक्ति नं. १ फिर पंक्ति नं २ आदिमें जितने
जितने अंक लिखे हैं उतने१५/१५ | १५ | १५ | १५/ -७५ | उतने उपवास क्रमपूर्वक कुल ७५ करे। बीचके स्थानों में सर्वत्र एक-एक पारणा करे । त्रिकाल नमस्कार मन्त्रका जाप्य करे। (ह.पु./३४/५१-५९); (बत विधान संग्रह/पृ.६०)।
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