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सम्यग्दर्शन
IV उपशमादि सम्यग्दर्शन
होकर तीर्थंकर प्रकृतिको बाँधने के योग्य हो जाते हैं, ऐसा यहाँ प्रकरण है। ) ( और भी दे. सम्यग्दर्शन/IV/२/८)
६. अनादि मिथ्यादृष्टिको सीधा प्राप्त नहीं होता प्र.११,६,१२१/७३/५ एइंदिएसु दीहद्धमवट्ठिदस्स उठवेल्लिदसम्मत्तसम्मामिच्छत्तस्स तदुप्पायणे संभवाभावा । = एकेन्द्रियोंमें दीर्घकाल तक रहनेवाले और उद्वलना को है सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी जिसने ऐसे जीवके वेदक सम्यक्त्वका उत्पन्न कराना सम्भव
नहीं है। (ध.१/१,६,२८८/१३६/६) दे. सम्यग्दर्शन/IV/२/६ में अन्तिम सन्दर्भ-[उपरोक्त प्रकारका जीव अनादिमिथ्यादृष्टि ही होता है।)
७. सम्यक्त्वसे च्युत होनेवाले बहुत कम हैं ध. ३/१,२,१४/१२०/४ वेदगसम्माइट्ठीणमसंखेज्जदिभागो मिच्छत्तं गच्छदि । तस्स वि असंखेज्ज दिभागो सम्मामिच्छत्तं गच्छदि । - वेदक सम्यग्दृष्टियोंका असंख्यातवाँ भाग मिथ्यात्वको प्राप्त होता है और उसका भी असंख्यातवाँ भाग सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होता है। ८. च्युत होनेके पश्चात् अन्तमुहर्तसे पहले सम्यक्त्व पुनः प्राप्त नहीं होता। क. पा. ३/३-२२/६३६२/१६६/४ संकिलेसादो ओयरिय विसोहीए अंतोमुहत्तावट्ठाणेण विणा सम्मत्तस्स गणाणुववत्तीदो। मिथ्यात्वमें आकर और उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कारणभूत संक्लेशसे च्युत होकर, विशुद्धिको प्राप्त करके, जब तक उस विशुद्धिके साथ जीव मिथ्यात्वमें अन्तर्मुहूर्त कालतक नहीं ठहरता, तबतक उसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं हो सकती है। ( विशेष दे. अन्तर/)।
९. ऊपरके गुणस्थानोंमें न होनेमें हेतु घ. १/१,१,१४६/३६७/७ उपरितनगुणेषु किमिति वेदकसयक्त्वं नास्तीति चेन्न, अगाढसमल श्रद्धानेन सह क्षपकोपशमश्रेण्यारोहणानुपपत्तेः । प्रश्न-ऊपरके आठवें आदि गुणस्थानों में वेदकसम्यग्दर्शन क्यों नहीं होता है ? उत्तर-नहीं होता, क्योंकि, अगाढ़ आदि मलसहित श्रद्धानके साथ क्षपक और उपशम श्रेणीका चढ़ना नहीं बनता है।
१०. कृतकृत्य वेदक सम्बन्धी कुछ नियम ध. ६/१,६-८,१२/२६३/१ कदकर णिज्जकालभतरे मरणं पि होज्ज, काउ-तेउ-पम्म-सुक्क-लेस्साणमण्णदराए लेस्साए वि परिणामेज्ज, संकिलिस्सदु वा विसुज्झदु बा, तो वि असंखेज्जगुणाए सेडीए जाव समयाहियावलिया सेसा ताव असंखेज्जाणं समयपबद्धाणमुदीरणा, उक्कस्सिया वि उदीरणा उदयस्स असं खेज्जदिभागो । कृतकृत्यवेदककाल के भीतर उसका मरण भी हो (विशेष दे, मरण/३/८); कापोत तेज पद्म और शुक्ल इन लेश्याओंमें से किसी एक लेश्याके द्वारा भी परिणमित हो; संक्लेश को प्राप्त हो; अथवा विशुद्धिको प्राप्त हो तो भी असंख्यातगुणित श्रेणी के द्वारा जब तक एक समय अधिक आवलीकाल शेष रहता है, तबतक असंख्यात समय प्रबद्धोंकी उदीरणा होती रहती है। उत्कृष्ट भी उदीरणा उदयके असंख्यातवें भाग होती है। ५. क्षायिक सम्यक्त्व निर्देश
१. क्षायिक सम्यग्दर्शनका लक्षण पं. सं./प्रा /१/१६०-१६२ रवीणे दंसणमोहे जं सद्दणं सुणिम्मल होइ । तखाइयसम्मत्तं णिच्चं कम्मवत्रण हेउं । १६० वयणेहिं वि हेऊ हि
य इंदियभय जणणगेहिं रूवेहिं । वीभच्छ-दुगुंछेहि य णे तेल्लोक्केण चालिज्जा ।१६१॥ एवं विउला बुद्री ण य विभयमेदि किंचि दट ठूणं । पठविए सम्मत्ते खइए जीवस्स लद्धीए।१२। दर्शनमोहनीय कर्मके सर्वथा क्षय हो जानेपर जो निर्मल श्रद्धान होता है, उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। वह सम्यक्त्व नित्य है और कर्मोके क्षय करनेका कारण है ।१६। श्रद्धानको भ्रष्ट करनेवाले वचनोंसे, तर्कोसे, इन्द्रियों को भय उत्पन्न करनेवाले रूपोंसे तथा वीभरस और जुगुप्सित पदार्थासे भी चलायमान नहीं होता। अधिक क्या कहा जाय वह त्रैलोक्यके द्वारा भी चल-विचल नहीं होता।१६१ क्षायिक सम्यक्त्वके प्रारम्भ होनेपर अथवा प्राप्ति या निष्ठापन होनेपर, क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवके ऐसी विशाल, गम्भीर एवं दृढ़ बुद्धि उत्पन्न हो जाती है कि वह कुछ (असम्भव या अनहोनी घटनाएँ) देखकर भी विस्मय या क्षोभको प्राप्त नहीं होता ।१६२। (ध. १/१,१४४/गा. २१३-२१४ );
गो. जी./मू./६४६-६४७/१०६६ ) । स, सि./२/४/१५४/११ पूर्वोक्तानां सप्तानां प्रकृतीनामत्यन्तक्षयारक्षायिक सम्यक्त्वम् । -पूर्वोक्त ( दर्शनमोहनीयकी) सात प्रकृतियों के अत्यन्त विनाशसे क्षायिक सम्यक्त्व होता है । (रा. वा./२/४/७/१०६/११)। ल, सा./मू./१६४/२१७ सत्तण्णं पयडीणं खयादु खइयं तु होदि सम्मत्त । मेरु व णिप्पकंप सुणिम्मलं अक्खयमणतं ।१६४= सात प्रकृतियों के क्षयसे क्षायिक सम्यक्त्व होता है। वह मेरुकी भाँति निष्प्रकम्प, निर्मल व अक्षय अनन्त है। प्र. प./टो./१/६९/६९/९ शुदात्मादिपदार्थ विषये विपरीताभिनिवेशरहितः
परिणामः क्षायिकसम्यक्त्वमिति भण्यते ।-शुद्ध आरमा आदि पदार्थोके विषयमें विपरीत अभिनिवेश रहित परिणाम क्षायिक
सम्यक्त्व कहा जाता है । (द्र. सं./टी./१४/४२/५) ध.१/१,१,१२/१७१/४ एदासिं सत्तण्हं पिरवसेसखएण खइयसम्माइट्ठी
उच्चइ।...वइयसम्माइट्ठीण कयाइ वि मिच्छत्तं गच्छइ, ण कुणइ सदेहं पि. मिच्छत्तुभव । दट्ठूण णो विम्यं जायदि । - सात प्रकृतियों के सर्वथा विनाशसे जीव क्षायिक सम्यग्दृष्टि कहा जाता है।...क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव कभी भी मिथ्यात्वको प्राप्त नहीं होता, किसी प्रकारके सन्देहको भी नहीं करता, और मिथ्यात्वजन्य अतिशयों को देखकर विस्मयको भी प्राप्त नहीं होता है।
२. क्षायिक सम्यक्त्वका स्वामित्व १. गति व पर्याप्तिकी अपेक्षा दे. सम्यग्दर्शन/IV/४/५/१-[ नरक गतिमें केवल प्रथम पृथिवीमें होता
अन्य पृथिवियों में नहीं। वहाँ पर्याप्तक व अपर्याप्तक दोनों के होता है। तियंच गतिमें तियंचोंको पर्याप्तक व अपर्याप्तक दोनों को होता है, पर तियचिनियोंको सर्वथा नहीं। मनुष्य गतिमें मनुष्योंको पर्याप्तक व अपर्याप्तक दोनों को होता है, मनुष्यनीके केवल पर्याप्तकको होता है। देवों में पर्याप्त व अपर्याप्त दोनोंको होता है, पर भवनत्रिक व
सर्व ही देवियों के सर्वथा नहीं होता है। विशेष दे. वह-वह गति)। गो. क./जो./प्र./५५०/७४२/६ क्षायिक धर्मानारकभोगभूमितिर्यग्भोगकर्मभूमिमनुष्यवैमानिकेष्वेव पर्याप्त पर्याप्तेषु । क्षायिक सम्यग्दर्शन धर्मानरक अर्थात प्रथम पृथिवीमें, भोगभूमिज तिर्यचोंमें, कर्म व भूमिज मनुष्यों में तथा वैमानिक देवोंमें पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों अवस्थाओं में होते हैं ( विशेष दे, वह-बह गति )। २. प्रस्थापक व निष्ठापककी अपेक्षा ष, खं. ६/१,६.८/सूत्र १२/२४७ णिवओ पुण चतुसु वि गदीसु णिठ्ठवे दि ११२-दर्शनमोहकी क्षपणाका निष्ठापक तो चारों ही गतियों में उसका निष्ठापन करता है। [पर इसका प्रस्थापन मनुष्यगतिमें ही सम्भव है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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