Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 374
________________ सम्यग्दर्शन ४. प्रथमोपशमका प्रतिष्ठापक १. गति व जीव समासोंकी अपेक्षा ष. नं. ६/१. ६-८ / सूत्र / २३८ उवसातो कम्हि उवसामेदि, चदुसु विगदीसु उपसादिदिगी उसमे पंचिदिए उनसामेो पंच उपसमेटियो एहदियविगतिवियेदविदिषस उसात सण्णी वसामेदि, णो असन्नीषु । सन्णीसु उवसामेतो गन्भोवर्कतिए उवसामेदि, णो सम्मुच्छि मेसु । गन्भोवक्कैतिर उवसामेंतो पज्जत्तए उवसामेदि, णो अपज्जत्तए । पज्जत्त एसु वसा तो संखेज्जवस्सा उग्गेसु वि उवसामेदि, असंखेज्जबसाउने बि ३६७ 1 ...६/१.१६/१-२३ / ४९८-४३१ पेरहवा पज्जतर उप्पादेति णो अप्पज्जन्त्तरसु 1१-३१ एवं जाव सत्तसु पुढत्रीसु णेरड्या |५| तिरिवख... पंचिदिए राणी.. गम्भीमक लिए सु... पण उपदेखि १२-१८ एवं जान सम्मदीवसमुद्र सु ॥२०॥ मनुस्सा... गन्धोषकं लिए... पनतर उप्पादेति ॥२३-२३॥ एवं जाय अड्डाइज्जीवसमुह २८ देवापज्जत्तेसु उप्पादेति । एवं जाव उवरिमवज्जविमाणवासियदेवाति । ३१-३५१ -१. दर्शनमोहनीय कर्मको उपशमाता हुआ यह जीव कहाँ उपशमाता है ! चारों ही गतियों में उपशमाता है। चारों ही गतियों में पंचेन्द्रियों में उपशमाता है. एकेन्द्रियन्द्रियोंमें नहीं। पंचेन्द्रियोंमें उपशमाता हुआ संज्ञियोंमें उपशमाता है, असशियों में नहीं संक्षियोंमें उपशमाता हुआ गर्भीपाकों में उपमाता है सम्पूयोंमें नहीं, गर्मीप क्रान्तिकों ने उपशमाता हुआ यठकोंमें उपशमाता है अतकों में नहीं। पर्याप्त को उपशमाता हुआ संख्यातवर्षकी आयुवाले जीवों में भी उपशमाता है और असंख्यात वर्षकी आयुवाले जीवोंने भी उपशमाता है । । २. (विशेष रूपसे व्याख्यान करनेपर ) नरक गति में सातों ही पृथिवियोंमें पर्याप्तक ही उपशमाता है ।१-५१ तियंचगति में सर्व ही द्वीप समुद्रों में से पञ्चेन्द्रिय संज्ञी गर्भज पर्या ही उपमाते हैं । १३- २०१ मनुष्यगतिमें अड़ाई द्वीप समुद्रोंने गणपति ही उपमाते है २३-२५ देवगति भवनवासियों से लेकर उपरिम प्रवेयक पर्यंत पर्यटकही उपमा ३१-३३२ [ इनसे विपरीत अर्थात अपयश आदिमें नहीं उपशमाता है। (रा.वा./२/३/२/१०५/१) ध-१/१.६-८.४/२०६/- तस्य वि असण्गीण होदि ते विसि ठणाणासीदो सदो सो राणी चेन भी वे अछी नहीं होते, क्योंकि, असंही जीवोंमें विज्ञानकी उत्पत्ति नहीं होती है। . क. पा. सुत्त/१०/गा. ६५-६६ / ६३० दंसणमोहस्सुवसामगो दु च वि गदी मोब पंचिदियो य सण्णी नियमा सो होई पज्यो ६५ सम्यगित्य-भवणे वीस गृह जोदिसि निमाणे अभियोग्य अभिजग्ग उवसामो होइ बोद्धव्यो ६६ - १. दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम करनेवाला जीव चारों ही गतियोंमें जानना चाहिए। वह जीव नियमसे पंचेन्द्रिय संज्ञी और पर्याप्तक होता है | ६५ (पं. सं/प्रा./१/२०४), (४.६ / ९.६-२६ / गा.२ / २३६) (और भी दे, उपशीर्षक नं. २) २. क श्रेणीबद्ध आदि सर्व नरको में, सर्व प्रकार के भवनवासी देवों में, ( तियंचोंकी अपेक्षा ) सर्व द्वीपसमुद्रोंमें, (और मनुष्यों की अपेक्षा अढ़ाई द्वीप समुद्रों में ), सर्व व्यन्तर देवोंमें, समस्त ज्योतिष देवो सोधर्म से लेकर सर्व अभियोग्य अर्थात वाहनादि रूप नीच देवोंमें, उनसे भिन्न किविवष आदि अनुत्तम तथा पारिषद आदि उत्तम देवदनमोहनीय कर्मका उपशम होता है 1841 (ध. ६ / ११-०६ / गा ३ / २२१) Jain Education International मणेष विशा पंचेन्द्रियों में मनके विना IV उपशमादि सम्यग्दर्शन २. गुणस्थानको अपक्षा ष. खं. ६/१,६-८ / सूत्र ४/२०६ सो पुण पंचिदिओ सण्णीमिच्छाइट्ठी पज्जत सम्वत्रिसुद्धो |४| ./१/१-१-३ नं. / ४१८- पेरामा तिरिक्ख मिच्छाइट्ठी... | १३ | मणुस्सा मिच्छाइट्ठी... १२३॥ देवा मिच्छाहट्ठी पढमसम्मत्तमुप्पादेति । ३११ -१, वह प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करनेवाला जीव पचेन्द्रिय संज्ञी, मिध्यादृष्टि पर्याप्त बौर सर्व विशुद्ध होता है |४| (रा.वा./२/३/२/९०५/२६) (लसा./मू./२/ ४९) (गो..../२५० / ४४२ / १ में उमृत गाथा) २. नारकी, तिर्यश्च मनुष्य व देव ये चारों ही मिध्यादृष्टि प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करते हैं । १-३१ - घ. ६/१.१-५/२०५/१ सासमसम्माहट्टी सम्मामिच्याइटी वेदग सम्माट्ठी वा पढनसम्म पडिवज्जदि देसि तेन पाएन परिणमनसीए अभावादी उपसमसेटि मानवेदसम्मानि उवसमसम्मत्तं पडिवज्र्ज्जता अस्थि, किंतु ण तस्स पढमसम्मत्तववएसो कुरो सम्मन्ता तस्यसीए सदो तेण मिच्छा चैव होदयं । सासादनसम्म सम्यग्मिथ्यादृष्टि अथवा वेदकसम्यग्दृष्टि जोव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि, इन जीवोंके उस प्रथमोपशम सम्यक्त्वस्वरूप पर्यायके द्वारा परिणमन होनेकी शक्तिका अभाव है। उपशम श्रेणी पर चढ़नेवाले वेदकसम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि उपशम सम्मको प्राप्त करनेवाले होते हैं, किन्तु उस सम्यक्त्वका 'प्रथमोपशम सम्यक्त्व ' यह नाम नहीं है, क्योंकि उस उपशम श्रेणीवालेके उपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति सम्यक्त्व से होती है। इसलिए प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाला जीव मिध्यादृष्टि ही होना चाहिए । २. उपयोग, योग व विशुद्धि आदिकी अपेक्षा दे, उपशीर्षक नं. २ - ( वह सर्व विशुद्ध होना चाहिए ) । क. पा. सुत्त/ १० / गा / १८/६३२ सागारे पट्ठवगो मज्झिमो य भजियबो । लोगे अण्णवरह व जयगो तेउ तेस्साए || साधारोपयोग वर्तमान जीव ही दर्शनमोहनीय कर्म के उपशमनका प्रस्थापक होता है किन्तु निष्ठापक और मध्यस्थानवर्ती जीव भजितव्य है। तीनों योगों में से किसी एक योगमें वर्तमान और तेजोलेश्याके जघन्य अंशको प्राप्त जीव दर्शनमोहका उपशमन करता है । ६८ (६.६/१.६८.६ / गा. ५ / २३६) : (ल. सा / मू/ १०१ / १३८) रा.वा./१/१/१२/२८०/२५ गृहीतुमारभमाणः शुभ परिणामाभिमुखः अन्तर्मुहुर्तमगुणवृधा गर्जमान विशुद्धिः अन्यतमेन मनोयोगेन... अन्यतमेन वाग्योगेन...अन्यतमेन काययोगेन वा समाविष्टः हीयमानान्यतमकपायः साकारोपयोगः, लेशविरहितः । - प्रथम सम्यक्त्वको प्रारम्भ करनेवाला जीव शुभपरिपाम अभिमुख होता है, अन्तर्मुहूर्त में अनन्तगुण वृद्धि द्वारा वर्धमान विशुद्धि वाला होता है। तीनों योगोंके सर्व उत्तर भेदोनसे ) अन्यतम मनोयोगवाला या अन्यतम वचनयोगवाला या अन्यतम काययोगवाला होता है । हीनमान अन्यतम कषायवाला होता है । साकारोपयोगी होता है। तीनों वेदों में से अन्यतम वेदवाला होता है और सक्सेसे रहित होता है (.८/१.१८,४/२००/४) ध. ६/९.१-५/२००६ अजदो मदिरागाहत । तत्थ अगागारुवजोगी परि तस्समये पती अभावादी श लेस्साणमण्णदर सेस्सी किंतु हीयमान अशुद्ध मा लेस्सो - ( वह प्रथमोपराम सम्यक्रम के अभिमुख जीव) असंयत होता है, नति व तज्ञान रूप साकारोपयोगी होता है. अनाकारोपयोगी नहीं होता, क्योंकि, अनाकार उपयोगको बाह्य अर्थको जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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