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सम्यग्दर्शन
IV उपशमादि सम्यग्दर्शन
सम्मत्तु दरग जीवस्स ।१६।। -वेदक सम्यक्त्वके उत्पन्न होनेपर जीवकी बुद्धि शुभानुमन्धो या सुखानुबन्धी हो जाती है । शुचिकर्म में रति उत्पन्न होती है। श्रुतमें संवेग अर्थात प्रीति पैदा होती है। तत्त्वार्थ में श्रद्धान, प्रिय धर्म में अनुराग एवं संसारसे तीव्र निर्वेद अर्थात वैराग्य जागृत हो जाता है ।१६३। इन गुणोंको आदि लेकर इस प्रकारके जितने गुण हैं, वे सब वेदक सम्यक्त्वी जीवके प्रकट हो जाते हैं । सम्यक्त्व प्रकृति के उदयका वेदन करनेवाले जीवको वेदकसम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।१६४।
४. वेदक सम्यक्त्वकी मलिनताका निर्देश ध. १/१,१.१२/१७१/१० जो पुण वेश्यसम्माइट्ठी सो सिथिलसदहणो
थेरस्स ल ठिग्गहणं व सिथिलग्गाहो कुहेउ-कुदि8 तेहि झडिदि विराहओ। =वेदक सम्यग्दृष्टि जीव शिथिल श्रद्धानी होता है, इसलिए वृद्ध पुरुष जिस प्रकार अपने हाथ में लकड़ीको शिथिलतापूर्वक पकड़ता है, उसी प्रकार वह भी तत्त्वार्थ के श्रद्धानमें शिथिलग्राही होता है। अतः कुहेतु और कुदृष्टान्तसे उसे सम्यक्त्वकी विराधना करने में देर नहीं लगती है। (और भी दे. अगाढ) घ.६/१६-१,२१/४०/१ अत्तागमपयत्यसखाए सिथिलतं सद्भाहाणी वि सम्मत्तलिंगं । -आप्त आगम और पदार्थोंकी श्रद्धामें शिथिलता और श्रद्राकी हीनता होना सम्यक्त्वप्रकृतिका चिह्न है। (दे मोहनीय/२/४) दे सम्य/I/२/६ [ दर्शनमोहके उदयसे (अर्थात सम्यवत्व-प्रकृतिके
उदयसे) सम्यग्दर्शनमें शंका कांक्षा आदि अतिचार लगते हैं । दे, अनुभाग/४/६/३ [ सम्यक्त्व प्रकृति सम्यक्त्वके स्थिरता और
निष्कांक्षता गुणोंका घात करती है। गो, जी./मू./२५/५० सम्मत्तदेसघादिस्मुदयादो वेदगं हवे सम्म । चलमलिनमगाढं तं णिच्चं कम्मक्रवत्रणहेदु ॥२४॥ - सम्यक्त्व नामकी देशघाती प्रकृतिके उदग्रसे सम्प्रक्त्व चल मलिन व अगाढ़ दोषसे युक्त हो जाता है, परन्तु नित्य ही वह कर्मक्षयका हेतु मना रहता है। (और भी दे. सम्यग्दर्शन/IV/४/१/२), (अन. ध /२/५६/१८२) दे. चल-(अपने व अन्य के द्वारा स्थापित जिनबिम्बों में मेरे तेरे की बुद्धि करता है. तथा कुछ मात्र काल स्थिर रह कर चलायमान हो जाता है।) दे. मल-[शंका आदि दोषोंसे दूषित हो जाना मल है।]
मनुष्यगतिमें क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों प्रकारके मनुष्योंके होता है। मनुष्यणियों के तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु पर्याप्तक मनुष्यनी के ही होते हैं, अपर्याप्तक मनुष्यणीके नहीं। देवगतिमें पर्याप्तक, अपर्याप्तक दोनों प्रकारके देवोंके तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं । विशेषरूपसे भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों के, इन तीनोंकी देवांगनाओके तथा सौधर्म और ऐशान कल्पमें उत्पन्न हुई देवांगनाओके क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता शेष दो होते हैं, सो वे भी पर्याप्तक अवस्थामें ही होते हैं। (विशेष दे. वह-वह गति तथा सत) गो. जी./मू./१२८/३३६ हेट्ठिमछप्पुढवीणं जोइसिवणभवणसव्वइत्थीणं ।
पुण्णिदरे णहि सम्मो ण सासणो णारयापुणे ।१२८। -नरक गतिमें प्रथम पृथिवीके अतिरिक्त नीचेकी छह पृथिवीमें, देव गतिमें ज्योतिषी व्यन्तर व भवनवासी देव, सर्व ही प्रकारकी स्त्रियाँ, इन सबको पर्याप्त अवस्थामें ही सम्यक्त्व होता है अपर्याप्त अवस्थामें नहीं। इसके अतिरिक्त नारकियोंको अपर्याप्त अवस्थामें सासादन भी नहीं होता है। गो, जी./५५०/७४२/७ वेदकं चातुर्गतिपर्याप्त नित्यपर्याप्तेषु १७
-वेदक सम्यग्दर्शन चारों ही गतियों में पर्याप्त व निवृत्यपर्याप्त दोनों दशाओं में होता है।
२. गुणस्थानों की अपेक्षा ष, खं. १/१,१/सूत्र १४६/३६७ वेदगसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी-पहुडि
जाव अप्पमत्तसंजदा त्ति ।१४६। -वेदक सम्यग्दृष्टि जीव असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होते हैं। (विशेष दे. सत्)
५. वेदक सम्यक्त्वका स्वामित्व १. गति व पर्याप्ति आदिकी अपेक्षा स. सि /१/७/२२/६ गत्यनुवादेन नरकगती सर्वासु पृथिवीषु नारका पर्याप्तकानामौपशमिक क्षायोपश मिकं चास्ति । प्रथमायां पृथिव्यां पर्याप्तापर्याप्तकाना क्षायिक क्षायोपशमिक चास्ति। तिर्यग्गतो तिरश्चा...क्षायिक क्षायोपशमिकं च पर्याप्तापर्याप्तकानामस्ति। तिरश्चीनां क्षायिक नास्ति। क्षायोपशभिकं च पर्याप्तिकानामेव नापर्याप्तिकानाम् । मनुष्यगतौ मनुष्याणां पर्याप्तापर्याप्तकानां क्षायिक क्षायोपशमिक चास्ति। मानुषीणां त्रितयमप्यस्ति पर्याप्तिकानामेव नापर्याप्तिकानाम् । देवगतौ देवानां पर्याप्तापर्याप्त कानां त्रितयमप्यस्ति ...विशेषेण भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्काणां देवानां देवीनां च सौधर्मशान कल्पवासिनीनां च क्षायिकं नास्ति । तेषां पर्याप्त कानामौपशमिक क्षायोपशमिकं चास्ति । = गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें सब पृथिवियों में पर्याप्तक नारकियोंके औपशमिक व क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है । पहली पृथिवीमें पर्याप्तक और अपर्याप्तक नारकियों में क्षायिक व क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। तिर्यचमतिमें क्षायिक और क्षायोपश मिक पर्याप्त और अपर्याप्तक दोनों प्रकारके तिर्यंचोके होता है। तियं चिनीके क्षायिक नहीं होता क्षायोपशमिक पर्याप्त कके ही होता है, अपर्याप्तक तिर्यचिनीके नहीं।
३. उपशम सम्यग्दृष्टि व सादि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा गो. क./जी. प्र./५५०/७४४/१६ कर्मभूमिमनुष्यप्रथमोपशमसम्यग्दृष्टयश्च स्वस्वान्तर्मुहूर्तकाले गते सम्यक्त्वप्रकृत्युदयावदकसम्यग्दृष्टयो जायन्ते। कर्मभूमिमनुष्यसादिमिथ्यादृष्टयः सम्यक्त्वप्रकृत्युदयेन मिथ्यात्वोदयनिषेकानुत्कृष्यासं यतादिचतुर्गणस्थानवेदकसम्यग्दृष्टयो भूत्वा ।...नरकगतौ प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टयः स्वकालानन्तरसमयं प्राप्य सभ्यग्मिथ्यादृष्टिसादिमिथ्यादृष्टयः मिश्रमिथ्यात्वप्रकृत्युदय. निषेकानुत्कृष्य च सम्यक्त्वप्रकृत्युदयाव दकसम्यग्दृष्टयो भूत्वा ।... कर्मभोगभूमितियंचो भोगभूमिमनुष्याश्च प्रथमोपशमसम्यवस्वं त्यक्त्वा सादिमिथ्यादृष्टितिर्यञ्चो मिथ्यात्त्रोदयनिषेकानुत्कृष्य च सम्यक्त्वप्रकृत्युदयावदकसम्यग्दृष्टयो जायन्ते ।...भवनत्रयाइयुपरिमग्रैवेयकान्तसादिमिथ्यादृष्टयः करणत्रयमकृत्वा वा यथासंभवं सम्यवत्वप्रकृत्यान्मिथ्यात्वं त्यक्त्वा वेदक सम्यग्दृष्टयो भूत्वा तदेव बध्नन्ति । -कर्मभूमिज मनुष्य प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि अपने-अपने योग्य अन्तर्मुहूर्त कालके बीत जानेपर सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयसे वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाते हैं । कर्मभूमिज मनुष्य सादि मिथ्यावृष्टि सम्यक्त्व प्रकृति के उदयसे उदयगत मिथ्यात्वके निषेकोंका अभाव करके असंयतादि चार गुणस्थानवी वेदक सम्यग्दृष्टि होकर... नरक गतिमें प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि जीव अपने काल के अनन्तर समयको प्राप्त करके, मिश्रगुणस्थानवर्ती या सादि मिथ्यावृष्टि हो, मिश्र ब । मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयगत निषेकोंको हटाकर सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयसे वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। कर्मभूमिज तिथंच और भोगभूमिज मनुष्य प्रथमोपशमको छोड़ और सादि मिथ्याष्टि तियं च मिथ्यात्वके उदयगत निषकों का अभाव करके सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयसे वेदक-सम्यग्दृष्टि हो जाते हैं । भवनत्रिकसे लेकर उपरिम ग्रैवेयक पर्यन्तके सादि मिथ्यादृष्टि देव करणत्रयको करके अथवा यथासम्भव सम्यरत प्रकृतिके द्वारा मिथ्यात्वको छोड़कर वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। (इस प्रकार ये सभी जीव वेदक सम्यग्दृष्टि
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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