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सम्यग्दर्शन
IV उपशमादि सम्यग्दर्शन
२. द्वितीयोपशम सम्यक्त्वका स्वामित्व ध.६/१,६-८, १४/३३१/८ हंदि तिसु आउएमु एक्केण वि बद्धेण ण । सक्को कसाए उवसामेदं, तेण कारणेण णिरय-तिरिक्रख-मणुसगदीओ ण गच्छदि । -निश्चयतः नरकायु, तिर्यपायु, और मनुष्यायु, इन तीनों आयुमेंसे पूर्व में बाँधी गयी एक भी आयुसे कषायोंको उपशमानेके लिए समर्थ नहीं होता। इसी कारणसे वह नरक तिर्यच व ( मरकर ) मनुष्यगतिको प्राप्त नहीं होता । (विशेष दे. मरण/३/७) । गो. जी.//६६६, ७३१/११३२, १३२५ विदियुवसमसम्मत्तं अविरदसम्मादि संतमोहोत्ति ६६६ विदियुबसमसम्मत्तं सेढोदोदिण्णि अविरदादिसु ७३१०-१. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व ४ थे से ११ वे गुण स्थान तक होता है।६६६ (विशेष दे. उपशम/२४) । २. श्रेणीसे उतरते हुए अविरतादि गुणस्थान होते हैं। (विशेष दे, शीर्षक
नं. ३, ४)। गो, जी./जी. प्र/१५०/७४२/७ द्वितीयं पर्याप्तमनुष्यनिवृत्त्यपर्याप्तवैमानिकयोरेव ।-द्वितीयोपशम सम्यक्त्व पर्याप्त मनुष्य व निवृत्यपर्याप्त वैमानिक देवोंमे ही होता है। (दे. द्र. सं./टी./४१/१७६/8); (और भी दे. मरण/३/७),
३. द्वितीयोपशमका अवरोहण क्रम घ.६/१.६-८,१४/३३१/४ एदिस्सै उबसम्मत्ताए अभंतरादो असंजमं पि गच्छेज्ज, संजमासंजमं पि गच्छेज्ज, छम आवलियासु सेसासु आसाणं पि गच्छेज्ज । -इस द्वितीयोपशम सम्यक्त्वके काल के भीतर असंयमको भी प्राप्त हो सकता है. संयमासंयमको भी प्राप्त हो सकता है और छह आवलियों के शेष रहनेपर सासादनको भी प्राप्त हो सकता है। [सासादनको प्राप्त करने व न करनेके सम्बन्धमें दो मत हैं। (दे. सासादन) ] (ल.सा./मू./३४८/४३७)। गो. जी./मू./७३१/१३२५ विदिमुवसारसम्मत्तं रेढीदोदिण्णि अविर
दादीसु । सगसगलेस्सा मरिदे देवअपज्जत्तगेव हवे ।७३१॥ गो.जी./जी. प्र./७०४/११४१/१६ द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि वा उपशमश्रेणिमारुह्य उपशान्तकषायं गत्वा अन्तर्मुहृतं स्थित्वा क्रमेण अवतीर्य अप्रमत्तगुणस्थान प्राप्य प्रमत्ताप्रमत्तपरावृत्तिसहस्राणि करोति। वा अधः देशसंयमो भूत्वा आस्ते वा असंयतो भूत्वा आस्ते वा मरणे देवासं यतः स्याव वा मिश्रप्रकुत्युदये मिश्रः स्यात् । अनन्तानुबन्ध्यन्यतमोदये द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं विराधयतीत्याचार्यपक्षे सासादनः स्यात् वा मिथ्यात्वोदये मिथ्यादृष्टिः स्यात् इति ।-द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि होकर, उपशमश्रेणीपर आरोहण करके, उपशान्तकषाय गुणस्थानमें जाकर और वहाँ तत योग्य अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित रहकर क्रमसे नीचे गिरता हुआ अर्थात् क्रमपूर्वक १०,६,८ गुणस्थानोंमेंसे होता हुआ अप्रमत्तसं यत गुणस्थानको प्राप्त करता है। वहाँ प्रमत्त व अप्रमत्तमें हजारों बार उतरना गिरना करता है। अथवा नीचे देशसंयत होकर रहता है, अथवा असंयत होकर रहता है, या मरण करके असंयत देव (निवृत्त्य पर्याप्त ) होता है, अथवा मिश्र प्रकृतिके उदयसे मिश्रगुणस्थानधर्ती होता है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कमें से किसी एकका उदय आनेपर द्वितीयोपशमकी विराधना करके किन्हीं आचार्योंके मतसे सासादन भी हो जाता है (विशेष दे. सासादन), अथवा मिथ्यात्वके उदयसे मिथ्यादृष्टि हो जाता है। (और भी. दे, श्रेणी/३/३)। ४. श्रेणीसे नीचे आकर भी कुछ देर द्वितीयोपशमके
साथ ही रहता है ध. ६/१,६-८, १४/३३१/१ उपसामगस्स पढमसमयअपुवकर.पहडि जात्र पडिवणमाणयस्स चरिमसमयअपुवकरणेत्ति तदो एत्तो संखेजगुगं कालं पडिणियत्ता अधारवत्तकरणेण उबसमसम्मत्तद्धमणुपाले दि ।
=उपशामकके श्रेणी चढ़ते समय अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर उतरते हुए अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक जो काल है, उससे संख्यातगुणे कालतक कषायोपशमनासे लौटता हुआ जीव अधःप्रवृत्तिकरण (७३ गुणस्थान ) के साथ द्वितीयोपशम सम्यक्त्वको पालता है । (ल. सा./मू./३४७/४३७): (और भी दे. मरण/३/७)। गो. जी./जो प्र./६६६/११३२/१२ द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं असंयताद्य प
शान्तकषायान्तं भवति । अप्रमत्ते उत्पाद्य उपरि उपशान्तकषायान्तं गत्वा अधोवतरणे असंयतान्तमपि तत्स भवात् ।-द्वितीयोपशमसम्यक्त्व असंयतादि उपशान्तकषाय गुणस्थान पर्यन्त होता है। अप्रमत्त गुणस्थानमें उत्पन्न करके, ऊपर उपशान्तकषाय गुणस्थान तक जाकर, फिर नीचे उतरते हुए असंयत गुणस्थान तक भी सम्भव है । (गो. जी./जी. प्र७३१/१३२५/१३) ४. वेदक सम्यक्त्व निर्देश
१. वेदक सामान्यका लक्षण १. क्षयोपशमकी अपेक्षा स. सि./२/५/१५७१६ अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्टयस्य मिथ्यात्वसम्यङ्मिथ्यात्वयोश्चोदयक्षयात्सदुपशमाच्च सम्यक्त्वस्य देशघातिस्पर्धकस्योदये तत्त्वार्थश्रद्धानं क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वम् । म चार अनन्तानुबन्धी कषाय, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय और इन्हीं के सदवस्थारूप उपशमसे, देशघाती स्पर्धकवाली सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयमें जो तत्त्वार्थश्रद्धान होता है वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है। (रा. बा/२/५/८/१०८/१); (विशेष दे. क्षयोपशम/१/१): (गो. जी./जी. प्र./२५/५०/१८) । २. वेदक सम्यक्त्वकी अपेक्षा ध. १/१.१,११४/गा, २१५/३६६ ईसणमोहूदयादो उपज्जई जे पयस्थ
सदहण । चलमलिनमगाढं तं वेदगसम्मत्तमिह मुणहू ।- सम्यक्त्वमोहनीय प्रकृतिके उदयसे पदार्थों का जो चल, मलिन और अगाढ़रूप श्रद्वान होता है उसको वेदक सम्यग्दर्शन कहते हैं। (गो. जी./मू-/ ६४६/१०६६); (गो. जी./मू./२५/१०)। ध. १/१,१,१२/१७१/६ सम्मत्त-सण्णिद-दसणमोहणीयभेय-कम्मस्स __उदएण वेदयसम्माइट्ठी णाम। ध. १/१,१,१२/१७२/३ सम्मत्तदेसघाइ-वेदयसम्मत्त दएणुप्पण्ण वेदयसम्मत्तं खओवसमियं । -१. जिसको सम्यक्त्व संज्ञा है ऐसी दर्शनमोहनीय कर्मकी भेदरूप प्रकृतिके उदयसे यह जीव वेदक सम्यग्दृष्टि कहलाता है। (पं. सं/प्रा./१/१६४)। २. सम्यक्त्वका एक देशरूपसे वेदन करानेवाली सम्यक्रम प्रकृतिके उदयसे उत्पन्न होनेवाला वेदक सम्यक्त्व क्षायोपशमिक है । ( विशेष दे. क्षयोपशम/१/१ ।
२. कृतकृत्य वेदकका लक्षण ध.६/१६-८,१२/२६२/१० चरिमे दिखंडए णिट्ठिदे कदकरणिज्जो त्ति भण्णदि। -दर्शन मोहनीयका क्षय करने वाला कोई जीव ७ वें गुणस्थानके अन्तिम सातिशय भागमें कर्मों की स्थितिका काण्डक घात करता है-दे. क्षय ) तहाँ अन्तिम स्थितिकाण्डकके समान होनेपर वह 'कृतकृत्यवेदक' कहलाता है । (ल.सा./मू./१४५) (विशेष दे. क्षय/२/५)
३. वेदक सम्यक्त्वके बाह्य चिह्न पं.सं./प्रा/१/१६३-१६४ बुद्धी महाणुबंधी सुइकम्मरओ सुए ये
संवेगो। तच्चत्थे सद्दहणं पियधम्मे तिव्वणिव्वेदो १६३॥ इच्चेबमाइया जे वेदयमाणस्स होति ते य गुणा। वेदयसम्मत्तमिण
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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