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समवृत्ति स्तूप
समाचार
सगबरगुरुणा विसज्जिओ संतो। अप्पच उत्थो तदिओ विदिओ वासो तदो णीदी ।१४७॥ [औधिक समाचारके इच्छाकारादि दश भेद हैं। उनके लक्षण देखो अगला शीर्षक ] जिस समय सूर्य उदय होता है, वहाँसे लेकर समस्त दिन रातकी परिपाटीमें मुनि लोग नियमादिकोंको निरन्तर आचरण करें सो यह प्रत्यक्ष रूप पद विभागी समाचार कहा है ।१३०। वीर्य आदिसे समर्थ कोई मुनि अपने गुरुसे सर्व शास्त्रोंको जानकर विनय सहित प्रणाम करके प्रमाद रहित हुआ गुरुसे पूछे ।१४। हे गुरो ! मैं तुम्हारे चरण प्रसादसे अन्य आचार्य के पास जाना चाहता हूँ। इस अवसरपर तीन वा पाँच वा छह बार तक पूछना चाहिए, करनेसे उत्साह व विनय मालूम होता है ।१४६। इस प्रकार अपने श्रेष्ठ गुरुसे पूछ कर उनसे आज्ञा लेता हुआ अपने साथ तीन, दो वा एक मुनिको साथ लेकर जावे अकेला न जावे ।१४७। [एकाकी बिहारकी विधि व निषेध सम्बन्धी-दे. एकल विहारी, विहार ]
समवृत्तस्तूप-Circular Pyramid. (ज. प./प्र. १०८ )
-पं. का./त.प्र./५० द्रव्यगुणानामेकास्तित्व निवृत्तित्वादनादिरनिधना सहवृत्तिहि समवर्तित्वम् । - द्रव्य और गुण एक अस्तित्वसे रचित हैं, इसलिए उनकी जो अनादि अनंत सहवृत्ति ( एक साथ रहना) वह वास्तव में समवर्तीपना है। पं. का./ता, वृ./५०/६/९ समवृत्तिः सहवृत्तिगुणगुणिनोः कथंचिदे
कत्वेनादितादात्म्यसंबन्ध इत्यर्थः । -समवृत्तिका अर्थ सहवृत्ति है, अर्थात् गुण-गुणीका एकत्व रूपसे अनादि तादात्म्य सम्बन्ध समवृत्ति है। . समान्तर श्रेणि-Arithematical Progression
(ज.प./प्र.१०८) समान्तरानीक-Parallelepiped ( ज. प./प्र. १०८ ) समान्तरी गुणोत्तर श्रेणि-Arithematico-geometrical
Progression ( ज. प./प्र. १०८) समाचार-१. समाचार सामान्यका लक्षण मू. आ./१२३ समदा समाचारो सम्माचारो समो व आचारो । सम्वेसिं हि समाणं समाचारो दु आचारो।१२३॥ = समता भाव समाचार है, अथवा सम्यक् अर्थात् अतिचार रहित जो मूलगुणोंका आचरण, अथवा समस्त मुनियों का समान अहिंसादि रूप जो आचरण, अथवा सर्व क्षेत्रों में हानिवृद्धि रहित कायोत्सर्गादिकर सदृश परिणामरूप
आचरण वह समाचार है। न, च, वृ./३३८ लोगिगसद्धारहिओ चरणविहूणो तहेब अववादी। विवरीओ खलु तच्चे बज्जेव्वाते समायारे। जो श्रमण लौकिक हैं, श्रद्धाविहीन है, चारित्र रहित हैं, अपवादशील हैं और तत्त्वमें विपरीत हैं उनके साथ समाचार (संसर्ग ) नहीं करना चाहिए। समान आचारवाले साधुके साथ हो साधुको संसर्ग रखना चाहिए।
४. इच्छाकार आदिका विषय मू. आ./१२६-१२८ इठे इच्छाकारो मिच्छाकारो, तहेव अवराधे। पुडि
सुणणह्मि तहत्ति य णिग्गमणे आसिया भणिया ।१२६। पविसंते अ णिसीही आपुच्छणिया सकज्जाआर भे। साधम्मिणा य गुरुणा पुवणिसिठ्ठह्मि पडिपुच्छा ।१२७। छंदण गहिदे दव्वे अगिहदव्वे णिमंतणा भणिदा। तुह्यमहत्ति गुरुकुले आदि णिसग्गो दु उवसंपा।१२।
शुभ परिणामोंमें हर्ष होना इच्छाकार है। अतिचार होनेरूप अशुभ परिणामों में मिथ्या शब्द कहना मिथ्याकार है। सूत्रके अर्थ सुनने में 'तथेति' कहना तथाकार है। रहनेकी जगहसे पूछकर निकलना आसिका है। स्थान प्रवेशमें पूछकर प्रवेश करना निषेधिका है। पठनादि कार्यों में गुरु आदिकोंसे प्रश्न करना आपृच्छा है। साधर्मो अथवा गुरु आदिसे पहले दिये हुए उपकरणों को पूछकर ग्रहण करना प्रतिपृच्छा है। उपकरणोंको देने वाले के अभिप्रायके अनुकूल रखना सो छन्दन है। तथा अगृहीत द्रव्यकी याचना करना निमन्त्रणा है। और गुरुकुल में 'मैं आपका हूँ' ऐसा कहकर आचरण करना वह उपसंयत है।
२. समाचारके भेद मू. आ./१२४-१२५. १३६,१४४ दुविहो समाचारो ओधो विय पदविभागिओ चेव । दसहा ओधो भणिओ अणेगहा पदविभागीय ।१२४॥ इच्छामिच्छाकारो तधाकारो य आसिआ णिसिही। आपुच्छा पडिपुच्छा छंदण सणिमंतणा य उपसंपा।१२॥ उवसंपया य णेया पंचविहा जिणवरेंहि णिहिट्टा । विणए खेत्ते मग्गे सुहदुक्खे चेय सुत्ते य।१३६। उपसंपया य सुत्ते तिविहा सुत्तत्थतदुभया चेव । एक्केका विय तिविहा लोइय वेदे तहा समये ।१४४। समाचार दो प्रकारका है-औधिक व पद विभागी। औधिकके दश भेद हैं और पदविभागीके अनेक भेद हैं ।१४। औधिक समाचारके दश भेद हैं-इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, आसिका, निषेधिका, आपृच्छा, प्रतिपृच्छा, छेदन, सनिमन्त्रणा और उपसंयत ।१२। गुरुजनोंके लिए आत्मसमर्पण करने वाला उपसंयत पाँच प्रकारका है--विनयमें, क्षेत्रमें, मार्गमें, सुख-दुरखमें, और सूत्रमें कहना चाहिए ।१३९। सूत्रोपसंयत तीन प्रकारका है-सूत्र अर्थ व तदुभय । यह एक-एक भी तीन तरहके हैं-लौकिक, वैदिक, व सामायिक ।
३ औधिक व पदविभागी निर्देश मू, आ./१३०, १४५-१४७ उग्गमसूरप्पहुदी समणाहोरत्तमंडले कसिणे । जं
अच्चरति सददं एसो भणिदो पद विभागी।१३०। कोइ सव्वसमत्थो सगुरुसुदं सब आगमित्ताणं । विणएणुवक्कमित्ता पुच्छइ सगुरु पयत्तेण ११४५॥ तुज्झ पादपसाएण अण्णमिच्छामि गंतुमायदणं । तिणि व पंच व छ वा पुच्छाओ एत्थ सो कुणइ ।१४६। एवं आपुच्छित्ता
५. इच्छाकार आदिका स्वरूप मू. आ./१३१-१३८ संजमणाणुवकरणे अण्णुवकरणे च जायणे अण्णे । जोगग्गहणादीसु अ इच्छाकारो दु कादयो ।१३१। जं दुक्कडं तु मिच्छा तंणेच्छदि दुक्कडं पुणो कादु । भावेण य पडिकंतो तस्स भवे दुक्कडे मिच्छा ।१३२। वायण पडिच्छणाए उवदेसे सुत्तअस्थकहणाए। अवितहमेदत्ति पुणो पडिच्छणाए तधाकारो ॥१३३। कंदरपुलिणगुहादिसु पवेसकाले णिसिद्धिअं कुज्जा। तेहिंतो णिग्गमणे तहासिया होदि कायब्वा ।१३४॥ आदावणादिगहणे सण्णा उभामगादिगमणे वा। विणये णायरियादिसु आपुच्छा होदि कायठवा ॥१३॥ जं किंचि महाकज्जं करणीयं पुच्छिऊण गुरुआदि । पुणरवि पुच्छदि साधु तं जाणसु होदि पडिपुच्छा ।१३६। गहिदुवकरणे विणए वंदणसुत्तत्यपुच्छणादीसु । गणधरवसभादीणं अणुवृत्ति छंदणिच्छाए ।१३७। गुरुसाहम्मियदव्वं पोत्थयमण्णं च गेण्हिदु इच्छे। तेसिं विणयेण पुणो णिमंतणा होइ कायव्वा ।१३८-१. संयमके पीछी आदि उपकरणों में, ज्ञानके उपकरणों में अथवा अन्य भी तपादिके उपकरणों में तथा आतापनादि योगों में इच्छाकार अर्थात् मनको प्रवर्ताना ॥१३॥ २. जो व्रतादिमें मेरे अतिचार लगा हो वह मिथ्या होवे, ऐमे मिथ्या किये पापों को फिर करनेको इच्छा न करे, और अन्तरंग भावसे प्रतिक्रमण करता है उसीके दुष्कृतमें मिथ्याकार होता है ।१३२॥ ३. जीवादिकके व्याख्यानका सुनना, सिद्धान्त श्रवण, परम्परासे चला आया उपदेश और सूत्रादिका अर्थ-इनमें जो अहं तने कहा वह सत्य है, ऐसा समझना तथाकार है । १३३।४-५.कंदर,जलके मध्यप्रदेश
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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