Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 376
________________ सम्यग्दर्शन दिभागमेत्तं होदि । - १. सजीवोंमें रहकर जिसने सम्यक्त्व और सम्बमियाल इन दो प्रकृतियोंका उद्वेलन किया है, वह जीन सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति सत्त्वस्वरूप सागरोपम पृथक्त्वके पश्चात् उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होता है। यदि इससे ऊपरकी स्थिति रहने पर सम्यक्त्वको ग्रहण करता है, तो निश्चयसे वेदक सम्यक्त्वको ही प्राप्त होता है । २. और एकेन्द्रियों में जाकरके जिसने सम्यमत्व और सम्यग्मिध्यात्मको उद्वेलना की है, वह पत्योपमके असंख्यातवें भागसे कम सागरोपमकालमात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका स्थितिसएव अवशेष रहनेपर प्रस जीवोंनें उत्पन्न ह कर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होता है इन स्थितियोंसे कम शेष कर्मस्थिति, उद्वेलनकाल पृ कि पत्योपयके असंख्यातने भाग है (दे. संक्रमण ) इसलिए सासादन गुणस्थानका एक जीव सम्बन्धी जघन्य अन्तर भी ( प्रथमोपशमकी भाँति ) पत्योपमके असंख्यात भागमात्र ही होता है। विशेष अन्तर/२/६) . मो . / . /६१५/८२० उदधितं तु तसे पता संगमेयरले जाव य सम्मं मिस्स वेदगजोग्गो व उबसमरस्सतदो । - = सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय, इनकी पूर्वमद्ध सत्तारूप स्थिति इसके तो सागरोपम प्रमाण अवशेष रहनेपर और एकेन्द्रियों के पल्यका असंख्यातवाँ भाग हीन एक सागरोपम प्रमाण अवशेष रहने पर, तावत्काल वेदक योग्य काल माना गया है। और उससे भी हीन स्थितिसत्त्व हो जानेपर उपशम योग्य काल माना गया है । ३६९ गौ क./जी. प्र./५५०/०४२ / १२ सादिदि सम्यमिश्रप्रकृति स्वस्तदा कृतीः सदसयस्तदा सोऽप्यनादिरपि निष्याणानुन.. प्रशस्तोपशम विधानेन युगपदेवोपशम्यान्तर्मुहूर्त का प्रथमोपशमसम्यक्त्वं स्वीकुर्वन् । सादि मिथ्यादृष्टिके यदि सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय, इन दो प्रकृतियोंका सत्य हो तो उसके सात प्रकृतियों है और यदि इन दोनोंका सत्व नहीं है अर्थात इनकी उद्वेलना कर दी है तो उसके दर्शनमोहको पाँच प्रकृतियाँ है ऐसा जीव भी अनादि मिध्यादृष्टि हो है। यह भी मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क इन पाँच प्रकृतियोंको प्रशस्त उपशम या सर्वोपशम विधान के द्वारा युगपत् उपशमाकर, अन्तर्मुहूर्त कालपर्यन्त उपशम सम्यको अंगीकार करता है (विशेष दें अन्तर /२/ ७. प्रथमोपशम से च्युति सम्बन्धी नियम क. पा. सुत/१०/गा. नं/६३२ मिच्छत्तवेदणीयं कम्मं उवसामगस्स बोद्धवं । उनसे आसा रोग पर हो |१| सम्मेदविरोसेि उन संता होंति तिग्णि कसा एक्कन्हिय अणुभाने पियमा सब्बे द्विदिविसेसा ॥१००॥ तो मुहुत्समद सब्बोवसमे हो उसंतो तत्तो परमुदयो खलु तिण्णेक्कदरस्स कम्मस्स । १०३ | सम्मत्तपढमलं भस्स पदोपदी मिच्द संभस्स अण्ढमस्स भजियो पच्छिदो होदि ११०५॥ उपशामक के मिध्यात्व वेदनीयकर्मका उदय जानना चाहिए। किन्तु उपशान्त अवस्थाके विनाश होनेपर तदनन्तर उसका उदय भय है । ६ ( प ६/१.६-८,६/गा, ६/ २४०)। २ दर्शनमोहनीयके मिध्यात्व सम्यग्मिध्यास्त्र और सभ्य 1 भा० ४-४७ प्रकृति ये तीनों कर्माश, दर्शनमोहको उपशान्त अवस्थामें सर्वस्थितिविशेषोंके साथ उपशान्त रहते हैं, अर्थात उस समय तीनों प्रकृतियोंमें से किसी एककी भी किसी स्थितिका उदय नहीं रहता है तथा एक ही अनुभागों उन तीनों कर्माशोंके सभी स्थिति विशेष नियम अपस्थित रहते हैं । १००१ (ध. २/१.१-१ / गा. ७/२४० ) । ३. उपशमसम्यग्दृष्टि जीनके दर्शनमोहनीय कर्म अन्तर्मुहूर्त काल तक सर्वोपशम से उपशान्त रहता है। इसके पश्चात् नियमसे उसके मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति, इन तीन कर्मों में से किसी एक कर्मका उदय हो जाता है | १०१ (४. ६/९.३-८.१/ गा. Jain Education International IV उपशमादि सम्यग्दर्शन ६/२४०) (स. सा. / . / १०२ / १३६) ४. सम्यकी प्रथम वार प्राप्ति के अनन्तर और पश्चात् मिथ्यात्वका उदय होता है । किन्तु अप्रथम बार सम्यक्त्वकी प्राप्तिके पश्चात् वह भवितव्य है । १०५ | (पं. सं. / प्रा./१/९७२) ( . ६/९.६-८.६/गा. १२ / २४२) (अन घ / २/९/१२० परत एक श्लोक ) ८. गिरकर किस गुणस्थान में जाये ध. १ / १.१.१२/१७१ / ८ एरिसो चेव उवसमसम्माइट्ठी, किंतु परिणामपच्चएण मिच्छत्तं गच्छह, सासणगुणं वि परिवज्जइ, सम्मामिच्छ पदसम्म पि समिलिय उपशम सम्यगष्टि यद्यपि क्षायिक निर्मत होता है, परन्तु परिणामों के निमित से उपशम सम्यक्त्वको छोड़कर मिथ्यात्वको जाता है, कभी सासादन गुणस्थानको भी प्राप्त करता है, कभी सम्यग स्थानको भी पहुँच जाता है और कभी वेश् सम्यक्त्व से मेल कर लेता है। गो. जी / जी. प्र. ७०४/१९४१/१५ से अप्रमत्तस्य बिना जय एव तत्स यान्तर्मुहुर्ते जघन्येन एकसमये उत्कृष्टेन पासिमावशिष्टे अनन्ताय रोऽपि यदि भव्यतागुणविशेषेण सम्यक्त्व विराधका न स्युः तदा सरकाने संपूर्णे जाते समय प्रकृत्ये दम्यामश्र खुद सम्यग्मिध्यायः मा मिध्यात्योदये मिथ्यादृश्यो भवन्ति । प [ प्रथमोशम सम्यक्त्व ४-७ तकके चार गुणस्थानों में होना सम्भव है ( दे, सत् ) ] तहाँ अप्रमत्तके बिना तीन गुणस्थानवर्ती जीव उस प्रथमोम के अन्तर्मुहूर्त मात्र कालमें से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट वही शेष रह जानेपर अनन्तानुमन्धी चतुष्कमें से किसी एकके उदयसे सासादन होते हैं । अथवा वे चारों ही गुणस्थानवर्ती यदि भव्यतागुणकी विशेषतासे सम्यक्त्वकी विराधना नहीं करते हैं, तो सम्यक्त्व प्रकृति के उदयसे वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाते हैं । अथवा मिश्र प्रकृतिके उदयसे सम्यग्मिध्यादृष्टि या मिध्यात्वके उदयसे मिध्यादृष्टि हो जाते है। (और भी थे सम्यग्दर्शन / IV/४/५/३) । ९. पंच लब्धि पूर्वक होता है घ. ६/९.१ ८.२/२०४/२ तिकरमचरिमसमए सम्मम्पतीदो देन खओवसमलद्धी विसोहिलद्धी देसणलद्धी पाओग्गलद्बधी त्ति चत्तारि लधीओ परुविदो । तीनों करणोंके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वकी उपलब्धि होती है। इस सबके द्वारा क्षयोपशम सन्धि विशुद्दिष लब्धि, देशना सन्धि और प्रायोग्य लब्धि ये चारों लब्धियाँ प्ररूपण की गयी और भी दे /२/२ तथा उपशम / २ / २) (रा. सा./ ४२४१६) १०. प्रारम्भ किये पश्चात् अवश्य प्राप्त करता है क. पा./१०/६०/६१९ उवसामगोच सज्यो जिवाधादो तहा मिरासाओ || दर्शनमोहका उपशमन करनेवाला जीव उपद्रव व उपसर्ग आनेपर भी उसका उपशम किये बिना नहीं रहता । (ध. ६/ १,६-८,१। गा ४/२३६ ); ( ल. सा. / मू/ ११ / १३६ ); ( और भी दे, अपूर्व करण / ४) । ३. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व निर्देश ६. द्वितीयोपशमका लक्षण जो स. सी. / भाषा/२/४२/१ उपशमश्रेणी पता क्षयोपशम सम्म उपशम सम्यक् (होता है) ताका नाम द्वितीयोपशम सम्यक्त्व है । ( और भी दे. सम्यग्दर्शन / IV/२/४/२ ) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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