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सम्यग्दर्शन
IV उपशमादि सम्यग्दर्शन
श्रद्धानानां कथं समानतेति चेद्भवतु विशेषणानां भेदो न विशेष्यस्य यथार्थश्रद्धानस्य । प्रश्न-सम्यक्त्वमें रहने वाला वह सामान्य क्या वस्तु है (जिससे कि इन भेदोंसे पृथक् एक सामान्य सम्यग्दृष्टि संज्ञक भेद ग्रहण कर लिया गया:) उत्तर-तीनों ही सम्यग्दर्शनों में जो साधारण धर्म है, वह सामान्य शब्दसे यहाँपर विवक्षित है। प्रश्न-क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यग्दर्शनोंके परस्पर भिन्न भिन्न होनेपर सदृशता क्या वस्तु हो सकती है। उत्तर-नहीं, क्योंकि उन तीनों सम्यग्दर्शनोंमें यथार्थ श्रद्धानके प्रति समानता पायी जाती है। प्रश्न-क्षय, क्षयोपशम और उपशम विशेषणसे युक्त यथार्थ श्रद्धानों में समानता कैसे हो सकती है ! उत्तर-विशेषणोंमें भेद भले ही रहा आवे, परन्तु इससे यथार्थ श्रद्धानरूप विशेष्यमें भेद नहीं पड़ता है। २. प्रथमोपशम सम्यक्त्व निर्देश
संक्लेशभाव उत्पन्न नहीं होते। ४. धर्मोपदेश सुन कर जो जातिस्मरण होता है और देवद्धिको देख कर जो जातिस्मरण होता है. ये दोनों ही जातिस्मरण यद्यपि प्रथम सम्यक्त्वको उत्पत्तिके निमित्त होते हैं, तथापि उनसे उत्पन्न सम्यक्त्व वहाँ (आनत आदिमें) जाति स्मरण निमित्तक नहीं माना गया है, क्योंकि यहाँ देवद्धिके दर्शन व धर्मोपदेशके श्रवणके पश्चात ही उत्पन्न हुए जातिस्मरणका निमित्त प्राप्त हुआ है । अतएव यहाँ धर्मोपदेश श्रवण और देवद्धि दर्शनको ही निमित्त मानना चाहिए।
९. नववेयकोंमें जिनमहिमा व देवर्द्धि दर्शन क्यों नहीं घ.६१,६-६,४२/४३६/३ एत्य महिद्धिदसणं णत्थि, उवरिमदेवाणमागमाभावा । जिणमहिमदंसणं पिणस्थि, गंदीसरादिमहिमाणं तेसिमागमणाभावा। ओहिणाणेण तस्थढिया चेव जिणमहिमाओ पेच्छति त्ति जिणम हिमादसणं वि तेसिं सम्मत्तुप्पत्तीए णिमित्तमिदि किण्ण उच्चदे। ण तेसि बीयरायाणं जिणमहिमादसणेण विभयाभावा ।प्रश्न-नवगैवेयकों में महद्धिदर्शन नहीं है, क्योंकि यहाँ ऊपरके। देवोंके आगमनका अभाव है। यहाँ जिनमहिमादर्शन भी नहीं है, क्योंकि प्रैवेयकविमानवासी देव नन्दीश्वर आदिके महोत्सव देखने नहीं आते। प्रश्न-4 वेयक देव अपने विमानों में रहते हुए ही अवधिज्ञानसे जिनमहिमाओं को देखते तो हैं, अतएव जिनमहिमाका दर्शन भी उनके सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें निमित्त होता है ऐसा क्यों नहीं कहा 1 उत्तर-नहीं, क्योंकि, अवेयक विमानवासी देव वीतराग होते हैं अतएव जिनमहिमाके दर्शनसे उन्हें विस्मय उत्पन्न नहीं होता।
१०. नववेयकमें धर्मश्रवण क्यों नहीं ध.६/१,६-६,४२/४३६६ कधं तेसि धम्मसुणणसंभवो। ण, ते सि अण्णोण्णसवलावे संते अहमिदत्तस्स विरोहाभावा। - प्रश्न-प्रबेयक विमानवासी देवोंके धर्म श्रवण किस प्रकार सम्भव होता है। उत्तरनहीं, क्योंकि उनमें परस्पर संलाप होनेपर अहमिन्द्रत्वसे विरोध नहीं होता।
IV उपशमादि सम्यग्दर्शन १. उपशमादि सम्यग्दर्शन सामान्य १. सम्यक्त्व मार्गणाके उपशमादि भेद प. रवं./१/१,१/सूत्र १४४/१६५ सम्मत्ताणुवादेण अस्थि सम्माइट्ठी खय
सम्माश्ट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उबसमसम्माइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी मिच्छाइट्ठी चेदि ।१४४ सम्यक्त्व मार्गणाके अणुवादसे सामान्यकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि सामान्य और विशेषकी अपेक्षा क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यगमिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं ।१४४| (द्र.सं/टी./१३/४०/१/); (गो.जी./जी.प्र./७०४/११४२/१)। शा./६/७ क्षीणप्रशान्त मिश्रासु मोहप्रकृतिषु क्रमात् । तव स्यादतव्यस्यादिसामग्र या पुसौ सदर्शनं त्रिधा -दर्शनमोहकी तीन प्रकृतियों के क्षय उपशम और क्षयोपशमरूप होनेसे क्रमशः तीन प्रकारका सम्यक्त्व है-क्षायिक, औपशामिक व क्षायोपशमिक ।
२. तीनों सम्यक्त्वों में कथंचित् एकत्व ध.१/१.१.१४५/३६६/८ किं तत्सम्यक्त्वगतसामान्यमिति चेव त्रिष्वपि
सम्यग्दर्शनेषु यः साधारणोंऽशस्तत्सामान्यम् । क्षायिकक्षायोपशमिकोपशमिकेषु परस्परतो भिन्नेषु किं सादृश्यमिति चेन्न, तत्र यथार्थ - श्रद्धानं प्रति साम्योपलम्भात् । क्षयक्षयोपशमविशिष्टानां यथार्थ
१. उपशम सम्यक्त्व सामान्यका लक्षण प.स/प्रा./२/१६५-१६६ देवे अणण्णभावो विसयविरागो य तच्चसहहणं । दिट्ठीसु असम्मोहो सम्मत्तमणूणय जाणे।१६। दंसणमोहस्सुदए उवसंते सच्चभावसहहणं । उवसमसम्मत्तमिणं पसण्णकलुसं जहा तोयं 1१६६। -उपशम सम्यक्त्वके होनेपर जीवके सत्यार्थ देवमें अनन्य भक्तिभाव, विषयोंसे विराग, तत्त्वोंका श्रधान और विविध मिथ्यादृष्टियों ( मतों) में असम्मोह प्रगट होता है। इसे क्षायिक सम्यक्त्व से कुछ भी कम नहीं जानना चाहिए।१६। जिस प्रकार पंकादि जनित कालुष्यके प्रशान्त होनेपर जल निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार दर्शन मोहके उदयके उपशान्त होनेपर जो सत्यार्थ श्रदधान उत्पन्न होता है, उसे उपशम सम्यग्दर्शन कहते हैं ।१६६। घ.१/१.१.१४४/गा. २१६/३६६ दंसणमोहवसमदो उप्पज्जइ जं पयस्थ सदहणं । उस मसम्मतमिण पसण्णमलपंकतोयसमं । -दर्शनमोहनीयके उपशमसे, कीचड़के नीचे बैठ जानेसे निर्मल जलके समान, पदार्थोंका जो निर्मल श्रधान होता है, वह उपशम सम्यग्दर्शन
है ।२१६॥ (गो.जी./मू /६५०/१०६६) स. सि./२/३/१५२/४ आसां सप्तानी प्रकृतीनामुवशमादौपश मिक सम्यक्त्वम्। -(अनन्तानुबन्धी चार और दर्शनमोहकी तीन) इन सात प्रकृतियों के उपशमसे औपशमिक सम्यवत्व होता है । (रा.वा./२/३/१/१०४/१७)। ध.१/१,१.१२/१७१/५ एदासि सत्तव्ह पयडीणमुवसमेण उवसमसम्माइट्ठी होइ ।...एरिसो चेय । पूर्वोक्त दर्शनमोहकी सात प्रकृतियों के उपशमसे उपशम सम्यग्दृष्टि होता है। यह भीक्षायिक जैसा ही निर्मल व सन्देह रहित होता है।
२. उपशम सम्यक्त्वका स्वामित्व प, ख./१/१,१/सू.१४७/३६८ उवसमसम्माइट्ठी असंजदसम्माइटि.ठप्पहुडि जाव उवसंतकसायवीयरायछमस्थात्ति। -उपशम सम्यग्दृष्टि जीव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं । ( विशेष दे. यह वह मार्गणा तथा 'सत्')।
३. उपशम सम्यक्रवके २ भेद व प्रथमोपशमका लक्षण गो.क./जी.प्र./५५०/७४२/३ तत्राद्य प्रथमद्वितीयभेदाद देधा। - उनमें
से आदिका अर्थात उपशम सम्यक्त्व दो प्रकारका है--प्रथम व द्वितीय। ल.सा./भाषा/२/४१/१८ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानतें छुटि उपशम सम्यवत्व होइ ताका नाम (प्रथम) उपशम सम्यक्त्व है। (विशेष दे. सम्यग्दर्शन/IV/२/४/२)
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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