Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 375
________________ सम्यग्दर्शन ३६८ IV उपशमादि सम्यग्दर्शन प्रवृत्तिका अभाव है। कृष्णादि छहों लेश्याओं से किसी एक लेश्या वाला हो, किन्तु यदि अशुभ लेश्या वाला हो तो हीयमान होना चाहिए, और यदि शुभ लेश्या हो तो वर्धमान होना चाहिए। ध.६/१,६-८,४/२१४/५ 'सबविसुद्धो' त्ति एदस्स पदस्स अत्थो उच्चदे। तं जधा-एत्थ पढमसम्मत्तं पडिवज्जंतस्स अधापवत्तकरण-अपुटवकरण-अणियट्टीकरणभेदेण तिविहाओ विसोहीओ होति। -अब सूत्रोक्त सर्व विशुद्ध' ( दे. इसी शीर्षकमें) इस पदका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है-यहाँपर प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके भेदसे तीन प्रकारकी विशुद्धियाँ होती हैं। गो.जी./पू./६५२/११०० चदुगदिभवो सण्णी पज्जत्तो य सागारो। - जागारो सक्लेस्सो सलद्धिगो सम्ममुवगमई। -चारों में से किसी भी गतिवाला, भव्य, सैनी, पर्याप्त साकारोपयोगी, जागृत, शुभलेश्या वाला, तथा करण लब्धिरूप परिणमा जीव यथासम्भव सम्यक्त्वको प्राप्त होता है। ल.सा./जी.प्र./२/११/१२ विशुद्ध इत्यनेन शुभलेश्यत्वं संगृहीतं उदयप्रस्तावे स्त्यानगृद्यादित्रयोदयाभावस्य वक्ष्यमाणत्वात् जागरत्वमप्युक्तमेव । -गाथामें प्रयुक्त 'विशुद्ध' इस शब्द से शुभ लेश्याका ग्रहण हो जाता है और स्त्यानगृद्धि आदि तीनों प्रकृतियोंके उदयका अभाव आगे कहा जायेगा (दे, उदय/६), इसलिए जागृतपना भी कह ही दिया गया। दृष्टि पर्याप्तकों में सम्यक्त्व उत्पन्न करनेवाले अन्तर्मुहर्स से लगाकर अपने योग्य अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् उत्पन्न करते हैं, उससे नीचे नहीं। इस प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए ।१-१॥ तिर्यचमिथ्यादृष्टि पर्याप्तकों में सम्यक्त्व उत्पन्न करनेवाले जीव दिवसपृथवत्वसे लगाकर उपरिम कालमें उत्पन्न करते हैं, नीचेके काल में नहीं। इस प्रकार सर्व द्वीपसमुद्रोंमें जानना चाहिए ।१३-३०। मनुष्य मिथ्याष्टि पर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व उत्पन्न करनेवाले जीव आठ वर्ष से लेकर ऊपर किसी समय भी उत्पन्न करते हैं, उससे नीचेके काल में नहीं। इस प्रकार अढाई द्वीपसमुद्रों में जानना चाहिए ।२३-२८१ देव मिथ्यादृष्टि पर्याप्तकों में प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करनेवाले जीव अन्तर्मुहूर्त क.लसे लेकर ऊपर उत्पन्न करते हैं, उससे नीचेके काल में नहीं। इस प्रकार भवनवासीसे लेकर उपरिम उपरिम | वेयक बिमानवासी देवोंतक जानना चाहिए ।३१-३॥ (रा. वा./२/३/१/१०५/२,६,८,१२) घ. १३/५.४,३१/११९/१० छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदम्मि एक्को, विस्समणे विदियो, विसोहिआबूरणे तदियो मुहुत्तो । किमट्ठमेदे अवणिज्जते । ण, एदेसु सम्मत्तग्गहणाभावादो। - छह पर्याप्तियोंसे प्राप्त होनेका प्रथम अन्तर्मुहूर्त है, विश्राम करनेका दूसरा अन्तर्मुहूर्त है और विशुद्धिको पूरा करनेका तीसरा अन्तर्मुहूर्त है। प्रश्न-ये अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितियों मेंसे क्यों घटाये जाते है ! उत्तरनहीं, क्योंकि, (जन्म होनेके पश्चात् ) इन अन्तर्मुहूतोंके भीतर सम्यक्त्व का ग्रहण नहीं होता है । ( अर्थात् ये तीन अन्तर्मुहूर्त बीत • जानेके पश्चात चौथे अन्तमहूर्त में ही सम्यक्त्वका ग्रहण सम्भव है, उससे पहले नहीं। पर ये चारों अन्तर्मुहर्त मिलकर भी एक अन्तर्मुहूर्त के कालको उल्लंघन नहीं कर पाते । ऐसे अन्तर्मुहूर्त द्वारा नारकी व देव प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण करते हैं।) ४. कोंके स्थिति बन्ध व स्थिति सत्त्वकी अपेक्षा ष. वं.६/१,६-८ सूत्र ३.५/२०३,२२२ एदेसि चेव सव्वकम्माणं जावे अंतोकोडाकोडिट्ठिदि बंधदि तावे पढमसम्मत्त लभदि ।३। एदेसि चेर सबकम्माण जाधे अंतोकोडाकोडिििद ठवेदि संखेज्जेहि सागरोवमसहस्सेहि ऊणि ताधे पढमसम्मत्तमुप्पादेदि।। -इन ही सर्व कर्मोंकी अर्थात् आठों कर्मोंकी जम अन्तःकोडाकोड़ी स्थितिको बाँधता है, तब यह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है ।३। जिस समय इन ही सर्व कर्मोकी संख्यात हज़ार सागरोपमोसे हीन अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण स्थितिको स्थापित करता है उस समय यह जीव प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है ।। (ल.सा /मू/६/४७) ल. सा./मू./८/४६ जेठ्ठवरहिदिबंधे जेवरहिदितियाण सत्ते य । ण य पडिव जिदि पढनुव समसम्म मिच्छ जीवोह 1८1 संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों में सम्भव ऐसे उस्कृष्ट स्थिति बन्ध और उत्कृष्ट स्थिति अनुभाग व प्रदेश सत्त्व-तथा विशुद्ध क्षपक श्रेणी वालेके सम्भव ऐसे जघन्य स्थिति बन्ध और जघन्य स्थिति, अनुभाव व प्रदेश सत्त्व, इनके होते हुए जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त नहीं करता। नोट-[सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियों के स्थिति सत्त्व सम्बन्धी विशेषता (दे, सम्यग्दर्शन/IV/२/६ ] ६. अनादि व सादि मिथ्यादृष्टिमें सम्यक्त्व प्राप्ति सम्बन्धी कुछ विशेषता क. पा.सु./१०/गा, १०४/४३५ सम्मत्तपढमलंभो सव्योवसमेण तह वियट्टेण । भजियव्वो य अभिवरखं सव्वोवसमेण देसेण ।१०४। - जो सर्व प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है, अर्थात अनादि मिथ्याष्टि जीव, उसके सम्यक्त्वका सर्वप्रथम लाभ सर्वोपशमनासे होता है । इसी प्रकार विप्रकृष्ट जीवके, [अर्थात जिसने पहले कभी सम्यक्त्वको प्राप्त किया था किन्तु पश्चान मिथ्यात्वको प्राप्त होकर और वहाँ सम्यक्रवप्रकृति एवं सम्यक्त्वमिथ्यात्वकर्मकी उद्वेलना कर बहुतकाल तक मिथ्यात्व सहित परिभ्रमण कर पुनः सम्यवत्वको प्राप्त किया है, अर्थाव अनादि तुल्य सादि मिथ्यादृष्टिके ( दे. आगे IV/४/५/३) प्रथमोपशम सम्यवत्वका लाभ भी सर्वोपशमसे होता है। किन्तु जो जीव सम्यक्त्वमे गिरकर जल्दी ही पुनः पुनः सम्यक्त्वको ग्रहण करता है, अर्थात सादि मिथ्याष्टि जीव सर्वोपशम और देशोपशमसे भजनीय है । (तीनों प्रकृतियों के उदयाभावको सर्वोपशम कहते हैं। तथा सम्यक्त्वप्रकृति सम्बन्धी देशघातीके उदयको देशोपशमना कहते हैं।) (पं.सं./प्र./१/१७१ ): (ध.६/१,६-८६/गा,११/२४१); (रा.वा./१/१/१३/५८८/२३); (गो. क /जी. प्र./५५०/७४२/१२) ध.१,६,३८/३३/१० तसेसु अच्छि दूण जेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि उठवे लिदाणि सो सागरोवम पुत्तण सम्मत्ससम्मामिच्छत्तहिदिसंतकम्मेण उसमसम्मत्तं पडिवज्ज दि एदम्हादो उवरिमासु द्विदीसु जदि सम्मत्तं गेहदि, तो णिच्छरण वेदगसम्मत्तमेव गेण्हदि । अध एई दिएसु जेण सम्मत्तसम्मामिच्छत्वाणि उव्वेलिदाणि, सो पलिदोबमस्स असंखेज दिभागेणुण सागरोवममेत्ते समत्त-सम्मामिच्छत्ताण ठिदिसंतकम्मे सेसे तसे सुववज्जिय उवसमसम्मत्तं पडिवजदि । एदाहि द्विदीहि ऊणसेस कम्मट्ठिदिउव्वेलणकालो जेण पलिदोवमस्स असंखे. जदिभागो तेण सासणेगजीवजहणंतर पि पलिदोवमस्स असंखेज ५. जन्मके पश्चात् प्राप्ति योग्य सर्वलघु काल ष. खं/१,६-९/सूत्र नं/४११-४३१ जेरझ्या मिच्छाइट्ठी/.../१/ पज्ज त्तएसु उप्पादेंता अंतोमुहत्तप्पहुडि जाव तत्पाओग्गंतोमुहत्तं उबरिमुपादेंति, णो हेट्ठा ।४। एवं जाव सत्तसु पुढवी णेरइया ।। तिरिक्तमिच्छाइट्ठी...।१३। पज्जत्तएस उप्पादेंता दिवसपुधत्तप्पहुडि जावमुवरिमुप्पा-ति णो हेट्ठादो १६॥ एवं जान सबदीवसमुह सु ॥२०॥ मणुस्सा मिच्छादिट्ठी...।२३। पज्जत्तएसु उप्पादेंता अट्ठवारप्पहुडि. जाव उवरिमुप्पा-ति, णो हेट्ठादो ।२७। एवं जाव अड्ढाइज्जदीवसमुद्देसु ॥२८॥ देवा मिच्छाइट्ठी...१३१२ पज्जत्तएसु उपाएता अंतोमुहत्तप्पहुडि जाव उपरि उप्पाएंति, णो हेदो ।३४। एवं जाव उवरिम उवरिमगेवज्जबिमाणवासियदेवा त्ति ।३५॥ नारकी मिथ्या जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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