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सल्लेखना
४. सविचार भक्तप्रत्याख्यान विधि
लक्षण (भ. आ./वि./६७-७०)
| ३ | शिक्षा
१२०६६। उबसग्गेण य साहरिदो सो अण्णस्य कुण दि जं कालं । तम्हा वृत्तं णीहारमदो अण्णं अणीहार ।२०७०। पडिमापडिवण्णा बि हु
सं. नाम करति पाओवगमणमप्पेगे ।२०७१। -इंगिनीमरणमें जो सविस्तार विधि कही है वही प्रायोपगमनमें भी समझनी चाहिए ।२०६३। इतनी विशेषता है कि यहाँ तृणके संस्तरका निषेध है, क्योंकि यहाँ स्व व पर दोनोंके प्रयोगका अर्थात् शुश्रूषा आदिका निषेध है ।२०६४। || लिंग ये मुनि अपने मूत्र व विष्ठा तकका भी निराकरण न स्वयं करते हैं । |
और न अन्यसे. कराते हैं ।२०६५। सचित्त, पृथिवी, अग्नि, जल, ३ वनस्पति व त्रस जीवनिकायों में यदि किसी ने उनको फेंक दिया तो
|४| विनय
| समाधि वे शरीरसे ममत्व छोड़ कर अपनी आयु समाप्ति होने तक वहाँ ही
६ अनियत विहार निश्चल रहते हैं ।२०६६। इसी प्रकार यदि कोई उनका अभिषेक करे परिणाम या गंध पुष्पादिसे उनकी पूजा करे तो वे न उनके ऊपर क्रोध करते
उपधिा त्याग
श्रिति है, न प्रसन्न होते हैं और न ही उनका निराकरण करते है ।२०६७। जिसके ऊपर इन मुनिने अपना अंग रख दिया है, उसपरसे यावज्जीव
মাননা
सरलेखना वे उस अंगको बिलकुल हिलाते नहीं है ।२०६८। इस प्रकार स्व व पर
| दिशा दोनों के प्रतिकारसे रहित इस मरणको प्रायोपगमनमरण कहते हैं। | क्षमणा निश्चयसे यद्यपि यह मरण अनोहार अर्थात् अचल है परन्तु उपसर्गकी अनुशिष्टि अपेक्षा इसको चल भी माना जाता है ।२०६६ उपसर्ग के वश होनेपर
१५ परगणचर्या
मार्गण अर्थात किसी देव आदिके द्वारा उठाकर अन्यत्र ले जाये जानेपर
सुस्थित स्वस्थानके अतिरिक्त यदि अन्यस्थानमें मरण होता है तो उसको नीहारप्रायोपगमन मरण कहते हैं और जो उपसर्ग के अभावमें १८ उपसंपदा स्वस्थानमें ही होता है उसको अनौहार कहते हैं ।२०७०। कायोत्सर्ग
| परीक्षा को धारण कर कोई मुनि प्रायोपगमन मरण करते हैं, और कोई
20 प्रतिलेखन दीर्घकालतक उपवास कर इस मरणसे शरीरका त्याग करते हैं।
या निरूपण इसी प्रकार इंगिनी मरणके भी भेद समझने चाहिए ।२०७१।
२१/ पृच्छा २२, एक संग्रह
अगले अधिकारोंको धारण करनेके योग्य व्यक्ति । शिक्षा विनय आदि रूप साधन सामग्रीके चिह्न। ज्ञानोपार्जन ज्ञानादिके प्रति विनय होना मनकी एकाग्रता अनियत स्थानोंमें रहना कर्तव्य परायणता बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्याग शुभ परिणामोंकी उत्तरोत्तर उन्नति । उत्तरोत्तर उत्तम भावनाओंका अभ्यास कषाय व शरीरका कृश करना अपने स्थानपर स्थापित करने योग्य बालाचार्य। अन्योन्य क्षमाकी याचना करना। आगमानुसार उपदेश करना। अपना संघ छोड़कर अन्य संघ जाना। समाधिमरण कराने में समर्थ आचार्यकी खोज। परोपकार तथा आचार्य पद योग्य कार्य करने में प्रवीण गुरु। आचार्यके चरणमूल में गमन करना। उत्साह, अभिलाषा, परिचारक गण आदिकी परीक्षा करना। राज्य देश आदिका शुभाशुभ अवलोकन ।
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संग्रहसे अनुग्रहकी अनुज्ञा प्राप्त करना। प्रतिचारक मुनियोंकी स्वीकृति पूर्वक एक आराधकका ग्रहण। गुरुके आगे अपने अपराध कहना । आलोचनाके गुण दोषोंका वर्णन । आराधक योग्य वसतिका। आराधक योग्य शय्या। सहायक आचार्य आदि । अन्तिम आहारको दिखाना। क्रमसे आहारका त्याग। जल के अतिरिक्त तीन प्रकार के आहारका त्याग। आचार्य आदिसे क्षमाकी याचना। प्रतिक्रमण आदि द्वारा कोका क्षय । आचार्य द्वारा उद्यत मुनिको उपदेश । दुःख पीड़ित मोह ग्रस्त साधुको सचेत करना। क्षपकको वैराग्योत्पादक उपदेश देना। जीवन मरण लाभ अलाभके प्रति उपेक्षा। एकाग्रचिन्तानिरोध । कषायानुरजित योग प्रवृत्ति । आराधनासे प्राप्त फल । आराधकका शरीर त्याग।
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आलोचना गुण दोष शय्या संस्तर निर्यापक प्रकाशन हानि प्रत्याख्यान क्षमण क्षपणा अनुशिष्टि सारणा कवच समता ध्यान लेश्या फल शरीर त्याग
४. सविचार भक्तप्रत्याख्यान विधि
१. इस विषयके ४० अधिकार भ. आ./मू./६६-७०/१६३ सविचारभत्तपच्चवखाणस्सिणमो उबक्कमो होइ । तत्थ य मुत्तपदाई चत्तालं होंति णेयाई ६६। अरिहे लिंगे सिक्वा विणय समाधो य अणियदविहारे। परिणामोवधिजहणा सिदी य तह भावणाओ य ६१ सल्लेहणा दिसा खामणा य अणुसिट्ठि परगणे चरिया। मग्गण सुटिम उवसंपया य पडिछा य पडिलेहा 1६८ आपुच्छा य पडिच्छण मेगस्सालोयणा य गुणदोसा। सेज्जा संथारो विय णिज्जवग पयासणा हाणी।। पच्चक्रवाणं खामण खमणं अणुसहिसारणाकवचे। समदाझाणे लेस्सा फलं विजहणा य णेयाई ७० - सविचार भक्तप्रत्याख्यानके वर्णन करनेमें चालीस सूत्र या अधिकार जानने चाहिए।६६। [जिनके नाम व संक्षिप्त लक्षण निम्न प्रकार हैं ।
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