Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 390
________________ सल्लेखना ५. सल्लेखना जबरदस्ती नहीं करायी जाती स. सि. १०/२२/३६३/४ न केवल मिह मेलनं परिगृह्यते । किं सहि प्रीत्यर्थोऽपि । यस्मादसत्यां प्रीतौ बलान्न सल्लेखना कार्यते । सत्यां हि प्रीती स्वयमेव करोति । यहाँ पर ( सूत्रमें प्रयुक्त 'जोषिता' शब्दका ) केवल 'सेवन करना' अर्थ नहीं लिया गया है, क्योंकि प्रौतिके न रहनेपर बसपूर्वक सीखना नहीं करायी जाती। किन्तु प्रीति रहनेपर स्वयं ही ना करता है। (रा.ना/७/२२/४/ ५५०/२६) । ६. संयम रक्षार्थं मरना भी सल्लेखना नहीं - म. १/१.१.१/२५/९ संजम विनास भरण उस्सासगिरोह का मुद साहु सरीरकरच पिवददिग करता मुददेहस्स मंगलताभावादी । प्रश्न- संयम के विनाशके भयसे श्वासोच्छ्वासका निरोध करके मरे हुए साधुके शरीरका त्यहारी रके तीन भेदों ( भक्त प्रत्याख्यान आदि) में से क्सि भेदमें अन्तर्भाव होता है 1 उत्तर- ऐसे शरीरका त्यक्तके किसी भी भेद अन्तर्भाव नहीं होता है; क्योंकि, इस प्रकारसे मृत शरीरको गहना प्राप्त नहीं होता है। दे मरण / १/५ [ उपरोक्त प्रकारका मरण विप्राणसमरण कहलाता है । वहन अनुज्ञात है और न निषिद्ध । ] ७. अभ्यन्तर सल्लेखनाकी प्रधानता । भ.आ./मू/ग. एवं सरीर सल्लेहणाविहि बहुविहा वि फासेंतो । अज्भवसामविद्धि मनिओ २५६ अभावाविधी कसायकलुसीदस्स गरि प्तिं अवससायसा भविदा | २५०० अमवाणमधीए मज्जिदा जे तवं विगपि । व्यंति बहिन्लेस्सा न होइ सा केरला सुधी २३८| सम्लेमाविसुधा केई तह चेत्र विविहसंगेहि । संथारे विहरता वि संकिलट्ठति ॥९६०४ इस प्रकार अनेकविध शरीर सल्लेखनाविधिको करते हुए भी, क्षपक एक क्षण के लिए भी परिगामकी विधिको न छोड़े २५६। कषायसे कलुषित मनमें परिणामों की निशुद्धि नहीं होती और परिणामोंकी विद्धिही कषायसम्लेलना कही गयी है। २५६। परिणामोंकी विशुद्धिके बिना उत्कृष्ट भी तप करने वाले साधु ख्याति आदिके कारण ही तप करते हैं, ऐसा समझना चाहिए। इसलिए उनके परिणामों की शुद्धि नहीं होती २७१ जो शा शरीरकी सपना तो निरतिचार कर रहे हैं, परन्तु उनके अन्तरंग में रागद्वेषादिरूप भाव परिग्रह निवास करता है. ये संस्तरास होते हुए भी परिणामोंकी ताकारण संसार में भ्रमण करते हैं । १६७४ | सा.भ./८/२३ सल्लेखनासंखितः कषायाशिष्फला रानो कायोगण्डयितुं कामायामेव दण्ड्यते | २३ | जो साधु कपायोंको कृश न करके केवल शरीरको ही कृश करता है, उसका वह शरीरको कृश करना निष्फल है, क्योंकि कषायोंको कृश करनेके लिए ही शरीरको कृश किया जाता है, केवल शरीरको कृश करनेके लिए नहीं। ८. सल्लेखना धारनेकी क्या आवश्यकता । स.सि./७/२२/३६४/१ किंच, मरणस्यानिष्टत्वाद्यथा वाणिजो विविधपण्यदानादानसं चयपरस्य स्वगृहविनाशोऽनिष्टः तद्विनाशकारणे च कुतश्चिदुपस्थिते यथाशक्ति परिहरति । दुष्परिहारे च पण्यविनाशो यथा न भवति तथा मसते एवं गृहस्थोऽपि प्रतशीसपण्यसंचये प्रवर्तमानः तदाश्रयस्य न पातमभिवाञ्छति । तदुपप्लवकारणे चोपस्थिते स्वगुणाविरोधेन परिहरति दुष्परिहारे च यथा स्वगुणविनाशो न भवति तथा प्रयतत इति कथमात्मवधो भवेत् । - ३८३ Jain Education International १. सल्लेखना सामान्य निर्देश मरण किसी को भी भी इष्ट नहीं है। जैसे नाना प्रकारकी विक्रेय वस्तुओंके देने, लेने और संचयमें लगे हुए किसी व्यापारीको अपने घरका नाश होना इष्ट नहीं है; फिर भी परिस्थितिवश उसके विनाशके कारण आ उपस्थित हों तो यथाशक्ति वह उनको दूर करता है, इतनेपर भी यदि वे दूर होतो, जिससे वि वस्तुओं का नाश न हो, ऐसा प्रयत्न करता है। उसी प्रकार पण्य स्थानीय मत और शीश संचयमें जुटा हुआ गृहस्थ भी उनके आधारभूत आयु आदिका पतन नहीं चाहता । यदा कदाचित् उनके विनाशके कारण उपस्थित हो जायें तो जिससे अपने गुणोंमें बाधा नहीं पड़े, इसप्रकार उनको दूर करनेका प्रयत्न करता है। इतनेपर भी यदि वे दूर न हो तो, जिससे अपने गुणोंका नाश न हो इस प्रकार प्रयत्न करता है, इसलिए इसके आत्मघात नामका दोष कैसे हो सकता है । (रा.वा./१/२२/८/५५१/६); (आ. अनु. / २०५); (सा. च./८/६) ९. सल्लेखनाके अतिचार स.सू./७/२० जोति मरणाशंसाभित्रानुरागखानुबन्धनिदानानि । ३७१जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबन्ध और निदान ये सम्लेखमा पाँच अतिचार है। (र.क.आ./१२६): (चा.सा./४१/३) (सा.प./६/४६)। १०. सल्लेखनाका महत्त्व व फल भ.आ./मू./१६४२-९६४५ भोगे रे तो खुदा मासे इमिसं चताचरं ति जिनदेखिये धम्मं ११४२ सुकं समुदा जाणे वविदसंसारा सम्मुक्तम्मकमया समिति सिद्धि किलेसा ॥ १६४५|स्व अनुतर भोग भोगकर वे महाँसे चय उत्तम मनुष्यभवमें जन्म धारण कर सम्पूर्ण ऋद्धियोंको प्राप्त करते हैं। पीछे वे जिनधर्म अर्थात् मुनि धर्म व तप आदिका पालन करते हैं । १६४२ । शुक्ल लेश्याकी प्राप्ति कर वे आराधक शुक्लध्यान से संसारका नाश करते हैं, और धर्मरूपी कवचको फोड़ कर सम्पूर्ण क्लेशों का नाश कर मुक्त होते हैं । १६४६१ (विशेष दे, सम्तेखना / ३/४) । ८. क. आ. / १३० निःश्रेयसमभ्युदयं निस्तीर दुस्तर सुनिधि न ति पीतधर्मा सबै दु:खैरनालीढः | १३०| पिया है धर्मरूपी अमृत जिसने ऐसा सल्लेखनाधारी जीव समस्त प्रकारके दुःखों से रहित होता हुआ, अपार दुस्तर और उत्कृष्ट उदयवाले मोक्षरूपी सुखके समुद्रको पान करता है । प.पु./१४/२०३ गृहधर्ममिमं कृत्वा समाधिप्राप्तपञ्चतः । प्रपद्यते सुदेव च्युत्वा च सुमनुष्यताम् ॥२०३॥ - इस गृहस्थ धर्मका पालनकर जो समाधिपूर्वक मरण करता है, वह उत्तम देवपर्यायको प्राप्त होता है, और वहाँसे च्युत होकर उत्तम मनुष्यत्व प्राप्त करता है | २०३ ॥ [ पीछे आठ में मुक्ति प्राप्त करता है (दे. अगला शीर्षक) पू. सि. ४/१०१ नीयन्तेन कपाया हिंसाया तो यतस्तनुताम् । सल्लेखनामपि ततः प्राहुर हिंसा प्रसिद्धयर्थम् | १७६ | क्योंकि इस संन्यास मरणमें हिंसा के हेतुभृत कषाय क्षोणताको प्राप्त होते हैं, तिस कारण से संन्यासको भी श्रीगुरु अहिंसाकी सिदि के लिए कहते हैं ॥१७६ दे. आ/अ.ग./२२४८-२२०१ [लेखनाकी अनेक प्रकार से स्तुति ] - ११. क्षपककी भवधारणकी सीमा भ.आ./मू/गा एक्कम्मि भवग्गहणे समाधिमरणेण जो मदो जीवो ण सो हिंड दि बहुसो सत्तट्ठभवे पमोत्तूण । ६८२ ॥ णियमा सिज्मदि उक्करण वा सत्तमम्मि भवे । २०६६ । इय बालपंडिय: होदि मरणमरहंताणे दि १२००७१ एवं आराधिसा उनकस्सा राहण जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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