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श्रतज्ञान
II अर्थलिंगज श्रुतज्ञान विशेष निर्देश
पगमात् । प्रश्न-जो ज्ञान इन्द्रियों के व्यापारसे उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष है और जो इन्द्रियों के व्यापारसे रहित है वह परोक्ष है। प्रत्यक्ष व परोक्षका यह अविसंवादी लक्षण मानना चाहिए । उत्तरकहना ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त लक्षणके माननेपर आप्तके प्रत्यक्ष ज्ञानका अभाव प्राप्त होता है। यदि इन्द्रियोके निमित्त से होनेवाले ज्ञानको प्रत्यक्ष कहा जाता है तो ऐसा माननेपर आप्तके प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि आप्तके इन्द्रियपूर्वक पदार्थका ज्ञान नहीं होता। कदाचित् उसके भी इन्द्रिय पूर्वक ही ज्ञान पाया जाता है तो उसके सर्वज्ञता नहीं रहती। प्रश्न-उसके मानस प्रत्यक्ष होता है ? उत्तर- मनके प्रयत्नसे ज्ञानकी उत्पत्ति माननेपर सर्वज्ञत्वका अभाव ही होता है। प्रश्न-आगमसे सर्व पदार्थोंका ज्ञान हो जायेगा ! उत्तर-नहीं, क्योंकि सर्वज्ञता प्रत्यक्षज्ञान पूर्वक प्राप्त होती है । प्रश्न-योगी-प्रत्यक्ष नामका एक अन्य दिव्यज्ञान है ! उत्तर-उसमें प्रत्यक्षता नहीं बनती, क्योंकि वह इन्द्रियों के निमित्तसे नहीं होता है । जिसको प्रवृत्ति प्रत्येक इन्द्रियसे होती है वह प्रत्यक्ष है ऐसा आपके मतमें स्वीकार भी किया है। (रा. वा./२/१२/६-६/५३-५४)। ३. परोक्षता व अपरोक्षताका समन्वय न्या. दो./२/१२/३४/१ इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशतः 'सांव्यवहारिकम् । इदं चामुख्यप्रत्यक्षम, उपचारसिद्धत्वात। वस्तुतस्तु परोक्षमेव, मतिज्ञानत्वात्। -इन्द्रिय और मनके निमित्तसे होनेबाला एक देश स्पष्ट सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ज्ञान अमुख्य प्रत्यक्ष हैगौण रूपसे प्रत्यक्ष है, क्योंकि उपचारसे सिद्ध होता है, वास्तव में तो परोक्ष ही है। दे. परोक्ष/४ ( इन्द्रिय ज्ञान परमार्थ से परोक्ष है व्यवहारसे प्रत्यक्ष है । ) दे, अनुभव/ ४ वह बाह्य विषयोंको जानते समय परोक्ष है और स्वसंवेदनके समय प्रत्यक्ष है।
सावरणीयं पदावरणीयं पदसमासावरणीय संघादावरणीयं संघातसमासावरणीयं पडिवत्तिआवरणीयं पडिवत्तिसमासावरणीयं अणियोगद्दारावरणीयं अणियोगद्दारसमासावरणीयं पाहुडपाहुडावरणीयं पाहुडपाहुडसमासावरणीय पाहुडावरणीयं पाहुडसमासावरणीषं वत्थुआवरणीयं वत्थुसमासावरणीयं पुव्यावरणीय पुत्वसमासावरणीयं चेदि ४८। १. पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमासः, संघात, संघात समास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्तिसमास, अनुयागद्वार, अनियोद्वारसमास, प्राभृतप्राभृत, प्राभृत-प्राभृतसमास, प्राभृत, प्राभृतसमास, वस्तु, वस्तुसमास, पूर्व और पूर्व समास, ये श्रुतज्ञानके बोस भेद जानने चाहिए।१। २. पर्याय ज्ञानावरणीय, पर्यायसमास ज्ञानावरणीय, अक्षरावरणीय, अक्षरसमासावरणीय, पदावरणीय, पदसमासावरणीय, संघातावरणीय, संघातसमासाबरणीय, प्रतिपत्ति-आवरणीय, प्रतिपत्तिसमासावरणीय, अनुयोगद्वारावरणीय, अनुयोगद्वारसमासावरणीय, प्राभृतप्राभृतामरणीय, प्राभृतप्राभृत समासावरणीय, प्राभृतावरणीय, प्राभृतसमासाबरणीय, वस्तु आवरणीय, वस्तुसमासावरणीय, पूर्वावरणीय, पूर्वसमासावरणीय, ये श्रुतावरणके बीस भेद हैं ।४। (ह. पु./१०/१२-१३); (ध.६/१. ६-१,१४/२१/८); (ध, १२/४,२.१४,५/४८०/१२); (गो. जो./मू./ ३१७-३१०/६७७)।
३, बीस भेदोंके लक्षण ह पु./१०/१४-२६ श्रुतज्ञानविकल्पः स्यादेकह्रस्वाक्षरात्मकः । अनन्तानन्तभेदाणुपुद्गलस्कन्धसंचयः।१४। अनन्तानन्तभागैस्तु भिद्यमानस्य तस्य च । भागः पर्याय इत्युक्तः श्रुतभेदो ह्यनत्पशः ११५॥ सोऽपि सूक्ष्मनिगोदस्यालब्धपर्याप्तदेहिनः। सम्भवी सर्वथा तावान् श्रुतावरणवर्जितः ।१६। सर्वस्यैव हि जीवस्य तावन्मात्रस्य नावृतिः । आवृतौ तु न जीवः स्यादुपयोगवियोगतः १९ जीवोपयोगशक्तेश्च न विनाशः सयुक्तिकः । स्यादेवात्यभ्ररोधेऽपि सूर्याचन्द्रमसोः प्रभा ।१८। पर्यायानन्तभागेन पर्यायो युज्यते यदा । स पर्यायसभास: स्यात् श्रुतभेदो हि सावृतिः ॥१६॥ अनन्तसङ्खचसङ्ख्ययभागवृद्धिक्षयान्वित.। सङ्खयेयासङ्घयकानन्तगुणवृद्धिक्रमेण च ।२०। स्यात्पर्यायसमासोऽसौ यावदक्षर पूर्णता। एकैकाक्षरवृद्धया स्यात् तत्समासः पदावधिः १२१५ पदमर्थपदं ज्ञेयं प्रमाणपदमित्यपि । मध्यम पदमित्येवं त्रिविधं तु पदस्थितम् ।२२। एकद्वित्रिचतुःपञ्च षट्सप्ताक्षरमर्थवत् । पदमाद्य' द्वितीयं दु पदमष्टाक्षरात्मकम् ।२३। कोट्यश्चैव चतुस्त्रिंशत् तच्छतान्यपि षोडश । यशीतिश्च पुनर्लक्षाः शतान्यष्टौ च सप्ततिः ।२४। अष्टाशीतिश्च वर्णाः स्युर्मध्यमे तु पदे स्थिताः । पूर्वाङ्गपदसङ्ख्या स्यान्मध्यमेन पदेन सा ।२५। एकैकाक्षरवृद्धया तु तत्समासभिदस्ततः । इत्थं पूर्वसमासान्तं द्वादशाक्ष श्रुतं स्थितम् । १२६ -श्रुतज्ञानके अनेक विकल्पोमें एक विकल्प एक ह्रस्व अक्षर रूप भी है। इस विकल्पमें द्रव्यको अपेक्षा अनन्तानन्त पुद्गल परमाणुओंसे निष्पन्न स्कन्धका संचय होता है ।१४। इस एक ह्रस्वाक्षर रूप विकल्पके अनेक बार अनन्तानन्त भाग किये जावें तो उनमें एक भाग पर्याय नामका श्रुतज्ञान होता है ।१. वह पर्याय. ज्ञान सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवके होता है और श्रुतज्ञानावरणके आवरणसे रहित होता है ।११६। सभी जीवोंके उतने ज्ञानके ऊपर कभी आवरण नहीं पड़ता। यदि उसपर भी आवरण पड़ जावे तो ज्ञानोपयोगका सर्वथा अभाव हो जायेगा और ज्ञानोपयोगका अभाव होनेसे जीवका अभाव हो जायेगा ।१७। यह निश्चयसे सिद्ध है कि जीवकी उपयोग शक्तिका कभी विनाश नहीं होता। जिस प्रकार कि मेधका आवरण होनेपर भी सूर्य और चन्द्रमाको प्रभा कुछ अंशोंमें प्रगट रही आती है उसी प्रकार श्रुतज्ञानका आवरण होनेपर । भी पर्याय नामका ज्ञान प्रकट रहा आता है ।१८। जब यही पर्याय ज्ञान पर्याय ज्ञानके अनन्तवें भागके साथ मिल जाता है तब यह
II अलिंगज श्रुतज्ञान विशेष निर्देश १. भेद व लक्षण
१. अर्थ लिंगज २० प्रकारका है प. वं. १३/५, सू. ४७/२६० तस्सेव सुदणाणावरणीयस्स कम्मस्स वीसदिविधा परूवणा कायया भवदि ।४७ पुवं संजोगक्रवरमेत्ताणि सुदणाणावरणाणि परविदाणि । संपहि ताणि चेव सुदणाणावरणाणि बीसदि विधाणि ति भण्णमाणे एदस्स मुत्तस्स पुव्व सुत्तेण विरोहो किण्ण जायदे। ण एस दोसो. भिण्णाहिप्पायंतादो। पुबिल्ल सुत्तमक्खरणिबंधणभेदपस्वयं, एदं पुण खओवसमगदभेदमस्सिद्रूण आवरणभेदपरूवयं । तम्हा दोसो जत्थि त्ति घेत्तव्यो। -श्रुतज्ञानाबरणीय कर्मकी २० प्रकारकी प्ररूपणा करनी चाहिए।४७१ प्रश्नपहले जितने संयोगाक्षर होते हैं उतने श्रुतज्ञानावरण कर्म कहे गये हैं । अब वे ही श्रुतज्ञानावरण २० प्रकारके हैं, ऐसा कथन करनेपर इस सूत्रका पूर्व सूत्रके साथ विरोध क्यों नहीं होता । उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि भिन्न अभिप्रायसे यह सूत्र कहा गया है। पूर्व सूत्र अक्षर निमित्तक श्रुतभेदोंका कथन करता है, परन्तु यह सूत्र क्षयोपशमका अवलम्बन लेकर आवरणके भेदोका कथन करता है। इसलिए कोई दोष नहीं है। ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
२. अर्थ लिंगजके २० भेदोका नाम निर्देश ष. खं. १३/५.६/गा. १ व सू. ४८।२६० पज्जय-अक्खर पद-संघादयपडिवत्ति-जोगदाराई। पाहुडपाहुडवत्थू पुत्वसमासाय बोद्धव्वा ।। पज्जयावरणीयं पज्जयसमासावरणीयं अक्रवरावरणीयं अक्रवरसमा
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