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सम्यग्दर्शन
क. ग. गुप्त / ११ / ११०-११९/६३६ सणमोहनलागो कम्म भूमिजादो दुनियमा मनुसमदीए मिट्ठवगो चावि सव्यथ । १९० मिच्छतवेदोकम्मे हिदम्म सम्मले समाएगी लेस्साए ।११११. नियम कर्मभूमिमें उत्पन्न हुआ बोर मनुष्यगतिने वर्तमान जीव ही दर्शनमोहक प्रस्थापक (प्रारम्भ करनेवाला) होता है। किन्तु उसका निष्ठापक (पूर्ण करने बाता) चारों गतियोंमें होता है ।११०१ (पं. सं./प्रा./१/२०२) (ध. ६/१.१८१९ / गा. १७/२४५ ) (गो. जी./६४८/१०१८); (दे. हिच /२/५ में स. सि.). २. मिथ्यावेदनीयके सम्यनस्व प्रकृति में अपतित अर्थात संक्रमित कर देनेपर जन दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक कहलाता है। दर्शनमोहको क्षपणाके प्रस्थापकको जघन्यतेजोलेश्या वर्तमान होना चाहिए। १११। स. सा./मू./११०-११२/१४६ दसम मोहममणापत्रो कम्मभूमिजो मधुसो |... ११० पिठाने विमानभोगामी पन्ने य किकरणो च वि गदी उपज जम्हा । १११| दर्शनमोहकी क्षपणका प्रस्थापक कर्मभूमिज मनुष्य ही होता है । ११० । परन्तु उसका निष्ठापक तो ( अमामुष्की अपेक्षा) उसी स्थानमें बर्बाद जहाँ प्रारम्भ किया था ऐसी उस मनुष्यगतिमें (और भद्र विमानदासी देवों भोगभूमिज मनुष्यों व विचोंमें और धर्मा नामक प्रथम नरक पृथिवीमें भी होता है, क्योंकि मायुक कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि मरकर चारों ही गतियों में उत्पन्न होता है ।१११। गोक/- जो./५५०/०४४/११) ३. गुणस्थानोंकी अपेक्षा
/९/१.९/१४५/३६६ सम्माट्ठी सम्माट्ठी अम इट्रिट्ठ-प्पहूडि जाब अजोगिकेवलि त्ति | १४५ ॥ - सामान्य से सम्यग्दृष्टि और विशेष क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव असंयत सम्यष्टि गुणस्थान से लेकर अयोनिकेपली गुणस्थान तक होते हैं । १४३० मो.क./जो.प्र./५५०/०२२/११ प्रस्थापकोऽयमसंयताविचतुभ्यमी मनुष्य एव । = प्रस्थापक तो असंयत से अप्रमत्त पर्यन्तके चार गुणस्थानवर्ती मनुष्य ही होते हैं । गो.जी./जी.प्र./००४/१९४१२९ क्षायिकसम्य तु असंयतादि चतुर्गुणस्थानमनुष्याणां असंयत देशसं यतोपचार महावतमानुषीणां च कर्मनिवेदकसम्यष्टीनामेव... सप्तम कृति निरवदोष मे भवति । क्षायिक सम्यक् तो असंयतादि अप्रमत्त पर्यन्तके चार गुणस्थानव मनुष्योंके, तथा असंयत, देशसंयत और उपचार से महाबली मनुष्पनियों, कर्मभूमिज वेदक सम्महष्टियों के ही सात प्रकृतियोंका निरवदोष क्षय हो जानेपर होता है।
दे.
२/४ साम्यिष्टि चि संयतासंयत नहीं होते ३. तीर्थंकर आदिके सद्भाव युक्त क्षेत्र व कालमें ही प्रतिष्ठापना सम्भव है।
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. . ६/९.१-८/ सूत्र १२/२४३ सनमोहनीय कम्मं खमेमहतो कम्हि आढवेदि, अड्ढाइज्जेसु दीवसमुद्दसु पण्णासम्मभूमिसु जहि जिणा केली तित्थयरा तम्हि आढवेदि |११| दर्शनमोहनीय कर्मका क्षपण करनेके लिए आरम्भ करता हुआ यह जीव कहाँ पर आरम्भ करता है बड़ाई द्वीप समुद्रोंमें स्थित परब्रह कर्मभूमियों में जहाँ जिस कालमें जिन केपची और तीर्थकर होते हैं उस कात आरम्भ करता है |११| घ. ६/१.६-८, ११/२४६/१ दुस्सम ( दुस्समदुस्सम ) - सुस्समासुरसमासुसमा सुसमा दुस्समः कालुप्पण्णमणुसाणं खवणणिवारणट्ठ 'जम्हि जिना' ति बयणं जहि काले जिया संभवति तहि चै अग्नकाले...हि केमतिणाषियो
बगाए पटुवली होदि.
सम्यग्दृष्टि
अस्थि... तित्थयरपादमूले... अधवा चोहसपुव्वहरा... एाणं तिह पि पादमूले दंसणमोहवखवणं पठवेंति त्ति । - दुःषमा, (दुःषमादुःषमा), सुषमासुषमा, सुषमा, और सुषमादुःषमा काल में उत्पन्न हुए मनुष्य दर्शनमोहका क्षपण निषेध करनेके लिए (उपरोस सूत्र में ) 'जहाँ जिन होते हैं' यह वचन कहा गया है। जिस कालमें जिन सम्भव हैं उस ही काल में दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक होता है, अन्य काल में नहीं। अर्थाद जिस का ज्ञान होते हैं, या तीर्थंकर के पादमूलमें, अथवा चतुर्दश पूर्वघर होते हैं, इन तीनों के पादहमें कर्मभूमिज मनुष्यवर्णनमोवी क्षणाका प्रारम्भक होता है ।
ल. सा. / मू/ ११०/ १४६ तिरथयरपायमूले के लिसूद केवली मूले । ११० । तीर्थकरके पादमूल में अपना केली या केवीके पादसमें ही ( कर्मभूमि मनुष्य दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक होता है। ) गो.जी./जी.१.००४/११४२/१३ के तिमी पादोपान्ते सप्तप्रकृतिनिरवशेषक्षये भवति केवली और सफेमली इन दोनों में से किसी के श्रीपादमूल के निकट सात प्रकृतियोंका निरवशेषक्षय होनेपर होता है।
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४. वेदक सम्बव पूर्वक ही होता है
रा.वा./२/२/०/१००/२१ सम्यग्दर्शनस्य हि आदिपशमिको भावस्ततः क्षायोपशमिकस्ततः क्षायिक इति । सम्यग्दर्शनमें निश्चय से पहले औपशमिक भाव होता है, फिर क्षायोपशमिक होता है और तत्पश्चात् क्षायिक होता है । गो.जी./जी.प./००४/१९४१/२३ सम्पष्टिको ही होता है।
वेदकसम्यग्टण्टीनामेव... वेदक
५. क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत होते हैं पर अल्प २/१८/१०/२५६ संजदासंगदाणे समरथोमा लक्ष्यसम्मा विट्ठी ॥११
६.२/१.९.१८/२०१६ कुदी असहिदसम्मादिट्ठीकम दुसभादोच तिरिक्लेशु सयसम्मलेन सह संजमासंजमो लब्भदि, तत्थ मोहवणाभावा संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिक सम्पादृष्टि जीव सबसे कम हैं | क्योंकि १. अणुव्रत सहित क्षायिक सम्यहष्टियों का होना अत्यन्त दुर्लभ है तथा २ तिर्यञ्चों में क्षायिक सम्यक्त्वके साथ संयमासंयम पाया नहीं जाता, क्योंकि, तियंचोंमें दर्शनमोहकी क्षपणाका अभाव है (विशेष दे, तिच/२) ।
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म.पु./२४/१६३-१६५ ततः सम्यक्त्वशुद्धि च व्रतशुद्धिं च पुष्कलाम् । निष्कारणो भेजे परमानन्द १६ स तेथे गुरुमाराध्य सम्यग्दर्शननायकाला मुक्त कण्ठिकामिय निर्मताथ |१६|| परम आनन्दको धारण करते हुए भरतने शरीरानुरागसे रहित भगवान् वृषभदेव से सम्यग्दर्शनकी शुद्धि और अणुव्रतोंकी परम विशुद्धिको प्राप्त किया | १६३ भरतने गुरुदेवको आराधना करके, जिसमें सम्यग्दर्शनरूपी प्रधान मणि लगा हुआ है और जो मुषि लक्ष्मी के निर्मल कण्ठहारके समान जान पड़ती थी ऐसी गत बर शीलोंकी (५ अणुव्रत और सात शीलवत, इस प्रकार श्रावकके १२ तौंकी ) निर्मल माला धारण की ॥१६५॥ सम्यग्दर्शन क्रियाये/२०
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सम्यग्दृष्टि सम्यग्दर्शन युक्त जीवको सम्यग्दृष्टि कहते हैं जो चारों गतियों में होने सम्भव हैं। दृष्टिकी विचित्रता के कारण इनका विचारण व चिन्तवन सांसारिक लोगों से कुछ विभिन्न प्रकारका होता है, जिसे साधारण जन नहीं समझ सकते। सांसारिक लोग
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