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सम्यग्दृष्टि
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४. सम्यग्दृष्टिकी विशेषताएं
ज्ञानी निराखब इति चेद, ज्ञानी तावदीहापूर्वरागादिविकल्पकरणाभावान्निराखब एव । किं तु सोऽपि यावत्काल परमसमाधेर नुष्ठानाभावे सति शुद्धात्मस्वरूपं द्रष्टुं ज्ञातुमनुचरितुं वासमर्थः तावत्काल तस्यापि संबन्धि यद्दशनं ज्ञानं चारित्रं तज्जघन्यभावेन सकषायभावेन अनोहितवृत्त्या परिणमति, तेन कारणेन स तु भेदज्ञानी...विविधपुण्यकर्मणा बध्यते । प्रश्न-यथारख्यात चारित्रसे पहले अन्तमुहर्त के अनन्तर निर्विकल्प समाधिमें स्थित रहना शक्य नहीं है, ऐसा पहले कहा गया है। ऐसा होनेपर ज्ञानी निरालव कैसे हो सकता है। उत्तर-१. ज्ञानी क्योंकि ईहा पूर्वक अर्थात् अभिप्रायपूर्वक रागादि विकल्प नहीं करता है, इसलिए वह निरास्रव ही है। (अन, ध.144 ४/७३३) २. किन्तु जबतक परमसमाधिके अनुष्ठानके अभावमें वह भी शुद्धात्मस्वरूपको देखने-जानने व आचरण करने में असमर्थ रहता है, तब तक उसके भी तत्सम्बन्धी जो दर्शन ज्ञान चारित्र हैं वे जघन्यभावसे अर्थात कषायभावसे अनीहितवृत्तिसे स्वयं परिणमते हैं। उसके कारण वह भेदज्ञानी भी विविध प्रकारके पुण्यकर्मसे बंधता है। दे.उपयोग/11/३ [जितने अंशमें उसे राग है उतने अंशमें आस्रव व बन्ध है और जितने अंशमें रागका अभाव है, उतने अंशमें निरास्रव व अबन्ध है।
३. सर्व कार्यों में निर्जरा सम्बन्धी स. सा./म./१४४ दवे उवभंजते णियमा जायदि सुहेच दुवं बा। तं सुहदुक्खमुदिण्णं वेददि अह णिज्जरं जादि १६४ा-वस्तु भोगने में आनेपर सुख अथवा दुःख नियमसे उत्पन्न होता है। उदयको प्राप्त उस सुखदुःखका अनुभव करता है तत्पश्चात वह (मुख-दुखरूपभाव) निर्जराको प्राप्त होता है। (इस प्रकार भाव निर्जराकी अपेक्षा
समाधान है ) ।१६४॥ स. सा./आ./१६६-१६५ रागादिभावान सद्भावेन मिध्यादृष्टेरचेतनान्यद्रव्योपभोगो बन्धनिमित्तमेव स्याव। स एव रागादिभावानामभावेन सम्यग्दृष्टेनिर्जरानिमित्तमेव स्यात् । एतेन द्रव्यनिर्जरास्वरूपमावेदयति ।१९३॥ अथ भावनिर्जरास्वरूपमावेदयति । स तु यदा वेद्यते तदा मिथ्यादृष्टेः रागादिभावानां सद्भावेन बन्धनिमित्तं भूत्वा निर्जीर्यमाणोपजीर्णः सत् बन्ध एव स्यात् । सम्यग्दृष्टस्तु रागादिभावानामभावेन बन्धनिमित्तमभूत्वा केवलमेव निर्जीयमाणो निर्जीर्ण: सन्निजर व स्यात् १६४-रागादि भावोंके सद्भावसे मिथ्यादृष्टिके जो अचेतन तथा चेतन द्रव्यों का उपभोग बन्धका निमित्त होता है। वही रागादिभावोंके अभावके कारण सम्यग्दृष्टि के लिए निर्जराका निमित्त होता है । इस प्रकार द्रव्य निर्जराका स्वरूप कहा ।१३। अम भाव निर्जराका स्वरूप कहते हैं-जब उस ( कर्मोदयजन्य सुखरूप अथवा दुःखरूप ) भावका वेदन होता है तब मिथ्यादृष्टिको, रागादिभावोंके सद्भाबसे (नवीन ) बन्धका निमित्त होकर निर्जराको प्राप्त होता हुआ भी, निर्जरित न होता हुआ बन्ध ही होता है। किन्तु सम्यग्दृष्टिके रागादिभावोंके अभावसे बन्धका निमित्त हुए बिना केवल मात्र निर्जरित होनेसे, निर्जरित होता हुआ, निर्जरा ही होती है ।१६४। स, सा./ता. वृ./११३/२६७/१४ अत्राह शिष्यः-रागद्वेषमोहाभावे सति निर्जराकारणं भणितं सम्यग्दृष्टस्तु रागादयः सन्ति, ततः कर्थ निर्जराकारणं भवतीति । अस्मिन्पूर्व पक्षे परिहारः-अत्र ग्रन्थे वस्तुवृत्त्या वीतरागसम्यादृष्टेग्रहण, यस्तु चतुर्थ गुणस्थानवतिसरागसम्यग्दृष्टयस्तस्य गौणवृत्त्या ग्रहणं, तत्र तु परिहारः पूर्वमेव भणितः। कथमिति चेत् । मिथ्यादृष्टेः सकाशादसंयतसम्यग्दृष्टेः अनन्तानुबन्चिक्रोधमानमायालोभमिथ्यात्वोदयजनिताः, श्रावकस्य च प्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभोदयजनिता रागादयो न सन्तीत्यादि। किंच सम्यग्दृष्टेः संवरपूर्विका निर्जरा भवति, मिथ्यादृष्टेस्तु गजस्नानवत् बन्धपूर्षिका भवति । तेन कारणेन मिथ्यादृष्टयपेक्षया
सम्यग्दृष्टिरबन्धक इति। एवं द्रव्यनिर्जराव्याख्यानरूपेण गाथा गता। -प्रश्न-राग-द्वेष व मोहका अभाव होनेपर भोग आदि निर्जराके कारण कहे गये हैं, परन्तु सम्यग्दृष्टिके तो रागादि होते हैं, इसलिए उसे वे निर्जराके कारण कैसे हो सकते हैं ? उत्तर-१. इस घन्थमें वस्तु वृत्तिसे वीतराग सम्यग्दृष्टिका ग्रहण किया गया है, जो चौथै गुणस्थानवर्ती सरागसम्यग्दृष्टि है उसका गौण वृत्तिसे ग्रहण किया गया है । २. सराग सम्यग्दृष्टि सम्बन्धी समाधान पहले ही दे दिया गया है । वह ऐसे कि मिथ्यादृष्टिको अपेक्षा असंयत सम्यग्दृष्टिको अनन्तानुबन्धी चतुष्क और मिथ्यात्वोदयजन्य रागादिक तथा श्रावकको अप्रत्याख्यान चतुष्क जनित रागादि नहीं होते हैं । ३. सम्यग्दृष्टिकी निजरा संवरपूर्वक होती है और मिथ्यादृष्टिकी गजस्नानवत् बन्धपूर्वक होती है। इस कारण मिथ्याष्टिकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि अबन्धक है। इस प्रकार द्रव्यनिर्जराके व्याख्यानरूप गाथा कही। ४. [ सम्यग्दृष्टि चारित्रमोहोदयके वशीभूत होकर अरुचि पूर्वक सुख-दुःख आदिक अनुभव करता है और मिथ्यादृष्टि उपादेय बुद्धिसे करता है। इसलिए सन्यग्दृष्टिको भोगोंका भोगना निर्जराका निमित्त है । इस प्रकार भाव निर्जराकी अपेक्षा व्याख्यान जानना । ( दे. राग./६/६)]
४. ज्ञान चेतना-सम्बन्धी पं.ध./उ. २७६ चेतनायाः फलं बन्धस्तत्फले वाऽथ कर्मणि । रागाभावान्न बन्धोऽस्य तस्मात्सा ज्ञानचेतना ।२७६। -कर्म व कर्मफलरूप चेतनाका फल कर्म बन्ध है, पर सम्यग्दृष्टिको रागका अभाव होनेसे मन्ध नहीं होता है, इसलिए उसकी वह कर्म व कर्मफल चेतना ज्ञानचेतना है ।२७६।
५, अशुभ ध्यानों सम्बन्धी इ. स./टी./४८/२०१/५ कस्मादिति चेत्-स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति विशिष्टभावनाबलेन तत्कारणभूतसंक्लेशाभावादिति ।। प्रश्नआर्तध्यान सम्यग्दृष्टिको मिथ्याष्टिकी भाँति तिर्यच गतिका कारण कयों नहीं होता उत्तर-सम्यग्दृष्टि जीवों के 'निज शुद्ध आत्मा ही उपादेय है। ऐसी भावनाके कारण तियंचगतिका कारण रूप संक्लेश नहीं होता। [यही उत्तर रौद्रध्यानके लिए भी दिया गया है।
४. सम्यग्दृष्टिकी विशेषताएँ १. सम्यग्दृष्टि ही सम्यक्त्व व मिथ्यात्वके भेदको यथार्थतः जानता है स.सा./पं. जयचन्द./२००/क. १३७ सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्व सहित राग नहीं होता और जिसके मिथ्यालय सहित राग हो वह सम्यग्दृष्टि नहीं होता। ऐसे अन्तरको सम्यग्दृष्टि ही जानता है। पहले तो मिथ्यावृष्टिका आत्म शास्त्र में प्रवेश ही नहीं है, और यदि वह प्रवेश करता है तो विपरीत समझता है--शुभभावको सर्वथा छोड़कर भ्रष्ट होता है अथवा अशुभभावों में प्रवर्तता है, अथवा निश्चयको भली भाँति जाने बिना व्यवहारसे हो ( शुभभावसे ही) मोक्ष मानता है, परमार्थ तत्त्वमें मूढ़ रहता है। यदि कोई मिरला जीव स्याद्वाद न्यायसे सत्यार्थ को समझते तो उसे अवश्य ही सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है, वह अवश्य सम्यग्दृष्टि हो जाता है।
२. सम्यग्दृष्टिको पक्षपात नहीं होता स्या, म./मू. श्लो. ३०/३३४ अन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावात यथा परे मत्सरिणः प्रवादाः। नयानशेषान विशेषमिच्छर न पक्षपाती समयस्तथा ते ।३० - आत्मवादी लोग परस्पर पक्ष और प्रतिपक्ष
भा०४-४८
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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